साहित्य का विपुल भंडार छोड़ रुखसत हुए श्रीकांत

By: Jul 25th, 2021 12:05 am

साहित्य की अमृत बेला में किसी लेखक का परिचय उसके जाने के बाद भी गमगीन चिन्हों में जान फूंकने की ऐसी मशक्कत है, जो यादों को कभी खंडहर नहीं होने देती। श्रीनिवास श्रीकांत की मृत्यु के दुखद समाचार ने कमोबेश हर साहित्यिक मन में प्रतिध्वनि पैदा की और एक साथ कितनी ही कविताएं, कहानियां, समीक्षाएं और आलोचनाएं किसी झरने के मानिंद यादों के दरिया में परिवर्तित हो गईं। इसी दरिया में दूर तक बहते मन के भाव और किनारों पर भीगता हिमाचल का साहित्य संसार। इन यादों की गंगा को समेटना कठिन था, फिर भी आदर भाव से श्रीनिवास श्रीकांत को नमन करता ‘प्रतिबिंब’ का यह अंक प्रस्तुत है- आदरांजलि…

आंसुओं में श्रीनिवास श्रीकांत

एस.आर.हरनोटए मो.-9816566611

श्रीनिवास जी से पहली चलती सी मुलाकात लगभग 15-16 वर्ष पूर्व मॉल रोड़ पर हुई थी। मैंने प्रणाम किया तो बहुत विनम्रता से उन्होंने सुना और इतना कह कर चल दिए, ‘तुम ठीक-ठाक लिख रहे हो। खूब मेहनत करो।’ 2005 के अंतिम वर्ष में उन्होंने शिमला से शुरू हुई हिंदी की पत्रिका ‘जनपक्ष मेल’ का संपादकीय विभाग संभाला था जिसका कार्यालय मेरे आफिस रिट्ज एनैक्सी की बगल में ही था। इसी दौरान उनसे नियमित मिलने का सिलसिला शुरू हुआ था। ऑफिस में रोज उनसे उनकी कविताएं सुनने को मिलती और उनकी जिद पर मुझे भी उन्हें कहानी सुनानी पड़ती। उनके सामने मैंने सबसे  पहले ‘मां पढ़ती है’ कहानी का पाठ किया था जो उन्हीं दिनों हंस पत्रिका में छपी थी। उसके बाद मेरी हर कहानी उन्होंने सुनी और अपने बहुमूल्य सुझाव ही नहीं दिए, मेरी तकरीबन सभी पुस्तकों पर लंबे आलेख भी लिखे। एक दिन उन्होंने बताया कि एक खास मित्र को अपनी कविताओं की पांडुलिपि छपने को दी थी, परंतु वह न कभी उनके पास लौटी और न कभी छपी ही। जबकि उनके मित्र की अपनी पुस्तक छपकर पहुंच गई। उसका दर्द उनके चेहरे पर साफ झलक रहा था। मैंने पहली बार उनकी भरी हुई आंखें देखी थीं जिसकी चुभन तभी कम हुई जब उनका दूसरा कविता संग्रह ‘बात करती है हवा’ वर्ष 2007 में छप कर आया। यह संग्रह लगभग बाईस वर्ष के अंतराल के बाद आया था। उनकी पहली कविता पुस्तक ‘नियति इतिहास और जरायु’ वर्ष 1986 में प्रकाशित हुई थी जो खूब चर्चित भी हुई।

