श्रद्धांजली : भोपाल की गंगा-जमुनी तहज़ीब के राजकुमार

By: Jun 13th, 2021 12:05 am

राजेंद्र राजन

मो.-8219158269

चुटीली और लच्छेदार भाषा। खिलेदड़ापन। अंदाज़े बयां कुछ ऐसा कि पाठक अगर फिल्मों या फिल्मी हस्तियों के बेहद दिलचस्प किस्सों-कहानियों को एक बार पढ़ना शुरू कर दे, खुद को अंत तक रोक न पाए। ये परिचय है लेखक व पत्रकार राजकुमार केसवानी का जिन्होंने 1984 में भोपाल में यूनियन कार्बाइड के उस हादसे के बारे में काफी पहले यह रहस्योद्घाटन कर दिया था कि ये हादसा होकर रहेगा और हजारों लोग बेमौत मारे जाएंगे। उनका आकलन सही साबित हुआ और भोपाल गैस त्रासदी इस शहर के माथे पर आज भी एक कलंक की तरह चस्पां है।

कुछ साल पहले तक कभी-कभी फोन पर मेरी गुफ्तगू केसवानी जी से हो जाती थी। वे फिल्मी हस्तियों के ऐसे नायाब किस्से ढूंढकर लाते थे जिनके बारे में आप न तो गूगल पर कोई जानकारी प्राप्त कर सकते हैं, न ही किसी किताब में। उनका उपन्यास ‘बाजे वाली गली’ जब पहल में छपना शुरू हुआ था तो पहली ही किस्त पढ़कर पाठक उनके दीवाने हो गए थे। भोपाल की एक छोटी सी बाजे वाली गली के राग विराग, सभ्यता, संस्कृति और इतिहास में उसकी जड़ों को जिस खूबसूरत भाषा में उन्होंने पिरोया था, वह पाठक को दीवानगी की हद तक बांध लेता था। लेकिन बदकिस्मती से वे इस उपन्यास को पूरा नहीं कर पाए। 31 जुलाई 2020 को जब एनडीटीवी के रवीश कुमार ने 9 बजे के प्राइमटाइम में राजकुमार केसवानी की किताब दास्तान-ए-मु़गल-ए-आज़म पर एपीसोड किया था तो चंद हफ्तों में ही उनकी ये 400 पन्नों और 1599/- रुपए मूल्य की किताब देश व दुनिया भर में बेस्ट सैलर हो गई। शायद राजकुमार केसवानी हिंदी के पहले ऐसे लेखक हैं जिन्हें किसी प्रकाशक ने लाखों रुपए की ईमानदारी से उनकी रॉयल्टी अदा की।

मैंने जब किताब खरीदी और इसके कुछ अध्याय पढ़े, तो पता चला कि केसवानी को इस किताब को लिखने के लिए 15 साल का वक्त लगा था। स्वयं के बारे में केसवानी लिखते हैं ‘पंद्रह बरस लंबे स़फर के बाद सांस फूलना लाज़िमी है, सो इस वक़्त मेरी सांसें फूल रही हैं। बस सबसे ज़्यादा ख़्ाशी इस बात की है कि मंज़िल तक आ पहुंचा हूं। अब यह बयान करना कि यहां तक पहुंचने के लिए किन-किन मरहलों या मुश्किलों से गुज़रना हुआ, उस मुहब्बत की तौहीन होगी जिस मुहब्बत से काम किया है। सो, बस इतना भर कहूंगा कि यहां आपके सामने जो कुछ पेश कर रहा हूं, वह एक आशि़क की अपने माशू़क के लिए एक ़िखराज-ए-अ़कीदत है।’

इस किताब की रचना की कहानी भी इस फिल्म की ही तरह ही है जिसे 1951 से लेकर 1960 तक निर्माण में दस साल लगे और इसके डायरेक्टर करीम आसि़फ ने फिल्म के प्रोड्यूसर शापूरजी को 6 करोड़ रुपए फाइनांस करने के लिए मजबूर कर डाला था। उस ज़माने में जब कोई शानदार फिल्म महज़ दो लाख में बन जाती थी, लेकिन हिंदी सिनेमा के 108 साल के इतिहास में दास्तान-ए-मु़गल-ए-आज़म जैसी अत्यन्त उत्कृष्ट फिल्म कोई नहीं बना पाया, न ही अगले 100 साल में शायद कोई यह सपना साकार कर पाए। ऐसे में अगर केसवानी जी को यह किताब लिखने में 15 साल लग गए तो कोई अचरज़ नहीं होना चाहिए। उनके लेखन में उर्दू व हिंदी की ऐसी मिठास घुली हुई थी कि लगता था आप कोई हिंदुस्तानी ज़ुबान की पुरानी हिंदी फिल्म देख रहे हों।

