कहलूरी लोकसाहित्य में लोक गायन-नृत्य परंपरा

By: Jun 13th, 2021 12:04 am

डा. रवींद्र कुमार ठाकुर, मो.-9418638100

हिमाचल प्रदेश जैसे प्राकृतिक सौंदर्य के धनी राज्य की अलौकिक छटाएं किसी के भी मन-मष्तिष्क को स्वर्ग सी अनुभूति दिला सकती हैं। यही अनुभूति किसी भी साधारण व्यक्तित्व को प्रकृति के आंचल में खो जाने और झूमने को मजबूर कर देती है। मनुष्य चाहे सांसारिक जीवन के झंझावातों में कितना भी उलझा रहे, उसे इन्हीं झंझावातों की उलझन को सुलझाने के लिए, थकान को मिटाने के लिए ऐसा समय चाहिए कि वह ऐसे चतुर्दिक सौंदर्य में खोकर उससे उपजे भावों को गुनगुनाकर या गाकर झूमने लगे तो ये पल वास्तव में स्वर्गानुभूति के ही होते हैं।

ऐसे ही पलों से प्रेरित होकर यहां के लोक ने यहां की श्वेत बर्फ से लदी ऊंची-ऊंची पर्वत श्रृंखलाओं, उनसे उतरती कल-कल छल-छल से गीत गाती दूध जैसी सरिताओं, झरनों, खड्डों, नालों, वनों के तरुवरों से गुजरती हवा की सांय-सांय से निकलती धुनें, पशु-पक्षियों की आवाजें, साजों का मिश्रण करती हुई और इसी सुर-ताल में हरी भरी सुंदर वादियों ने झूमने को मजबूर किया होगा। लोक गायन-नृत्य की यह परंपराएं हिमाचल के प्रत्येक क्षेत्र में उस क्षेत्र की विशिष्टताओं को समेटे हुए सदियों से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को श्रव्य रूप में दी जाती रही हैं। लोक गायन और नृत्य का यह क्रम कहलूर रियासत, जो वर्तमान में बिलासपुर जिले के रूप में है, में भी चलता आया है।

एक नायक नायिका को दूसरी घाटी में देख कर अपने दिल की बात को उस तक पहुंचाने के लिए, हरी-भरी लहलहाती युवा हो रही वृक्ष की डाली को प्रतीकात्मक रूप में संबोधित करते हुए गा उठा ः ‘हरिये डालिये तूं कियां बडणी, इक्क तेरा पाप लगदा, दूजे देखी के तूं कियां छडणी।’ कहलूर, जो 1948 से पूर्व एक देशी रियासत थी, वर्तमान में जिला बिलासपुर की भौगोलिक स्थिति के अनुसार सतलुज नदी के दोनों ओर फैला हुआ है। इसकी सात खड्डें व सात धारें व मानव निर्मित झील इसे रमणीयता प्रदान करती है। उत्तर में जिला मंडी और कांगड़ा जो वर्तमान में जिला हमीरपुर है, पश्चिम में जिला ऊना और पंजाब राज्य तथा दक्षिण में जिला शिमला एवं हंडूर जो वर्तमान में नालागढ़ है, पूर्व में सोलन की अर्की तहसील से घिरा है। इन समीपवर्ती क्षेत्रों का यहां की संस्कृति पर भी स्वाभाविक रूप से गहरा व आंशिक प्रभाव पड़ा है। इस कारण यहां के लोक गायन-नृत्य पर भी प्रभाव देखने को मिलता है।