उन्हें हम साहित्य का महानगर कहा करते। इस संग्रह के बाद जैसे उनकी कलम ने गति पकड़ ली थी जिसकी गति दो वर्ष पहले उनकी अस्वस्थता के वक्त थम गई परंतु उनका चिंतन और घरेलू गोष्ठियों में गंभीर साहित्यिक चर्चा और सस्वर गीत और ग़ज़लें सुनाना जारी रहा। ‘बात करती है हवा’ के बाद उन्होंने ‘घर एक यात्रा है’, ‘चट्टान पर लड़की’, ‘हर तरफ समंदर है’, ‘आदमी की दुनिया का दिन’, ‘महानगर एक मोंटाज’ कविता संग्रहों के साथ ‘कथा में पहाड़़’, ‘गल्प के रंग’, ‘कथा त्रिकोण’ और ‘मुक्तिबोध ः एक पुनर्मूल्यांकन’ जैसी महत्त्वपूर्ण आलोचना पुस्तकें हिंदी साहित्य को दीं। शिमला ही नहीं हिमाचल का साहित्यिक मंच उनके बिना सूना सूना होगा…वे बहुत याद आएंगे…बहुत और हमेशा आंसुओं में रहेंगे। श्रीनिवास जी अपने पीछे अपनी पत्नी निर्मल शर्मा, दो बेटे अनय और विनय, बहुएं सुनीता और नमिता, तीन पोतियां रूपल, वन्या, विपु और पोता कार्तिकय, बेटी अनामिका शर्मा और उनके परिवार छोड़ गए हैं। उनके एक भाई और दो बहनें हैं। परंतु साहित्य में उनका विशाल परिवार है।

श्रीनिवास की घर वापसी

रेखा वशिष्ठण्ए मो.-9418047373

मैंने आज से लगभग तीस साल पहले एक कविता लिखी थी, श्रीनिवास की घर वापसी। किस एक शाम, किसी एक कविता गोष्ठी से उन्हें लौटते हुए देखा था- एक झीनी सी खामोशी और महीन से अवसाद में घिरे हुए। जैसे कोई यहां होकर भी कहीं और जगह हो, मेरे मन में श्रीनिवास श्रीकांत की यही तस्वीर हमेशा रही और रहेगी। उस कविता की पंक्ति है- ‘हे दाता, तू जिसे पंछी का मन देता है, उसे आसमान में ही थोड़ी सी जगह क्यों नहीं देता।’ आज लग रहा है उस पंछी रूह को वह जगह मिल गई है। वह डाली से उड़कर आकाश में उड़कर विलीन हो गई है। हम सभी संगी साथी उस खामोशी और उदासी में लौट आए हैं जो उनके जाने के बाद यहीं कहीं छूट गई है। शायद चालीस साल पहले श्रीनिवास को पहली बार शिमला आने पर एक साहित्यिक गोष्ठी में देखा था। बहुत से लोगों ने कविता पढ़ी, पर मुझे लगा असल कवि वही हैं। दिखने में, चलने-फिरने में, बोलचाल में एक तरह से कविता में जीते हुए। फिर कई बार ऐसे ही मौकों पर, कुछ साहित्यिक यात्राओं में या घरेलू गोष्ठियों में उन्हें निकट से देखा और जाना। मैंने उन्हें सदा ही मितभाषी पाया। उन्होंने लिखने से ज्यादा पढ़ा था। उनका अध्ययन बहुत व्यापक और विविध था।

हिंदी साहित्य के अतिरिक्त इंग्लिश लिटरेचर, और साहित्य के अतिरिक्त संगीत या कहना चाहिए कि ज्ञान की बहुत सी विधाओं में उनकी गहरी पैठ थी। यही कारण रहा कि कविता के अतिरिक्त साहित्य आलोचना में उन्होंने अपना शिखर स्थान बनाया। मैं समझती हूं कि एक आलोचक के रूप में ही वे अधिकाधिक लेखकों से जुड़े और अपने जीवन के मध्यान्ह के बाद एक तरह से प्रदेश के साहित्यकारों के लिए एक मार्गदर्शक, मित्र और दार्शनिक बन गए। मेरा सौभाग्य है कि मेरी कविता पुस्तकों पर भी उन्होंने आलेख लिखे। मुझे हमेशा यह अनुभव हुआ कि उन्होंने जब भी कोई टिप्पणी की, वह बहुत कीमती थी, क्योंकि उनकी समझ बहुत गहरी और पैनी थी। उनके लिखे गीत उन्हीं की आवाज में जब-तब कानों में गूंजते रहेंगे। उनकी कविता और कलम भले ही मौन हो गई है, परंतु उसकी सुवास हमारे मन में हमेशा बनी रहेगी।

