चंबयाल़ी लोकसाहित्य में व्यंग्य

By: Jun 27th, 2021 12:04 am

चंचल सरोलवी,  मो.-8580758925

चंबयाल़ी लोकसाहित्य जहां अपनी विभिन्न विधाओं से ओत-प्रोत एवं समृद्ध है, वहीं यह अपने आंचल में समेटे व्यंग्यात्मक उपमाओं के रसास्वादन से भी लबरेज है। व्यंग्य का एक तीखा बाण लोगों को अलौकिक ऊर्जा प्रदान कर जीवन में नवसंचार कर, दुख-चिंताओं के भंवर में उलझे व्यक्ति को कुछ क्षणों के लिए सब कुछ भुलाकर हंसने पर मजबूर कर देता है। चंबा के लोकसाहित्य की विभिन्न विधाओं यथा संस्कार लोक गीत, लोक गीत, लोक नाट्य, लोक पद्य चबोला व लोक कथा आदि में भी व्यंग्य समाहित है।

हालांकि लोकसाहित्य की कुछ विधाएं दुर्लभ और विलुप्त होती जा रही हैं, जिन्हें संरक्षण देने की आवश्यकता है जिनमें संस्कार लोक गीत भी एक हैं। संस्कार लोक गीतों में व्यंग्य ः चंबा जनपद में विवाह के अवसर पर जब दूल्हा दुल्हन को ब्याहने जाता है तो उसके चले जाने के बाद पीछे महिलाएं एक थाली में तिल और चावल डालकर उसे सिर पर रखकर नाचती हैं जिसे ‘तिलचोल़ी नृत्य’ कहते हैं। वे एक-दूसरे के पतियों की नकलें करती हैं, एक-दूसरे को चिढ़ाने का स्वांग करती हैं, दूल्हे की मां, बहन, चाची, ताई आदि पर व्यंग्य बाण से प्रहार करती हुई गीत गाती हैं। ऐसे माहौल में किसी पुरुष को आने की अनुमति नहीं होती क्योंकि ऐसे गीत नृत्य में बहुत भद्दा और काम भरा मजाक होता है।

उन सभी गीतों को यहां प्रस्तुत करना संभव नहीं, लेकिन विषय के कलेवर और स्थानीय पुट को देखते हुए एक गीत की मूल पंक्तियां प्रस्तुत हैं:  ‘नौए लाडे़ दी अम्मा बच्चे, साह्नू नच्ची के तमासा दस्से! हे अम्मा तिज्जो नचणा नी औंदा, कर सुथणी दी बेल, पैसा मैं दिन्दीयां!’ अर्थात गीत में दूल्हे की मां को नाचने के लिए आग्रह किया जाता है। वह नाचती है, परंतु महिलाएं व्यंग्य कसती हुई उसे कहती हैं कि तुम्हें नाचना नहीं आता है क्योंकि तुमने अपनी सूथण (सलवार) जो पहनी है। उसे खोलकर नीलाम करो, हम पैसे देकर खरीदेंगी। इसी प्रकार बहन, चाची आदि पर भी व्यंग्य कसे जाते हैं। जब दूल्हा अपनी दुल्हन के घर बारात लेकर पहुंचता है तो वहां की महिलाएं भी गाल़ी गीत गाती हैं और बारात में आए बारातियों को लेकर व्यंग्य कसती हैं : ‘जंदडू आए इत्ते दे, इन्हेरे मुंह कदे जियां रिक्खे दे! जंदडू आए अंदरे दे, इन्हेरे मुंह कदे जियां बंदरे दे! जंदडू आए उधरे दे, इन्हेरे मुंह कदे जियां गिदडे़ दे! जंदडु आए कुणे दे, इन्हेरे मुंह कदे जियां सूरें दे!’ अर्थात महिलाएं कहती हैं कि इन बारातियों के मुंह  रीछ, बंदर, गीदड़ और सूअर जैसे हैं, ये जानवर कहां से आए हैं?

