लोकसाहित्य का विद्यालयी पाठ्यक्रम में प्रासंगिकता

By: Jul 18th, 2021 12:05 am

शिवा पंचकरण, मो.-8894973122

लोकसाहित्य किसी भी समाज के खानपान, वेशभूषा, परंपराओं, बोलियों, भाषाओं, लिपियों, तीज-त्योहारों व मान्यताओं का घोतक होता है। लोक संस्कृति को निरंतर संरक्षित करते हुए, श्रुति ज्ञान परंपरा का निर्वाह करते हुए लोकसाहित्य लोक संस्कृति की एक शाखा के रूप में लगातार कार्य करता रहा है। सरल शब्दों में मनुष्य की उत्पत्ति के साथ ही लोकसाहित्य भी निरंतर काल के प्रवाह के साथ चलता रहा। कई सभ्यताओं के बनने-बिगड़ने के बाद भी लोकसाहित्य किसी न किसी रूप में उस समाज में जीवित रहा। उदाहरण के तौर पर सिंधु घाटी सभ्यता के एक खुदाई क्षेत्र कालीबंगन (राजस्थान) में चूडि़यां मिली हैं, यानी कि आज भले ही सिंधु घाटी सभ्यता के बस अवशेष बचे हों लेकिन उस संस्कृति के रंग आज भी समाज में देखने को मिल जाते हैं। हालांकि लोक संस्कृति का रूप क्षेत्र के अनुसार बदलता रहता है, जैसे कोई लोक गीत अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग तरीके से गाया जाता है, लेकिन किसी न किसी रूप में वह सदैव जीवित रहता है।

सदियों से लोकसाहित्य मौखिक परंपरा का निर्वाह करता हुआ एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में चलता रहा। प्राचीन समाज में घरों से शुरू होने वाली यह शिक्षा गुरुकुलों में भी इसी प्रकार से चलती रहती थी जिस कारण लोक अगली पीढ़ी के द्वारा संरक्षित रहता था। लेकिन आज यह स्थिति बदल चुकी है। पाश्चात्य संस्कृति के बढ़ते प्रभाव और संयुक्त परिवारों का माता-पिता तक सीमित हो जाना और उस पर नंबरों की दौड़ ने लोक को आम जनजीवन से धीरे-धीरे दूर कर दिया है। किसी भी समाज के नित्य क्रियाकलापों में उस समाज के साहित्य और संस्कृति की झलक मिलती है। किसी समाज को समझने के लिए हमें उस समाज के लोकसाहित्य को समझना होगा। उस समाज का, क्षेत्र का इतिहास, भूगोल, सामाजिक संरचना, हर जानकारी उस समाज की कहावतों, गाथाओं, गीतों, परंपराओं में स्पष्ट मिल जाती है।

अपने समाज की सामाजिक संरचना को, इतिहास को, परंपराओं को बचाने के लिए लोकसाहित्य का विद्यालयी पाठ्यक्रम में जुड़ना आवश्यक है, ताकि यह बहुमूल्य धरोहर, पारंपरिक ज्ञान बच्चों में जाए। अगर बच्चों के लिए ‘जिंगल बेल’ गाना महत्त्वपूर्ण है तो ‘हिरण मंगे तिलचोली दे’ के पीछे का भाव समझना भी अति आवश्यक है। ऐसा भी नहीं है कि शिक्षा के क्षेत्र में लोकसाहित्य जुड़ा ही नहीं है।