कहलूरी लोकसाहित्य में लोक गायन-नृत्य की परंपरा भी सदियों से अनवरत चली आ रही है। लोक गायन में गीत, वाद्य और नृत्य इन तीनों तत्वों का समावेश रहता है। इन्हें एकल, युगल या मंडली के रूप में गाया व नृत्य किया जाता है। कहलूर लोक जीवन के परंपरागत व हर्षोल्लास के किसी भी सामाजिक, पारिवारिक, धार्मिक उत्सवों के अवसर पर इनका आयोजन आयोजकों द्वारा किया जाता रहा है। इनके बिना कोई भी समारोह अधूरा ही माना जाता है। विभिन्न प्रकार के संस्कारों में असंख्य गीत यहां गाए जाते हैं। इनमें विवाह संस्कार गीत, जन्म से मरण तक जुड़े संस्कार गीत, मरण संस्कार के गीतों में रोते हुए छ्यापा गीत छाती पीट कर गाया जाता था, अब यह परंपरा समाप्त प्रायः हो गई है। गंगी लोकगीत व लोका लोकगीत गाए जाते थे। लोका लोक गायन भी अब कम ही सुनने को मिलता है। नृत्य गीत गिद्दा, प्रातः गीत भ्यागड़ा, जल व सिद्ध, देवी-देवता यात्रा में भी भक्ति लोक गायन व नृत्य परंपरा प्रचलित है, यह भी अब समाप्ति की ओर व नया रूप लेती जा रही है। बलिदान गीत मोहणा, रुक्मिणी, चम्पा, लोकगाथाओं में वर्णित जननायकों के पराक्रम और शौर्य से भरे भावों के गीत, जिन्हें कहलूर में झेड़े भी कहा जाता है, यहां प्रचलित रहे हैं। इनमें प्रमुख रूप से राजा जगत सिंह, राजा सिरमौरिया, दया सिंह पूर्बिया, कच्छाली कूहल, कंजरू, राजा देवी चंद, मियां गजा सिंह इत्यादि हैं। लोक गायन-नृत्य में गंभरी देवी का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। स्व. श्रीमती गंभरी देवी का जन्म सन् 1922 में गांव परनाली (बंदला) में हुआ था। आठ वर्ष की उम्र में ही इन्होंने गायन शुरू कर दिया था। इनके पिता स्व. गुरदितु एक अच्छे लोक गायक थे। उन्हीं से ये लोक कला विरासत में मिली थी। कहलूर के अलावा समीपवर्ती जिलों और राज्यों में इनके लोक गायन व नृत्य की धूम थी।

इसके अतिरिक्त कहलूर में भजन गायकी की परंपरा भी बहुत पुरानी थी, जिसमें लोक गायन का ही पुट होता था। इसमें देवी-देवताओं की महिमा या पराक्रम शौर्य लोक कथाओं का गुणगान होता था। आज आधुनिकता के वाद्य यंत्रों व संचार प्रणाली ने इसके स्वरूप को बदल कर रख दिया है। अब यह परंपरा नाम मात्र की रह गई है। इसका स्थान जगराते ले रहे हैं। कहलूर में लोक गायन में मनशा पंडित, सुंदर कुम्हार, प्रकाश शर्मा, सुभाष गुप्ता, लेहरू राम सांख्यान व जीतू सांख्यान आदि लोक गायन परंपरा के वाहक बने हुए हैं। पंडित ज्वाला प्रशाद व अच्छर सिंह परमार, जिनकी कर्म भूमि बिलासपुर रही है, जबकि दोनों का संबंध जिला मंडी से है। कहलूरी लोक गायन में इनका योगदान भी सराहनीय रहा है। लोक नृत्य में भी प्रथम स्थान गंभरी देवी व उसके बाद फुलां देवी चंदेल का आता है।

लोक गायिका व नृत्यांगना गंभरी देवी का पूजा थाली नृत्य और फुलां चंदेल का घट नृत्य किसी को भी मंत्रमुग्ध कर देता था। कहलूर में परंपरागत रूप से जो नृत्य चले आए हैं, उनमें कहलूरी गिद्दा नृत्य, घट नृत्य, धाजा स्वांग लोक नृत्य, थाली नृत्य, धुप्पू नृत्य, पहिया नृत्य, चंदरौली नृत्य, रास नृत्य, भजन-कीर्तन नृत्य आदि प्रचलित हैं। समय की गति व भौतिकतावाद के विकास की आधुनिक दौड़ में इनकी मौलिकता के अस्तित्व पर भी संकट के बादल मंडरा रहे हैं। लोक गायन की विभिन्न विधाएं तो लिखित रूप में मिल जाएंगी, लेकिन इनकी गायन शैली, लय, धुन एवं भाव नहीं। वर्तमान हालात ये हैं कि अब संस्कार गीतों के लिए भी दूर-दूर से ढूंढ कर गायिकाएं, बुजुर्ग महिलाएं बुलानी पड़ती हैं। युवा पीढ़ी का इनकी ओर कोई लगाव नहीं है। इसलिए इनके संरक्षण और संवर्धन की नितांत आवश्यकता है।


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