सृजन यात्रा का अवसान

डा. हेमराज कौशिकए मो.-9418010646

श्रीनिवास श्रीकांत समकालीन कविता, आलोचना, पत्रकारिता और साहित्य विमर्श के क्षेत्र में एक सुपरिचित नाम रहा है। वे आधुनिक साहित्य के गंभीर अध्येता थे। उन्होंने अपनी सुदीर्घ साहित्य यात्रा में हिंदी साहित्य को अनूठी काव्य कृतियां प्रदान की। ‘नियति, इतिहास और जरायु’, ‘घर एक यात्रा है’, ‘हर तरफ समंदर है’, ‘चट्टान पर लड़की’ और ‘आदमी की दुनिया का दिन’ काव्य कृतियां प्रदान की हैं। ‘एक भूखंड’ शीर्षक  से उन्होंने हिमाचल प्रदेश के प्रतिनिधि कवियों के संकलन का संपादन भी किया है। श्रीनिवास श्रीकांत एक सशक्त कवि होने के साथ-साथ एक तटस्थ और गंभीर आलोचक भी थे। इस दृष्टि से मुक्तिबोध शीर्षक से उनकी पुस्तक प्रकाशित हुई है जिसमें मुक्तिबोध की 21 कविताओं का गहनता से विवेचन है। इसके अतिरिक्त ‘कथा त्रिकोण’ और ‘गल्प के रंग’ दो कथा आलोचना की कृतियां हैं। ‘कथा में पहाड़’ श्रीनिवास श्रीकांत द्वारा संपादित पर्वतीय अंचल के जीवन पर केंद्रित कहानियों का संचयन है।

एक कवि के रूप में श्रीनिवास श्रीकांत के काव्य सृजन का समारंभ सन् 1954 में रचित ‘जड़ चेतन’ शीर्षक कविता से हुआ था। उस समय इलाहाबाद में अल्पकालीन प्रवास के दौरान उन्हें  निराला से भी भेंट करने का अवसर मिला। उनके काव्य प्रेरणा के स्रोत सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, अज्ञेय और मुक्तिबोध रहे। समकालीन हिंदी के विविध काव्य आंदोलनों से भी वे संपृक्त रहे। उनकी प्रतिभा विविध मुखी रही है। उन्होंने काव्य सृजन, आलोचना और पत्रकारिता के अतिरिक्त आकाशवाणी के लिए निराला की ‘राम की शक्ति पूजा’ पर आधारित नाटिका ‘राम की  समरगाथा’ समेत आधा दर्जन से अधिक संगीत रूपकों का लेखन किया। कुछ नाटकों में उन्होंने स्वयं भी अभिनय किया था। श्रीनिवास श्रीकांत की कविताओं का फलक नितांत विस्तृत है। युगीन यथार्थ, जीवन बोध और सामाजिक जीवन के संवेदनशील पक्षों का उन्होंने अपनी कविताओं में विविध इंद्रिय ग्राह्य बिम्बों,  प्रतीकों और मिथकों से मूर्तिमान किया है। इनकी कविताओं का स्थापत्य इतना अनूठा है कि उसमें सजग पाठक तन्मय में हो जाता है। उनमें न केवल अर्थ की प्रतीति होती है, अपितु दृश्य और बिंब आंखों के सामने आ जाते हैं और मन अनुभूतियों के सागर में डूब जाता है। उन कविताओं की संवेदना भूमि कभी सुदूर बगदाद पहुंचती है तो कभी उड़ीसा के तटवर्ती क्षेत्र के मानव संघर्ष को रूपायित करती है। उनकी कविता के फलक में मानवीय रिश्तों से लेकर प्रकृति के चराचर जीव, नदी, निर्झर, पहाड़,  वृक्ष, पक्षी, परमसत्ता,  रहस्य, नगर, गांव आदि सभी कुछ विद्यमान है। श्रीनिवास श्रीकांत हिंदी कविता में एक समृद्ध भाववृत बनाने वाले कवि थे तथा अपनी विशिष्ट भाव भंगिमा और शिल्प के लिए विख्यात रहे।

