श्री गुरुनानक देव :  हमारे ऋषि-मुनि, भागः 59

By: Apr 17th, 2021 12:15 am

शांत, एकांत, बाहर जाकर न खेलने वाले इस बालक ने अपनी अलौकिक शक्तियों का परिचय बहुत पहले से देना शुरू कर दिया। माता के बार-बार कहने पर एक दिन बालक नानक भी बाहर खेलने गया। सब बच्चों को इकट्ठा कर उन्हें नया खेल सिखाया। सभी बच्चे पद्मासन में, एक गोल पंक्ति में बैठ गए। उन्हें मुंह ही मुंह में ‘सतकरतार सतकरतार’ बोलते रहने का पाठ पढ़ाया…

श्रीगुरु नानकदेवजी ने जिस सिख धर्म को चलाया, उसी को सिखमत, गुरुमत या खालसा पंथ कहा जाता है। उन्होंने  चारों जातियों अथवा वर्गों को एक ही व्यक्ति में इकट्ठा करके एक ऐसा नमूना बना दिया, जो सृष्टिकर्ता की ऐन मुराद हो सकता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र चारों वर्णों के उत्तम गुण एक व्यक्ति द्वारा प्रकट किए।

समाधि लगाने लगे बच्चे भी

राइभोई तलवंडी (ननकाना साहिब) में वेदी कालूचंद पटवारी के के घर माता तृप्ता ने संवत् 1526(15 अप्रैल, सन् 1469) को गुरु नानक देवजी को जन्म दिया। शांत, एकांत, बाहर जाकर न खेलने वाले इस बालक ने अपनी अलौकिक शक्तियों का परिचय बहुत पहले से देना शुरू कर दिया। माता के बार-बार कहने पर एक दिन बालक नानक भी बाहर खेलने गया। सब बच्चों को इकट्ठा कर उन्हें नया खेल सिखाया। सभी बच्चे पद्मासन में, एक गोल पंक्ति में बैठ गए। उन्हें मुंह ही मुंह में ‘सतकरतार सतकरतार’ बोलते रहने का पाठ पढ़ाया। इस प्राकर वे ध्यान में बैठना सीख गए। माता आई, यह देखकर हैरान हुई।

पढ़ा लिखा मनुष्य मूर्ख

पिता कालूचंद ने इन्हें संवत् 1532 में गोपाल पंडित के पास हिंदी पढ़ने, संवत् 1535 में ब्रजलाल पंडित के पास संस्कृत सीखने तथा संवत् 1539 में मौलवी कुतुबद्दीन के पास फारसी सीखने को भेजा। मगर ये तीनों गुरु नानक के शिष्य बन गए। गुरु नानक ने उनके मन में यह बात बैठा दी कि विद्या का तत्त्व ज्ञान बिना पढ़ा-लिखा मनुष्य भी मूर्ख है। युवावस्था पाकर भी वह हरिचिंतन में लगे रहते।

सच्चा सौदा किया उन्होंने

कोई बढि़या सौदा करने के लिए घर से पैसे ले गए। रास्ते में भूखे संतों को भोजन करवाकर सारा पैसा व्यय कर दिया। पिताजी से कहा, कि इससे अच्छा व सच्चा सौदा कोई और नहीं। पिता नाराज हुए, बेटे की पिटाई की। बहन नानकी ने पिटाई देख बड़ा दुख मनाया। उसकी नजरों में यह साधारण व्यक्ति नहीं, ईश्वर समान थे। संवत् 1541 को बहन नानकी, अपने पति जयराम की आज्ञा लेकर इन्हें अपने घर सुलतानपुर ले आई। 1542 में गुरुजी ने दौलतखां लोदी के मोदीखाने की सेवा संभाल ली।

तेरह से तेरा-तेरा की रट लगी

संवत् 1544 में 24 ज्येष्ठ को सुलक्षणी देवी सुपुत्री श्री मूलचंद के साथ गुरु नानकदेव का विवाह हुआ। बाबा श्रीचंद और बाबा लक्ष्मीदास, इनके दो पुत्र हुए। मोदी खाने में काम करते समय गरीबों को कई बार मुफ्त सामान भी दे देते, मगर फिर भी हिसाब तथा गोदाम ठीक होते। संवत् 1554 आटा तौलते समय 1, 2 से 13 तक पहुंचे, तो गिनती भूलकर सारा आटा तेरा, तेरा कहकर तौल दिया। उसी दिन से मोदी खाने का काम छोड़ दिया। उनकी नजरों में न कोई हिंदू,न मुसलमान। इसी समय युवक नानक, गुरुनानक माने जाने लगे।

वाहेगुरु सतनाम का प्रचार किया

उनके अंदर प्रकाश हो चुका था। उन्होंने निर्णय किया कि अंधकार का विनाश करने के लिए घर पर नहीं रहना है, वरना संस्कार का पूर्ण विकास नहीं होगा। ईश्वर के अमृत नाम की वर्षा करने के लिए उन्होंने 1554 में घर त्याग, देशाटन शुरू कर दिया। हरिद्वार, दिल्ली, काशी व गया तक गए। ‘करतार’ का उपदेश दिया। दूसरी लंबी यात्रा में कोह, आबू, सेतुबंध रामेश्वर, सिंहलद्वीप आदि गए। तीसरी यात्रा में सिरमौर, गढ़वाल, हेमकूट, गोरखपुर, भूटान, तिब्बत पहुंचे।

चौथी यात्रा बलोचिस्तान, मक्का आदि की पूरी की। सब जगह ‘वाहेगुरु’ के नाम की साधना की व प्रचार किया। इसी यात्रा में रूस, बगदाद, ईरान, कंधार, काबुल भी गए। सतनाम (सत्यनाम) का सब जगह प्रचार किया। इनके जीवन में अनेक अलौकिक व अनोखी घटनाएं भी घटी, जिससे इनके महान होने का आभास होता है। इनके उपदेश  का रंग व ढंग नया था। 25 वर्ष यात्राएं कीं। संवत् 1579 में करतारपुर आ बसे। इसे इन्हीं ने बसाया था। अपनी गद्दी पुत्रों को न देकर योग्य शिष्य अंगदजी को दी। 22 सितंबर, सन् 1539 को परलोक गमन किया।                            – सुदर्शन भाटिया 


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