ख्वाजापीर को समर्पित बेड़ा विसर्जन परंपरा

By: Jul 24th, 2021 12:22 am

देवभूमि हिमाचल में देवी-देवताओं के पूजन के लिए अलग-अलग स्थानों पर तौर-तरीके भी अलग-अलग ही हैं। बात संक्रांति की हो या किसी त्योहार या रीति-रिवाज की अपने देवता के प्रति लोगों की आस्था सहज ही झलक पड़ती है। देवभूमि में कुछ ऐसे धार्मिक आयोजन भी हैं, जो पूर्ण रूप से परंपरा से जुड़े हैं और इनके लिए किसी मंदिर या देव स्थान की जरूरत नहीं होती। लोगों की श्रद्धा उस प्राचीन परंपरा से जुड़ी है, जैसा कि उनके पूर्वज करते आए हैं, वे भी वैसे ही अपने देवता की पूजा करते हैं और इसमें कोई बदलाव नहीं चाहते। एक ऐसी ही परंपरा है बेड़ा विसर्जन की, जिसे लोग श्रावण महीने में अपने देवता के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हुए हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। बेड़ा विसर्जन परंपरा ख्वाजापीर को समर्पित लोगों की वह आस्था है, जिसे जिला कांगड़ा में अपने-अपने तरीके से निभाया जाता है। जिला कांगड़ा के जवाली कस्बे में श्रावण संक्रांति के अवसर पर एक किश्ती को भव्य रूप में सजाकर इसमें ख्वाजापीर की प्रतिमा रखकर विधिवत पूजा-अर्चना और बाद में निकतवर्ती नदी या खड्ड में इसका विसर्जन, लोगों की प्राचीन आस्था को उजागर करता है।

लोगों की आस्था है कि जब बरसात में नदी-नालों में पानी उफान पर होता है, तो इस स्थिति में ख्वाजापीर देवता उनकी रक्षा करता है। इसके पीछे कुछ दंतकथाएं भी जुड़ी हैं, जिन्हें आधार मानकर लोग इस परंपरा को निभाते हैं और इसके लिए युवा पीढ़ी को भी अवगत करवाते हैं। एक दंतकथा के अनुसार कहा जाता है प्राचीन समय में जब देश में लोग वस्तुओं का आदान-प्रदान करके ही जीवनयापन किया करते थे। उस समय नदी किनारे बसे मछुआरे केवल मछली पकड़कर ही अपनी आजीविका चलाते थे। एक दिन बरसात के दिनों में, जब नदी उफान पर थी, तो मछुआरों का एक समूह नदी में मछली पकड़ने गया। एक मछुआरा गोता लगाने पर काफी देर नदी से बाहर नहीं निकला और बाहर खड़े अन्य मछुआरे उसका इंतजार करते रहे। काफी देर बाद जब मछुआरा नदी से बाहर नहीं निकला, तो अन्य मछुआरों ने सोचा कि उनका साथी नदी के अंदर ही डूब कर मर गया है। सभी मछुआरे घर लौट आए और इसकी सूचना उसके परिवार को दी। मछुआरों की बात मानकर उसके परिजनों ने अपने मछुआरे को मृत समझ लिया। करीब तीन-चार दिन के बाद लोगों ने देखा कि पानी में मछुआरा घर की ओर आ रहा है। पहले तो लोग उसे देखकर डर गए, लेकिन बाद में उसने आपबीती सुनाई, तो लोगों को यकीन हुआ कि शुक्र है वह जिंदा लौट आया है। मछुआरे ने बताया कि नदी में गोता लगाने के बाद वह नदी के अंदर एक सुरंग में चला गया था और वहां से लौटने का रास्ता भूल गया था। सुरंग के अंदर एक कमरानुमा जगह थी, जो बिना पानी के थी और वह उस सुरंग में बैठा रहा। इस दौरान उसने अपने देवी-देवताओं को याद किया और उसके स्वप्न में ख्वाजापीर आए और उन्होंने उसे सुरंग से बाहर निकलने का रास्ता बताया।

उसने ख्वाजापीर को वचन दिया कि अगर वह सुरक्षित घर पहुंच गया, तो वह हर श्रावण की संक्रांति पर झंडा व दलिया-रोट चढ़ाकर उनकी पूजा किया करेगा। इसी आस्था के साथ मछुआरे के समुदाय के लोग इस परंपरा का निवर्हन करते आ रहे हैं। झंडा चढ़ाने के साथ बेड़ा विसर्जन की परंपरा कुछ समय बाद शुरू हुई और अब नियमित तरीके से इस परंपरा को निभाया जा रहा है।  जवाली कस्बे में ख्वाजापीर पूजन की तैयारी करीब एक सप्ताह पहले शुरू हो जाती है। सबसे पहले तैयारी होती है बेड़ा बनाने की, जिसे लकड़ी से तैयार किया जाता है। इस किश्ती को सजाने के साथ इसमें ख्वाजापीर की प्रतिमा स्थापित की जाती है और धूप-दीप व दलिया चढ़ाकर देवता की पूजा की जाती है। सर्वप्रथम झंडा पूजन किया जाता है, इसके बाद ख्वाजापीर की प्रतिमा को भव्य किश्ती में रखकर जयघोष के साथ शहर का चक्कर काटने के बाद देहर खड्ड की नदी के पास पहुंचाया जाता है। इसके बाद विधिवत तरीके से समुदाय के लोग पहले जयकारा लगाते हुए दो झंडे नदी के बीच गाड़ते हैं और झंडों के साथ पत्थरों का एक टियाला बनाकर ख्वाजापीर की किश्ती को यहां रखा जाता है और लोग घर से लाए हुए प्रसाद को यहां चढ़ाते हैं। लोग दरिया के बीच ख्वाजापीर की प्रतिमा की परिक्रमा करते हैं और बाद में इस किश्ती को नदी में विसर्जित कर दिया जाता है। गांव के बुजुर्गों का कहना है कि यह उत्सव उनके पूर्वजों की देन है और वे भी सहज उसी तरीके से इस परंपरा को निभा रहे हैं और इसकी सीख युवा पीढ़ी को भी दे रहे हैं।

               – कपिल मेहरा, जवाली


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