लोक नाट्य हरणातर और भगत में व्यंग्य:  लोक नाट्य हरणातर में हरण अर्थात हिरण का मुखौटा पहनकर सात दिन तक घर-घर जाकर अनाज इकट्ठा करते हैं और निम्न गीत गाते हैं: ‘हरण आया हारणोटा मंगदा बकरोटा, हरण आया हरणोटा! तोल़ करे मझीयाणी, असां जाणा दूर कियाणी!’ अर्थात हिरण आया है और बकरा मांग रहा है। मंझीयाणी (रसोले में खाना बनाने वाली औरत) देर मत करो, हमने अभी दूर कियानी नामक गांव में जाना है। इस नाट्य में हिरण का जो रूप बनाया होता है, उसे देख कर लोग हंस-हंसकर लोट-पोट हो जाते हैं। लोक नाट्य भगत में जहां धार्मिक एवं पौराणिक कथाओं पर आधारित नाट्य खेले जाते हैं, वहीं हास्य, व्यंग्य, स्वांग यथा गद्दी-गद्दण, चुराही-चुरैहण आदि स्वांग रचे जाते हैं। ऐसे ही गोपियों का नृत्य भी होता है और उनके साथ एक पात्र ‘मनसुख’ भी होता है, जो तरह-तरह का मजाक करता है जिससे दर्शक खूब हंसते हैं। उदाहरण :  ‘प्राह मनसुख, हाय मेरेया दुखा, होरां जो दस-दस लाडि़यां दित्ती, असां जो इक्क का भी कित्तेया जुदा!’ अर्थात मेरा दुख देखिए! औरों को तो दस-दस पत्नियां दी हैं, लेकिन मुझे एक से भी जुदा रखा है। लोक गीतों में व्यंग्य : चंबा में ऐसे अनेक लोक गीत हैं जिनमें व्यंग्य समाहित है। विलुप्त होते कुछ प्राचीन लोक गीतों की पंक्तियां उद्धृत हैं : ‘मेरा अलबेला कने कैलगे चेला! वक्त नी जाणदा बेला भलेया अलबेलेया हो! मेरा अलबेला कने…खाणे जो नी दिन्दा मुआ, लाणे जो नी दिन्दा! संझां जो गलांदा लाड़ी मेरी भलेया अलबेलेया हो!’ अर्थात पत्नी अपने पति के लिए कहती है कि मेरा पति अलबेला (मनमौजी) है और केलंग देवता का चेला (गुर) है।

वह समय की परवाह नहीं करता और मस्ती में घूमता रहता है। वह खाने को कुछ नहीं देता, पहनने को कपड़ा नहीं देता और शाम को घर आकर उसे भला कहकर प्यार जताता है। प्रस्तुत गीत में कामचोर पति पर व्यंग्य कसा गया है। चंबा जिले के भटियात क्षेत्र का एक अन्य गीत महंगाई पर तीखा प्रहार करता है, जो आज के परिप्रेक्ष्य में भी खरा उतरता है: ‘हो बार-बार आखदा रिड़कु बे साह, मैहंगियां न चीजा यारों मैहंगे न भा! हो बार-बार आखदा रिड़कु…इसा मैहंगाईया यारों तेल कित्ता बंद बे, असां गरीबा लोको न्हेरे बडी नंद बे, चुक बे खिंदोलु, गुम्मल़े बछा, मैहंगियां न चीजा यारों मैहंगे न भा, बार-बार आखदा रिड़कु बे साह…।’ लोक पद्य चबोला: चबोला यानी चार बोल। इसके द्वारा पद्यात्मक रूप से जवाब लिया और दिया जाता है, बानगी हाजिर है ः कोई प्रेमी था। वह अपनी प्रेमिका को छोड़कर कहीं दूर कमाने के लिए चला जाता है और फिर काफी समय के बाद जब लौटकर घर पहुंचता है तो उसे पता चलता है कि उसकी प्रेमिका ने शादी कर ली है।

वह बहुत दुखी होता है और फिर उससे मिलने के लिए चला जाता है। जब उसके घर के नजदीक पहुंचता है तो एक बड़ा सा पत्थर अपने कंधे पर उठाकर, उसके घर के आंगन में जोर से फैंक देता है और फिर चबोला बोलता है:  ‘चल पत्थर खर खस’। अर्थात वह कहता है कि हे पत्थर दिल प्रेमिका मेरे सामने आओ। वह प्रेमिका समझ गई कि यह मेरा प्रेमी है। तो वह अंदर से ही चबोला में जवाब देती है:  ‘हट्ट पासे बाऊ बारा, गिछोरी बात कै पुछदा असल गुआरा।’ अर्थात वह प्रेमिका अंदर से ही जवाब देती है, जाओ अपने रास्ते, बीती हुई बात क्यों पूछ रहे हो मूर्ख? जवाब सुनकर प्रेमी उल्टे पांव वापस हुआ। इसी प्रकार चंबा में कई ऐसी लोक कथाएं हैं जिनमें व्यंग्य समाहित है। अतः चंबयाल़ी लोकसाहित्य की विभिन्न विधाओं में व्यंग्य भी समाहित है। जरूरत है इनके संरक्षण की, ताकि आने वाली पीढ़ी अपने लोकसाहित्य से महरूम न हो।


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