कवि, आलोचक व संपादन का विराट संसार

राजेंद्र राजन, मो.-8219158269

1984 में शिमला में पहली बार मेरी भेंट श्रीनिवास श्रीकांत से गिरिराज कार्यालय में हुई थी। उनका सभ्य, सौम्य व सुसंस्कृत व्यक्तित्व हर नए लेखक को मोह लेता था। जब मेरी पहली कहानी गिरिराज में छपी तो श्रीकांत का एक बधाई पोस्टकार्ड मुझे प्राप्त हुआ था। स्वीकृति के साथ टिप्पणी भी। उनकी लिखावट इस कदर साफ-सुथरी थी कि यह भ्रम पैदा होता था कि चिट्ठियां छपी हुई हैं या हाथ से लिखी हुई? हिमप्रस्थ और गिरिराज में कई साल संपादक मंडल में रहते हुए श्रीकांत ने बेशुमार नए लेखकों की खोज की व उन्हें छापा।

सातवें व आठवें दशक में रामदयाल नीरज, सत्येन शर्मा, सुंदर लोहिया व देश के दीगर लेखकों को हिमप्रस्थ से जोड़ा। राहुल सांकृत्यायन की लंबी लेखमाला हिमप्रस्थ में छपी थी। श्रीकांत, जिया सिद्दीकी व केशव आदि लेखक जब गिरिराज और हिमप्रस्थ से जुड़े तो वे खासकर ‘हिमप्रस्थ’ को शिखर पर ले गए। एक सक्षम, सधे हुए व कुशल संपादक होने के साथ वे संवेदनशील कवि व आलोचक भी थे। अनुवादक भी। रेडियो, दूरदर्शन के लिए अनेक नाटक लिखे, तो जर्मन व ग्रीक नाटकों का अनुवाद भी लाए। ‘चट्टान पर लड़की’ श्रीकांत का पांचवां काव्य संग्रह है जिसमें एक कविता है ‘घर के घटक’ ः ‘दीवारों के नहीं होते पांव/फिर भी वे चलती हैं/परिवार के लोगों की/उम्र के साथ साथ/गोपनीय रखतीं वे घरबार की कड़वी सच्चाइयां/उनमें है महफूज/पीढि़यों का दुख-दर्द।’ श्रीकांत की तमाम कविताएं इस बात की साक्षी हैं कि वे अपने भीतर व आसपास की दुनिया से सूक्ष्मता व आत्मीयता से जुड़े हुए थे। अपनी कविताओं में श्रीकांत ने ‘टाइम और स्पेस’ के सूक्ष्म से सूक्ष्मतर व विराट से विराटतर बिंदुओं को छुआ है। संपादन, कविता के अलावा आलोचक के रूप में भी श्रीकांत ने हिंदी साहित्य की आलोचना को समृद्ध किया।

चुपचाप महफिल से उठ गया वह अवधूत कवि

आत्मा रंजन, मो.-9418450763

एक गहरी सी उदासी तारी है। उदास है चक्कर स्थित पूजा सोसाइटी के उस फ्लैट का वो भीतर वाला किताबों घिरा कमरा। टंगी तस्वीरों या किताबों से झांकते काफ्का, कामू, निराला, मुक्तिबोध…! अपनी खामोशी में उससे खूब बोलने बतियाने वाली वे किताबें…। वो मेज़ वो टेबल लैंप..! उसकी आहट के मुंतज़र सब उदास हैं। शहर की कुछ गंभीर काव्यमयी संगीतमयी बैठकें उदास हैं कि उनके ठीक केंद्र से बहुत कम लेकिन बहुत लय में बोलने गुनगुनाने वाला वो अज़ीज़ एक शख्स चुपचाप उठ गया। रुक ठहर कर धीमे से बोलती वो आवाज़, आर्द्र कंठ से फूटती बहुत सुरीली वो लरजती कांपती हुई सी तान अब कभी नहीं सुनाई देगी। चौदह जुलाई पूर्व दोपहर यह मनहूस खबर मिली कि श्रीनिवास श्रीकांत जी संसार को विदा कह गए। दशक भर पहले हृदयाघात से लेकर कुछ वर्षों से आंखों की बहुत क्षीण होती दृष्टि और पिछले करीब एक डेढ़ बरस से लगातार क्षीणतर होते स्वास्थ्य से हम सब परिचित तो थे ही।