पूर्वस्नातक के पाठ्यक्रमों में लोकसाहित्य को जोड़ा गया है। उसके साथ हाल ही में केंद्र द्वारा नई शिक्षा नीति लाई गई है जिसे हिमाचल में सबसे पहले लागू किया गया। नई नीति के तहत स्थानिक लोकसाहित्य, स्थानिक भाषा के माध्यम से ज्ञान देने की योजना है जिससे अपने आप लोकसाहित्य का महत्त्व बढ़ जाता है। किंतु धरातल पर यह नीति कितनी कारगर सिद्ध हो पाएगी, यह हमें वक्त पर छोड़ना होगा। लेकिन नई नीति जैसे क्रियाकलापों से विद्यार्थियों में बचपन से ही लोकसाहित्य को समझने और जानने की रुचि बनेगी और लोकसाहित्य को सहेजने में भी सरलता होगी। जिस तरह लोकसाहित्य की पीढ़ी दर पीढ़ी चलने की परंपरा रही है, विद्यालयों में लोकसाहित्य को पाठ्यक्रम में जोड़ने से यह परंपरा पुनः सजीव हो सकती है। उदाहरण के तौर पर भारत के वीर सपूत, अंग्रेजों से सबसे पहले लोहा लेने का साहस करने वाले वीर शिरोमणि वजीर राम सिंह पठानिया भले ही इतिहास की पुस्तकों में एक पेज में सिमट कर रह गए हों, लेकिन आज भी समाज में उनकी कहानियों, वीर गाथाओं ने उनसे जुड़ी यादों को समाज में इतने समय बाद भी जीवित रखा है। सिरमौर में प्रचलित ‘हारें’, जो आज भी जनसामान्य द्वारा गौरव से गाई जाती हैं, ऐसे कई वीरों की कहानियों को सहेज कर रखे हुए हैं। इसके अलावा आज भी पूरे पहाड़ी क्षेत्र में प्रेम से हट कर सामाजिक विषयों से जुड़ी कई प्रेरक कहानियां, पशु-पक्षियों से जुड़ी कहानियां, जो हितोपदेश और पंचतंत्र के समान ही बेहतरीन हैं, इन सब को विद्यालयीन पाठ्यक्रम में जोड़ने से न केवल बच्चों में लोक के प्रति रुचि बढ़ेगी, बल्कि साथ ही हमारी कहानी सुनने-सुनाने की लोक परंपराओं का भी संरक्षण होगा। लोक कथाएं, लोक गाथाएं, लोक नाट्य, लोक गीत अनेकों मोती हैं जिन्हें घर-घर तक केवल विद्यालयों में लोकसाहित्य को पाठ्यक्रम में जोड़ कर पहुंचाया जा सकता है।

घर से लोक के बारे में मिलने वाली जानकारी फिर भी सीमित रहती है, किंतु विद्यालयी पाठ्यक्रम में जुड़ने के बाद न केवल अपने क्षेत्र का बल्कि हिमाचल के सभी जनपदों का लोकसाहित्य विद्यार्थी पढ़ पाएगा। समतलीय लोकसाहित्य को जानने वाला जनजातीय लोकसाहित्य को जान पाएगा और जनजातीय, समतलीय को। कुल मिला कर हम अपने समाज को समझ पाएंगे, एक-दूसरे को समझ पाएंगे। अंग्रेजी को लेकर शिक्षा विभाग जिस प्रकार जागरूक रहता है, उसकी आधी जागरूकता भी अगर लोकसाहित्य को मिल पाती है तो लोकसाहित्य को सहेजने की चिंता करने वाले लोग राहत की सांस ले पाएंगे। यह बड़ी विडंबना है कि आज बच्चे विश्व के बारे में जानकारी रखते हैं, लेकिन अपने समाज की जानकारी उनमें शून्य बची है।

अपने ही समाज के प्रति अनभिज्ञ बच्चे कैसे उस समाज से प्रेम कर पाएंगे, यह भविष्य के लिए अपने आप में गंभीर प्रश्न है। यह समझने की आवश्यकता है कि अगर हम बच्चों में बचपन से ही अपने परिवेश के प्रति चिंता, अध्ययनात्मक प्रवृत्ति जगा पाएं तो उससे लोकसाहित्य संरक्षित हो सकता है अन्यथा लेख, चर्चाएं आज भी उन्हीं लोगों के बीच तक ही सीमित हैं जो इन्हें पढ़ते हैं, सुनते हैं या जानना चाहते हैं। समाज का आईना लोक है। अगर वही समाज से लुप्त हो जाएगा तो वह दिन दूर नहीं जब इतिहास की किसी किताब में दो पन्ने लोकसाहित्य की महिमा गान करते हुए संरक्षित रख लिए जाएंगे और कोई एक दिन लोकसाहित्य की याद में मनाना शुरू कर दिया जाएगा।


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