पहाड़ी में ग़ज़ल पूरे शृंगार के साथ

By: Jun 27th, 2021 12:05 am

बोलियों में हिमाचल को अभिव्यक्त करने के प्रयास में, फिर ‘भाषा’ मुखर हो रही है, तो कहीं प्रकाशनों में चिन्हित जज्बा अपनी उपस्थिति का उद्गार कर रहा है। बागीचे में जैसे कोई कोयल कुलांच भरती या डाली-डाली शरारत से भरी और भीतर सारी खनक लिए, पहाड़ी में ़गज़ल पूरे शृंगार के साथ पेश हो रही है। द्विजेंद्र द्विज अपने भाषायी सरोकारों को समेटे, सांस्कृतिक घुंघरुओं की तान छेड़ देते हैं और इस तरह एक पुस्तक ‘ऐब पुराणा सीह्स्से दा’ जन्म लेती है। वह अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि में शब्दों की खान, विचारों की आन, लहजे में जान और ़गज़ल की नक्काशी में नया सोपान ढूंढ कर लाए हैं। ़गज़ल के बीच लेखक केवल शिल्प और शब्द की हाजिरी पैदा नहीं करता, बल्कि जब, ‘पत्थर ता दूरा दी गल्ल ऐ गिट्टू भी, भारी पोंदा क्या तड़काणा सीह्स्से दा’ जैसे बिंदु पर आकर रचना हमारे बीच आकर झांकती है तो एक साथ कई आईने मुखातिब होते हैं। वैसे इस किताब के बहाने द्विज जिस सीह्स्से का स्वयं हिस्सा हैं, वहां दर्पण से बातें करती उनके पिता स्वर्गीय मनोहर सागर ‘पालमपुरी’ की विरासत रूबरू होती है।

इनकीगज़ल दरअसल अपने भीतर एक पदचाप है, जो कभी ‘इक डुआर कूंजा दी’, तो कभी ‘मैं बणजारा गीतां दा’ जैसे पहाड़ी संग्रह पेश करते स्व. सागर पालमपुरी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करती है। वह कहते हैं, ‘फटाक्के जिंदगिया दे छजड़ुए दे ‘द्विज’ जी क्या दसिये, बस इक दाणा बणी माह्णू उमर भर उड़कदा रैह्न्दा।’ जिंदगी को अपने लहजे़ में पहाड़ी से बेहतर किस भाषा में जान पाएंगे, ‘खुर्की खर्कोई चला झाणी सचाई नै चला, जीण तां चलणे च है जां पी-पियाई नै चला।’ गज़ल संग्रह का हर पन्ना अपने आपमें एक परिदृश्य पैदा करता है या कभी विमर्श की पलकें खोलकर, अपने आसपास के दर्द को जुबान दे देता है, ‘खून-पसीन्ना इक्क करी भी पल्लैं पोन्दा नी किछ भी, बान्दर पाह्न जुआड़ां खिल्लेयां हारां ते भी डर लगदा।’ ़गज़लकार समय को पुकारता है, ‘कैंह् भला इक्की जह्गा मजदूर नीं बसदा कदी, बदली नै दुनिया नीं तिसदा हाल बदलोन्दा कदी।’ सवाल खुदा से भी हैं, लेकिन इनके भीतर का यथार्थ छलक जाता है, ‘मैं पुछणा था जे मिन्जो तू कुथी परमेसरा मिलदा, खरे जो कैंह् बुरा सब किछ बुरे जो कैंह् खरा मिलदा।’ एक सौ साठ पन्नों के सफर में द्विज की ़गज़लें जैसे भरी दोपहरी में किसी ट्याले पर उपलब्ध पियाऊ के मानिंद प्यास बुझा रही हैं।

अपने आकार, प्रकार और संवेदना के दायरों को बड़ा करते हुए, अपने कंधों पर एक साथ कई मंतव्यों को उठाकर निकली ़गज़ल, पहाड़ी के मानक और मानचित्र को ऊंचा कर देती है। यहां पहाड़ी जिंदा है और इस स्थिति में है कि हिमाचल का भाषायी नेतृत्व कर सके, जैसे बंजर होते किसी खेत में द्विज ने कड़ी मेहनत से ़गज़ल ही नहीं, मीठी बोली भी उगाई हो, ‘फिकर-फाक्के मत मते जान्नी जो लाई नै चला, दा लग्गै जिह्त्थू कुथी बस डंग-टपाई नै चला।’           -निर्मल असो


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