टांकरी लिपि में भी है लोकसाहित्य

By: Apr 18th, 2021 12:06 am

विमर्श के बिंदु

अतिथि संपादक : डा. गौतम शर्मा व्यथित

हिमाचली लोक साहित्य एवं सांस्कृतिक विवेचन -28

-लोक साहित्य की हिमाचली परंपरा
-साहित्य से दूर होता हिमाचली लोक
-हिमाचली लोक साहित्य का स्वरूप
-हिमाचली बोलियों के बंद दरवाजे
-हिमाचली बोलियों में साहित्यिक उर्वरता
-हिमाचली बोलियों में सामाजिक-सांस्कृतिक नेतृत्व
-सांस्कृतिक विरासत के लेखकीय सरोकार
-हिमाचली इतिहास से लोक परंपराओं का ताल्लुक
-लोक कलाओं का ऐतिहासिक परिदृश्य
-हिमाचल के जनपदीय साहित्य का अवलोकन
-लोक गायन में प्रतिबिंबित साहित्य
-हिमाचली लोक साहित्य का विधा होना
-लोक साहित्य में शोध व नए प्रयोग
-लोक परंपराओं के सेतु पर हिमाचली भाषा का आंदोलन

लोकसाहित्य की दृष्टि से हिमाचल कितना संपन्न है, यह हमारी इस शृांखला का विषय है। यह शृंाखला हिमाचली लोकसाहित्य के विविध आयामों से परिचित करवाती है। प्रस्तुत है इसकी 28वीं किस्त…

ब्राह्मी लिपि जैसे जिसके पूर्वज, शारदा लिपि जैसी मां के गर्भ से उत्पन्न टांकरी लिपि भले ही आज अपनी जगह तलाश रही हो, लेकिन एक समय था जब हिमालयी क्षेत्र के बड़े-बड़े राजा-महाराजाओं के वित्त का सारा लेखा-जोखा, टिपडू, तंत्र-मंत्र की विद्या और वैद्यों द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली औषधि से लेकर आयुर्वेद तक की सारी जानकारी टांकरी लिपि में ही लिखी जाती थी। पहाड़ी राज्यों में टांकरी लिपि में ही सारा कामकाज होता था, लेकिन कालचक्र में टांकरी की प्रसिद्धि में धीरे-धीरे कमी देखी गई। टांकरी की समकालीन गुरुमुखी जहां जन-जन की लिपि बनी, वहीं टांकरी ज्यादातर रजवाड़ों और व्यापारियों तक ही सीमित रही। इसकी सबसे बड़ी वजह है गुरुमुखी का हर जगह एक स्वरूप, जबकि टांकरी के मानक आज तक तय नहीं हो पाए। हिमाचल और अन्य पहाड़ी राज्यों में ‘महाजनी लिपिÓ के नाम से मशहूर टांकरी आज फिर से धीरे-धीरे अपनी जगह वापस तलाश रही है।