खुलकर बोल पाने की भी असमर्थता से भी। लेकिन इस मनहूस खबर ने मायूसी की ओर धकेलती उदासी में डुबो दिया सबको। फोन से आती सबकी आवाज़ नम थी। हरनोट जी, पंत जी, केशव जी…रेखा जी का तो फोन आया और यह नमीं उनकी सिसकियों में ही पिघलती बहती सुनाई दी। मेरे अन्तर्तर में गूंजने लगीं इसी कातरता में भीगी उनकी कविता ‘श्रीनिवास की घर वापसी’ की पंक्तियां : ‘हे दाता! तू जिसे पंछी का/मन देता है/उसे आकाश में ही/थोड़ी सी जगह क्यों नहीं देता…।’ और अब शायद ऐसी ही किसी जगह के लिए वह निकल पड़ा…। औपचारिकता से कहीं आगे का यह गहरा जुड़ाव था हम सबका श्रीनिवास जी के साथ। मेरा भी यह जुड़ाव बनते बनते गहरा होता चला गया। पहले अपने संकोची स्वभाव और उनकी विद्वता की आभा से झिझकता था। लेकिन वे जब भी कहीं कोई कविता पढ़ते तो ज़रूर फोन करते। प्रोत्साहन भरे खुले मन से। फिर संवाद बढ़ता गया और निकटता भी।

मित्र सुरेश सेन निशांत शिमला आते तो तीन ठिकानों में से कहीं ज़रूर जाना पसंद करते। केशव जी, श्रीनिवास जी या हरनोट जी के घर। श्रीनिवास जी बहुत खुश होते। जब भी फोन करते, यही कहते- घर कब आओगे। और फिर मिलने पर एक बात यह भी कहते मुझे कि दस पंद्रह बरस हो गए लिखते हुए। अब तो किताब आनी चाहिए। और यह भी कहते, तुम्हारी किताब की भूमिका मैं लिखूंगा। जब किताब तैयार हुई तो मित्रों ने ब्लर्ब के लिए कई विकल्प सुझाए, लेकिन मेरे लिए उस बहुत प्यार करने वाले बुजुर्ग कवि से बेहतर विकल्प क्या होता। वही चुना। और फिर मेरी कविताओं पर अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा की पत्रिका ‘पुस्तक वार्ता’ में उन्होंने आलेख भी लिखा। सुरेश सेन निशांत द्वारा संपादित आकंठ पत्रिका के हिमाचल समकालीन कविता विशेषांक के लिए मैंने उनका सुदीर्घ साक्षात्कार लिया तो उसमें पहली पंक्ति उन्होंने कही, ‘मेरे लिए हर दिन एक शुरुआत है। अंतर्मन, आसपास, स्मृतियां और संभाव्यताएं सभी कुछ एक कविता की तरह है।’ सच उनके लिए कविता उठते बैठते, सोते जागते, ओढ़ने बिछाने का संग साथ रही। उनको मेरा नमन है।

रस की भांति पृथ्वी में बिखरी श्रीकांत की कविताएं

श्रीनिवास जोशी, मो.-9418157698

श्रीनिवास श्रीकांत ने अपने जीवनकाल में ग्यारह पुस्तकें लिखीं- कविता, कहानी और आलोचनात्मक विश्लेषण पर। यह लेखन उच्च कोटि का था क्योंकि श्रीकांत की कलम मध्यम दर्जे का कुछ नहीं उगलती थी। मुक्तिबोध के लेखन पर वह बिस्तर में पड़े भी कार्य कर रहे थे। मदभागवत पर एक कथा आती है कि शुकदेव, जो तोते के रूप में थे, उन्होंने कल्पवृक्ष पर चोंच मार दी। फलस्वरूप फल का सारा रस पृथ्वी में बिखर गया। श्रीकांत भी शुकदेव हैं जिनकी कविताएं उस फल के रस की भांति पृथ्वी में बिखर रही हैं और हम उनका आनंद उठा रहे हैं।

