आयातित संस्कृति में रमते महासुई लोकगीत

By: Jun 13th, 2021 12:05 am

अतिथि संपादक:  डा. गौतम शर्मा व्यथित

विमर्श के बिंदु

हिमाचली लोक साहित्य एवं सांस्कृतिक विवेचन -34

-लोक साहित्य की हिमाचली परंपरा

-साहित्य से दूर होता हिमाचली लोक

-हिमाचली लोक साहित्य का स्वरूप

-हिमाचली बोलियों के बंद दरवाजे

-हिमाचली बोलियों में साहित्यिक उर्वरता

-हिमाचली बोलियों में सामाजिक-सांस्कृतिक नेतृत्व

-सांस्कृतिक विरासत के लेखकीय सरोकार

-हिमाचली इतिहास से लोक परंपराओं का ताल्लुक

-लोक कलाओं का ऐतिहासिक परिदृश्य

-हिमाचल के जनपदीय साहित्य का अवलोकन

-लोक गायन में प्रतिबिंबित साहित्य

-हिमाचली लोक साहित्य का विधा होना

-लोक साहित्य में शोध व नए प्रयोग

-लोक परंपराओं के सेतु पर हिमाचली भाषा का आंदोलन

लोकसाहित्य की दृष्टि से हिमाचल कितना संपन्न है, यह हमारी इस शृंखला का विषय है। यह शृांखला हिमाचली लोकसाहित्य के विविध आयामों से परिचित करवाती है। प्रस्तुत है इसकी 34वीं किस्त…

दिनेश शर्मा, मो.-9418474084

लोकगीत लोक संस्कृति का आईना होते हैं, जिनमें ग्रामीण व परंपरागत समाज के सरल जीवन, सुख-दुःख, आनंद-उल्लास, संघर्ष-वेदना का आम बोली में चित्रण होता है। ये आस्था और परंपरा के वाहक, आर्थिकी के प्रवक्ता तथा सामाजिक चेतना के प्रतिनिधि होते हैं। लोक समाज, जो सभ्यता के स्पर्श से वंचित, शास्त्र के ज्ञान से अपरिचित तथा तकनीक व प्रौद्योगिकी से दूर अपने भूगोल की सीमाओं में सिमटा रहता है, लोकगीतों में ही अपने अनुभवों का संचयन, संवहन व उन्नयन करता है। महासुई लोकगीत शिमला और सोलन जिलों के क्षेत्रों में गाए जाते हैं। सिरमौर व कुल्लू के क्षेत्रों में भी इन गीतों का प्रसार व प्रचलन है। परंपरा से ये गीत यहां की सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक स्थितियों व मान्यताओं के जीवंत दस्तावेज़ रहे हैं। इनमें श्रृंगार, वीर व करुण रस की प्रधानता है। पहाड़, नदी, बारिश, बर्फ, खेत-खलियान, नारी-सौंदर्य, राजाओं की गाथाएं, देवताओं की स्तुतियां, बदलते परिवेश की चिंताएं, आपदाएं व दुश्वारियां आदि यहां रोचक व रसपूर्ण तरीके से दर्ज़ होती रही हैं।

ढोल, नगाड़ा, करनाल, ढोलक, शहनाई, खंजरी आदि लोक-वाद्यों के साथ ये लोकगीत जब हाथ से हाथ पकड़कर खुले आंगन में गाए-नाचे जाते हैं, तो मालानृत्य कहलाते हैं, सर्द मौसम के बंद कमरे में मुजरा, सवाल-जवाब की प्रतियोगिता में झूरी, खुली घाटियों में गूंजते हुए भौरु कहे जाते हैं। बिशु के टाम्बे में ये शेर की दहाड़ की तरह गरजते हैं, विवाह की रस्मों में अश्रु बनकर बहते हैं। धी-धैण मायके की खुशी में गाती हैं, किसान फसल कटाई के आह्लाद में। देवता की जुबड़ी में सामूहिकता व एकता नाचती है। आज डीजे की ऊंची ध्वनि की कंपकंपाहट में इन गीतों का ताना-बाना हिल गया है। वीडियो एल्बम के प्रदर्शन में ज़मीन की छाप धूमिल पड़ी है।