14वीं से 19वीं शताब्दी का काल टांकरी का स्वर्ण काल रहा है। इस काल मे पंजाबी-पहाड़ी रियासतों में टांकरी खूब प्रचलित हुई। हालांकि रियासतों के अनुसार टांकरी के स्वरूप में भी भिन्नता पाई जाती थी, परंतु फिर भी यह काल टांकरी का स्वर्णिम काल माना जाता है। कुछ विद्वानों का मत है कि हिमाचल, कश्मीर और पाकिस्तान से लगते इलाकों से टांकरी का उद्भव हुआ होगा। इस विषय पर विद्वानों के भले ही अलग-अलग मत हो सकते हैं, किंतु एक बात पर सभी विद्वानों की सहमति है कि पहाड़ी राज्यों का सारा लेखा-जोखा टांकरी लिपि में ही होता था। टांकरी का सबसे ज्यादा प्रयोग जम्मू और उससे लगते इलाकों में देखा गया। कांगड़ा, चंबा, मंडी के लोग अपनी-अपनी बोलियों में ही टांकरी में लिखते थे। लगभग तीस के करीब बोलियां टांकरी में लिखी जाती थीं। टांकरी के मानक जगह के हिसाब से बदलते रहे हैं। इस कारण आज हमें किश्तवाड़ी, कुल्लवी, कांगड़ी, सिरमौरी, जौनसारी, चंबयाली, मंडियाली, गद्दी, डोगरी जैसे टांकरी के अलग-अलग स्वरूप देखने को मिलते हैं। क्षेत्रों के अनुसार थोड़ी-थोड़ी भिन्नता जरूर हमें देखने को मिलती है, जैसे ‘अÓ वर्ण बहुत सारी जगहों पर भिन्न-भिन्न प्रकार से लिखा गया है, लेकिन अधिकतर वर्णों का एक ही स्वरूप मिला है। इन सबमें सिरमौरी टांकरी में सबसे ज्यादा भिन्नता पाई जाती है। मंडी की टांकरी शारदा लिपि के सबसे नजदीक मानी जाती है। कुल मिलाकर क्षेत्रीय बोलियों की सुविधा के अनुसार टांकरी को ढाला गया जिसके कारण इसका कोई स्थायी स्वरूप नहीं बन पाया, किंतु भिन्नता के बाद भी अंत में ये सभी धाराएं एक नदी में मिल जाती हैं जो आज भी आमजन को एक सूत्र में जोड़े रख सकती हैं। बहुत सारी पहाड़ी रियासतों, खासकर चंबा में कई राजाओं की मोहरें, आदेश, लेख आदि टांकरी लिपि में मिले हैं। पहाड़ी चित्रकारों जैसे नैनसुख आदि द्वारा भी टांकरी लिपि का अपने चित्रों पर प्रयोग किया गया है। संस्कृत के कई लेखों को भी टांकरी में लिखा गया है। ऐसा माना जाता है कि कुल्लू से संबंध रखने वाले टांकरी के जानकार स्वर्गीय खूब राम जी के पास रामायण की टांकरी में लिखी पांडुलिपियां थीं। हालांकि टांकरी में साहित्य सृजन कम हुआ है, परंतु फिर भी कुछ लोकगीत आदि टांकरी लिपि में मिले हैं।

मंडी में विवाह पद्धति की पांडुलिपियां टांकरी लिपि में मिली हैं। कुल्लू से लगते क्षेत्रों में टांकरी आगमन पर टांकरी के जानकार यतिन शर्मा का मत है कि चंबा और मंडी के प्रभाव क्षेत्र के कारण टांकरी कुल्लू से लगते क्षेत्रों में भी फैल गई होगी। कुल्लू के देवी-देवताओं की बहुत सारी मोहरों पर टांकरी लिपि अंकित है। वर्तमान समय में मंडी से जगदीश कपूर द्वारा मंडयाली टांकरी नाम से एक किताब टांकरी में प्रकाशित की गई है। हिमाचल साहित्य अकादमी द्वारा भी ‘आज पुरानी राहों सेÓ पहाड़ी क्षेत्र की आठ लिपियों पर एक पुस्तिका निकाली गई है। साम्भ संस्था द्वारा टांकरी के फॉन्ट जल्द ही विकसित करने का प्रयास किया जा रहा है। अंशुमन पांडेय द्वारा टांकरी पर किया गया शोध आज के समय टांकरी पर सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है। टांकरी के विकास और संवर्धन के उद्देश्य से 1860 के दशक में जम्मू के राजा रणवीर सिंह द्वारा टांकरी को जम्मू-कश्मीर की आधिकारिक लिपि घोषित किया गया जो डोगरा अक्खर के नाम से प्रसिद्ध हुई। प्रसिद्ध अंग्रेज़ भाषाविद जॉर्ज ग्रेयर्सन ने दक्षिण पहाड़ी भाषाओं का जनगणना में अलग से वर्गीकरण किया और 1921 तक दक्षिणी पहाड़ी भाषाओं के वर्ग की उसी प्रकार अलग से गणना की जाती रही। ग्रहमवेली, एएच डायक आदि अंग्रेज़ भाषाविदों के कार्यों में भी टांकरी के भिन्न स्वरूपों का उल्लेख मिलता है। हिमाचल प्रदेश में टांकरी लिपि के संरक्षण के लिए हिमाचल के पहले मुख्यमंत्री डा. यशवंत सिंह परमार, पूर्व मंत्री प्रो. नारायण चंद पराशर और श्री लाल चंद प्रार्थी आदि वरिष्ठ नेताओं द्वारा पहली कोशिश शुरू की गई। प्रो. पराशर द्वारा पहाड़ी भाषा व टांकरी लिपि के संरक्षण के लिए ‘दक्षिणी पहाड़ी भाषा आंदोलनÓ चलाया गया। बाद में उनके द्वारा ‘हिमाचली पहाड़ी साहित्य सभाÓ की स्थापना की गई। पहला पश्चिमी पहाड़ी समाचारपत्र ‘हिमधाराÓ भी प्रो. नारायण चंद पराशर द्वारा ही निकाला गया। इन प्रारंभिक प्रयासों द्वारा पहाड़ी भाषा और टांकरी के संरक्षण की कोशिश तो की गई, किंतु फिर भी टांकरी हिमाचल की आधिकारिक लिपि नहीं बन पाई और टांकरी के स्थान पर देवनागरी को हिमाचल की आधिकारिक लिपि घोषित किया गया। पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह और प्रेम कुमार धूमल की सरकारों द्वारा टांकरी के लिए विधानसभा में प्रस्ताव पारित तो हुए, किंतु बात आगे नहीं बढ़ पाई।