श्रीकांत को संगीत का बड़ा ज्ञान था। और हो भी क्यों न? उन्होंने कलम उठाने से पूर्व 22 वर्ष तक बाक, बीथोवन और भारतीय शास्त्रीय संगीत सीखने में लगा डाला था। साहित्य और संगीत का यह प्रेमी एक अच्छा बावरची भी था। हमारे घर वह अक्सर आते थे और अनेक थिएटर कलाकार तथा कथाकारों के लिए बड़े शौक से खाना बनाते थे। एक बार उन्होंने कहा था, ‘मैं तो भात का पहाड़ खाता हूं।’ कितने साफ दिल इनसान थे श्रीकांत। अब तो केवल यादें ही बाकी रह गई हैं। विलियम के कथन पर पूरे उतरते थे श्रीकांत, ‘अपने लिए खाना बनाने में वह आनंद नहीं आता जो औरों के लिए बनाने में आता है, बिल्कुल वैसे ही जैसे कविता और संगीत होता है।’ वह सदैव साहित्य के अंकुरों को प्रोत्साहित करते थे। कभी किसी लेखक या संगीतकार की बुराई उनके मुख से किसी ने नहीं सुनी होगी। गोष्ठियों में आते थे, पर अधिकतर चुप बैठ कर और वक्ताओं को ध्यानपूर्वक सुनते थे। उन्होंन शेख सादी का कथन गुण लिया था, ‘चुप रहो या चुप से बेहतर कुछ बोलो।’ ग़ज़लें वह तरन्नुम में सुनाते थे और क्या तरन्नुम होता था। उनकी बेहतरीन ग़ज़लें हैं, ‘काग़जी़ जहाजों़ का जाने कैसा मंज़र है। बीच में जज़ीरा है हर तरफ समंदर है।’ उनकी एक कविता है, ‘अब नहीं आते परिंदे बस्ती के पास। अब वह रहते हैं ग़मगीन और उदास।’

श्रीनिवास श्रीकांत की बात में दम था

अश्वनी कुमार, मो.-9418085095

बात उन दिनों की है जब वरिष्ठ साहित्यकार केशव अपना अंग्रेज़ी में डेमन ट्रैप और हिंदी भाषा में आखेट उपन्यास की पांडुलिपि तैयार कर चुके थे। श्रीनिवास श्रीकांत जी को वे इनकी पांडुलिपि देखने के लिए विशेष तौर पर बुलाते थे। मुझे उनके बीच होते संवाद-परिसंवाद को सुनने का सौभाग्य मिला। कई दिनों की कई दौर की बैठकों के उपरांत श्रीनिवास श्रीकांत जी ने अपने साहित्यिक अध्ययन के अनुरूप दमदार बात रखी तो केशव जी ने हमारी आंखों के सामने अपनी कुर्सी से उठते हुए तत्काल उन उपन्यासों के पन्ने दर पन्ने यह कहते हुए फाड़ डाले कि इन पर नए सिरे से काम होगा। उन दोनों वरिष्ठ साहित्यकारों के इस प्रकार के मर्यादित संजीदा व्यवहार की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था कि एक की बात को दूसरे ने मान-सम्मान देते हुए अपने सृजन कार्य को तुच्छ बताते हुए सिरे से नकार दिया।

साहित्यिक दुनिया के रचना संसार में सृजनशीलता का यह एक उदाहरण है। और भी न जाने कितने ऐसे वाकयात हैं जब श्रीनिवास श्रीकांत जी को कवि गोष्ठियों, साहित्यिक सम्मेलनों में बड़ी गंभीरता से सुना जाता और उस पर अमल भी होता। कई बार वे किसी किताब पर अपनी समीक्षा में बड़ी सख्त लहज़े में टिप्पणियां भी कर देते। इस कारण उन्होंने बहुत से लोगों से नाराजगियां भी मोल लीं। वे अपनी बात बिना किसी लाग-लपेट के किया करते थे। जिस किसी भी लेखक में उनको कोई स्पार्क नज़र आता तो उसे सलाह-मशविरा देते। फोन करते, उसके लेखन में सुधार की गुंजाइश होने पर उसे सुधारने को भी अपनेपन से कहते। एक बार बातों ही बातों में मैंने कह दिया कि आपकी अंधेरे में कविता समझ नहीं आती। तो सहज भाव से कहने लगे, ‘इतना समझो कि अंधेरे में ही सृजन होता है। अंकुर अपना रूप लेता है। और सृष्टि निर्माण भी अंधेरे में होता आया है। जीवन अगर उजाला है तो मृत्यु गहन अंधेरा।’