संगीत, वाद्य-यंत्रों, बोलों, परिवेश व विषय वस्तु आदि सभी पक्षों में ये परिवर्तन मौलिकता की कमी, बाहरी प्रभाव, बाज़ार की अधीनता आदि रूपों में परिलक्षित हैं। यहां तात्कालिकता की झलक है, वैश्विक गांव में पहुंच की चाह है, स्टेज शो के नखरे हैं। इन गीतों का नायक-गायक पहाड़ों को गॉगल से देखता है। देसी वेशभूषा की बजाय बुश्शर्ट-जींस की अपनी छवि में मोहित रहता है। पारंपरिक वाद्ययंत्रों का स्थान इलेक्ट्रॉनिक, विदेशी संगीत यंत्र ले रहे हैं। स्थानिक स्वर, बोल और लय शोरगुल में दबते जा रहे हैं। ऑडी कार, आईफोन, सेल्फी, ठेका, शराब आदि इन गीतों के बोलों का हिस्सा हो गए हैं। नाटी अनफॉरगेटेबल, दि ड्रामा क्वीन, नाटी ब्लास्ट, मुजरा ऑन फायर, डीजे वाला बूम, पहाड़ी स्वैग, पेन किलर आदि एल्बमों के नाम गायकों-नायकों की नई पीढ़ी के पश्चिम, हिंदी सिनेमा व पंजाबी गायकी की गिरफ़्त में होने की तस्दीक करते हैं। शालू विस्की प्लाई जा रे, हो फेसबुक वालिए, हाय-हाय ये  कुडि़यां शहर दियां, रणकअ बजारअ दी, एक छोरी चंडीगढअ री, वाह क्या बात छोरी तेरे नखरे आदि अद्य प्रचलित गीतों और पॉप और रैप के प्रभाव के अध्ययन से निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि ज़मीन से जुड़े हुए कलाकारों की कमी है। संस्कृति, परंपरा, इतिहास, मूल्य आदि का बोध कम है।

नई पीढ़ी के इन कलाकारों में महासुई बोली की ठीक समझ का होना भी प्रश्नों के घेरे में है। ठेका, शराब, उन्मुक्त प्रेम का भोंडा प्रदर्शन, अश्लीलता व फूहड़ता पहाड़ की शालीन संस्कृति के विपरीत हैं। समाज के सभी वर्ग यथा महिलाएं, उम्रदराज व बुजुर्ग इन गीतों से खुद को जोड़ भी नहीं पाते। स्थापित, चर्चित व संगीत मर्मज्ञ कलाकार भी इस रचनाशीलता के अभाव में परंपरा से चले आ रहे लोकगीतों को पुनः गाकर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर रहे हैं। इस कड़ी में महेंद्र सिंह राठौर, हरि किशन वर्मा, बसंती देवी, श्याम सिंगटा, कुलदीप शर्मा, मोहन सिंह चौहान, विक्की चौहान, रोशनी शर्मा आदि गायकों ने कनकु, सरजू, चिडिए, चेंखिए, सुनुआ महते किंदरी लाई, रांझी बजीरा, धनी राजा जुब्बल रा, देवा शिरगुला आदि पारंपरिक लोकगीतों को जीवंत किया है। हल रा फेरा, मेरे खाणी जलेबी, गांव रा बसेरा, रोइय रातड़ी काटी नेहरी, सुपणे दी मिले तू आमिया मेरी आदि नए गीतों से लायक राम रफ़ीक, स्वर्ण ठाकुर, वेद प्रकाश बुंदेली, ओम भारद्वाज, सुरेंद्र दांगी आदि रचनाकारों ने लोक के मर्म को छुआ है।

लोकगीतों पर लोक जीवन की देखभाल व उन्नयन की जि़म्मेदारी रहती है। विलुप्त होती बोलियों के संरक्षण, परंपराओं के निर्वाह व सांस्कृतिक अस्मिता को बचाए रखने में लोकगीतों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। महासुई लोकगीतों को भी यहां का लोक इसी आशय व अपेक्षा से देखता है। इन गीतों ने यहां के देव समाज के संगठन, कृषि आर्थिकी की जीवन शैली, मेलों-त्योहारों की ठाठ और उत्सवधर्मिता से लेकर खानपान व पहनावे के अनूठेपन को पोषित-पल्लवित किया है। शक्कर-पटांडे, घी-सिड्डू, सुथण-लोइया, हल-शमाई, ठोडा-डांगरू, खूंद-ठौड़ यहां सहज प्रवाहित होते रहे हैं। समकालीन समाज के परिवर्तनों का लोकगीतों में आना हमारी ग्रहणशीलता व जीवंतता का प्रमाण है। लेकिन परिवर्तन व स्थायित्व में संतुलन स्थापित करना उत्तरदायित्व है। अंधाधुंध परिवर्तन में सांस्कृतिक विशिष्टता व पुरखों के अर्जित अनुभवों के खत्म होने के खतरे रहते हैं। नई पीढ़ी को इन मूल्यों व अर्थों के सापेक्ष रचनाशील होना होगा। आयातित संस्कृति में रमे हुए गीत लोक के प्रतिनिधि नहीं हो सकते। वर्तमान समय में रेजटा-सदरी, कांसे के बर्तन, जैविक खेती चलन में आए हैं। मंदिरों का जीर्णोद्धार हो रहा है। क्या जागरण की यह प्रवृत्ति बोलियों के बोलबाले में भी आएगी? क्या लोकगीत भी अपनी आन-बान-ठान की ठेठ ठसक को पुनर्जीवित करेंगे?


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