केसवानी की कलम से जो किताबें छपीं, उनमें बाम्बे टाकी, कसकोल, मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र : समग्र चिंतन प्रमुख हैं। 26 नवंबर 1950 को जन्मे केसवानी ने 21 मई 2021 को कोरोना की चपेट में आने के कारण इस दुनिया को अलविदा कह दिया। वे एक राष्ट्रीय समाचार पत्र में 14 सालों से ‘आपस की बात’ कॉलम लिख रहे थे। 10 जून 2007 से शुरू इस कॉलम को हर रविवार को करोड़ों पाठक पढ़ते थे। लड़कपन से ही एक और इश़्क में मुब्तला रहे – पत्रकारिता। घर भी उसी के साथ बसाया। लिहाज़ा असल पहचान एक पत्रकार की है। उर्दू में रचे-बसे भोपाल के शायराना माहौल ने कच्ची उम्र में ही उर्दू शायरी की तऱफ रुझान पैदा किया।

1968 में कॉलेज पहुंचते ही एक खेल पत्रिका ‘स्पोर्ट्स टाइम्स’ के साथ सह-संपादक के रूप में काम शुरू करने के साथ ही पत्रकारिता का स़फर शुरू हो गया। 2014 की हॉलीवुड ़िफल्म भोपाल-अ प्रेयर फॉर रेन भी राजकुमार केसवानी को भोपाल गैस त्रासदी को रोकने के लिए एक क्रूसेडर वाली भूमिका को केंद्र में रखकर बनाई गई ़िफल्म है। पर्दे पर उनकी भूमिका प्रसिद्ध हॉलीवुड अभिनेता केल पैन ने निभाई थी। पहला कविता संग्रह ‘बाकी बचें जो’ 2006 में प्रकाशित हुआ। 2007 में दूसरा संगह ‘सातवां दरवाज़ा’ तथा 2008 में 13वीं शताब्दी के महान सू़फी संत-कवि मौलान जलालुद्दीन रूमी की ़फारसी कविताओं का हिंदुस्तानी में अनुवाद ‘जहान-ए-रूमी’ के नाम से किया। केसवानी ने भोपाल केसवानी के दिल में बसता था और वे इस शहर के रूहे रवां थे। हिंदी, उर्दू की मिलीजुली ज़बान में तो वो लिखते ही थे, लेकिन भोपाल का लहजा, सभ्यता, संस्कृति को जिंदा रखने की उनकी मशक्कत देखते ही बनती थी।

केसवानी जुनूनी तो थे ही, कुछ जुनूनी कर गुजरने की ज़िद ने आठ पन्नों का अखबार ‘रपट’ भी निकलवा दिया। कज़र् में डूब गए। अखबार बंद हो गया। वे बार-बार भोपाल के लोगों और देश-दुनिया को गैस त्रासदी से आगाह करते रहे, लेकिन उनकी किसी ने नहीं सुनी। बतौर पत्रकार अपने दायित्व के निर्वहन के लिए उन्हें भोपाल गैस त्रासदी के बाद कितने ही पुरस्कारों से नवाजा गया, लेकिन वे पुरस्कार किस काम के जिनकी बुनियाद मानवता की ची़खो-पुकार पर टिकी हुई थी। भोपाल में केसवानी का घर किसी बेशकीमती संग्रहालय से कम नहीं है। हजारों किताबों का समृद्ध पुस्तकालय, ग्रामोफोन, मेघना गुलजार द्वारा भेंट किया हुआ एक छोटा सा पिआनो और फिल्मी गीतों के तैंतीस हजार रिकार्ड। निश्चित रूप से केसवानी हिंदी फिल्मों का विश्व कोष थे।


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