साहित्य जगत के ‘श्री’

विनोद भारद्वाज, मो.-9418158987

अभी साथी बद्री सिंह भाटिया के जाने के दुःख से उबरे भी न थे कि 14 जुलाई को प्रातः 11 बजे के करीब शब्दों के माध्यम से जीवन के अनेक भावों का सूक्ष्म मानचित्रीकरण करने वाले वरिष्ठ साहित्यकार श्रीनिवास श्रीकांत के निधन का दुखद समाचार मिला। उनका रचना संसार आंखों के सामने तैर गया। उनकी कविता ‘मैंने चाहा था’ अश्कों के साथ याद आ गई- ‘मैंने चाहा था तरतीब से/सहज आनंद में बीते जिंदगी/बचपन, जवानी, बुढ़ापा/सभी उम्रें हों एक के बाद एक/सुखों से भरपूर…।’ चौरासी बरस की इस यात्रा में श्रीनिवास ने जीवन के अनेक पड़ावों को पार करते हुए साहित्य जगत को एक अनमोल खजाना विरासत के रूप में दिया है। उनके नाम में दो ‘श्री’ होने के कारण मैं उन्हें ‘श्रीश्री’ कह कर पुकारता। मेरा उनसे लगभग दो दशक तक एक गहरा नाता-रिश्ता रहा। गिरिराज व हिमप्रस्थ में संपादकीय दायित्व को निभाते हुए, यह हमारा सौभाग्य था कि उनका आशियाना हमारे कार्यालय के समीप था। मुलाकातों का सिलसिला नियमित रूप से होता रहता था। हमें उनके जीवन के अनुभवों से बहुत कुछ सीखने को मिला।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, राहुल सांकृत्यायन से उनकी भेंट के किस्से हमें सुनने को मिले। उन्होंने अपनी पांच दशकों की साहित्यिक यात्रा में अनेक अवरोधों को लांघा, बावजूद  इन्होंने कलम, कागज़, पुस्तकों को थामे रखा। वे कवि गोष्ठियों, साहित्य वार्तालापों व मित्र मंडली के शान होते थे। मुलाकातों के दौरान या फोन पर बस एक ही चिंता रहती थी…क्या लिख रहे हो। लिखो, किताब लिखो, तेरे में लिखने का माद्दा है, संस्मरण लिखो, कुछ तो लिखो। वे एक ऐसी शख्सियत थे जो सभी विशेषकर, नवोदित लेखकों के लिए प्रेरणा स्रोत रहे। साहित्य से लेकर आम लेखक तक को एक समदृष्टि से देखते और परखते थे। वहीं प्रेस कार्यालय में एक आम जन की कविताओं पर अपनी राय ही नहीं दी, बल्कि उसकी पुस्तक छपवाने में सहयोग भी दिया। अपनी साहित्यिक यात्रा में  ‘श्रीश्री’ ने राष्ट्रीय, प्रादेशिक तथा विदेशी लेखकों को पढ़ा ही नहीं, बल्कि उनके लेखन पर तुलनात्मक अध्ययन व आलोचनात्मक प्रस्तुतियां प्रस्तुत कीं। मुक्तिबोध, अश्क सहित गुंटर ग्रास, सार्त्र, कामू, एजरा पाउड, फ्रायड, जुंग के लेखन ने प्रभावित किया। ‘गल्प के रंग’ पुस्तक में ‘श्रीश्री’ ने अपने यदुच्छ्या चुने समय के उस साहित्य को आलोचनात्मक दृष्टि से देखने, परखने तथा नया रूप देने का दुस्साहस किया है। वे साहित्य के साथ-साथ एक उच्च कोटि के ज्योतिषी व आयुर्वेदाचार्य भी थे।


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App