वर्तमान समय में भी बहुत सारे लोगों द्वारा टांकरी के संरक्षण और संवर्धन के प्रयास किए जा रहे हैं। इनमें कांगड़ा जिला से संबंध रखने वाले हरिकृष्ण मुरारी व कुल्लू से संबंध रखने वाले यतिन शर्मा विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके बावजूद एक प्रश्न न केवल टांकरी का, बल्कि पूरे लोकसाहित्य द्वारा आज के आधुनिक लोगों से बार-बार पूछा जा रहा है कि क्या हमारा संरक्षण और संवर्धन तभी अच्छे से हो सकता है, जब कोई विदेश से आकर हमारी बात करेगा?

कला उनके साथ ही चली गई। इसी तरह आधुनिकता के रंग में कहलूर का पारंपरिक नृत्य ही बदल गया है। यही हाल धुप्पू, चंदरौली चरकटी का है। चैत्र मास में शिव महिमा गाने वाले, हस्सी समुदाय के लोग भी गाते नहीं दिखते। फक़ीर रोडे मलंग की कार फेरने वाले भी लुप्त हो गए हैं। धान के खेतों के ज्वार व घास खड़ की खड़ोडियां समाप्त होने से और उसमें गाए जाने वाले इनके गीत भी गुम हो गए हैं। यही हाल कुछ पारंपरिक कलाओं का है, जो कुछ जातियों की पुश्तैनी कलाएं हुआ करती थीं। इनका आकार और प्रसार भी दिन-प्रतिदिन सीमित होता जा रहा है। चाहे वो कुम्हार, चर्म, लकड़ी, रेशा, कपड़ा और धातु आदि के शिल्पकार या कलाकार हों। आज इनका स्थान प्लास्टिक, पॉलीथिन, अलुमिनियम ने लेकर जहां वातावरण में अथाह प्रदूषण बढ़ाया है, वहीं सैंकड़ों रोगों को भी जन्म देकर मानव जीवन तथा जीव-जंतुओं और पेड़-पौधों के जीवन को समाप्त व संकटमय बना दिया है।

आज समय की मांग है कि ऐसे कदम उठाए जाएं व प्रोत्साहन दिए जाएं कि लोगों को जागरूक करके, उनके द्वारा निर्मित वस्तुओं का उपयोग बढ़े। साथ ही इनके व्यवसाय व कला को राजकीय सम्मान की दृष्टि से प्रतिष्ठित किया जाए, जिससे यह लोक कला व संस्कृति जीवंत भी रहे और रोजगार तथा समृद्धि का कारक भी बने। आवश्यकता इस बात की है कि हम अपनी लोक संस्कृति के मूल तत्त्वों से निरंतर जुड़े रहें ताकि भौतिकतावाद की दौड़ में मानवतावाद भाव-शून्य न बने।


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