हिमाचली लोक गायन एवं लोक संगीत में सृजनः प्रसार की पृष्ठभूमि में

By: Aug 8th, 2021 12:04 am

डा.  मनोरमा शर्मा, मो.-9816534512

प्रचार-प्रसार और बदलती जीवन शैली के इस युग में लोक संगीत भी अछूता नहीं रहा है। समय की मांग को देखते हुए लोक संगीत की विभिन्न विधाओं में सृजन की प्रवृत्ति दृष्टिगत हुई है। इसी संदर्भ में यह कहना गलत नहीं होगा कि आज लोक गायन, लोक वादन तथा लोक नृत्य विधाओं में सृजनात्मकता ने ऊंची उड़ान भरी है। लोक गीत स्वतः प्रसूत होते हैं और जन-जीवन में घुल-मिल जाते हैं। आज जिसे हम परंपरागत लोक संगीत कहते हैं, इसके संदर्भ में आज के रचित लोक गीत, लोक वाद्य, वादन शैलियां और लोक नृत्यों की आधुनिक बानगी कालांतर में परंपरागत हो जाएगी। स्पर्धा के इस कालखंड में लोक संगीत भी प्रभावित हुआ है। इसी संदर्भ में लोक संगीत सृजन का प्रसार आवश्यक प्रतीत होने लगा है। प्रचार-प्रसार माध्यमों के द्वारा हिमाचली लोक संगीत केवल हिमाचल में ही लोकप्रिय नहीं है, बल्कि इसने देश-विदेश में भी अपने पांव पसारे हैं। हिमाचली लोक नृत्यों में किन्नौर और लाहुली लोक नृत्यों ने जन-मन को मोह लिया है। वहीं महासुवी नाटी के आधुनिक स्वरूप में भी अपना वर्चस्व स्थापित किया है। हिमाचली लोक गायन के प्रसार में सर्वप्रथम हिमाचल का प्रतिनिधित्व करता हुआ गीत ‘लागा ढोल रा ढमाका, म्हारा  हिमाचलो बोड़ा बांका’ सुप्रसिद्ध गायक महेंद्र कपूर ने अत्यंत आकर्षक रूप में गाया है।

इसी कड़ी में नाटी किंग के नाम से प्रसिद्ध लोक गायक कुलदीप शर्मा ने अपने सुरीले अंदाज़ में हिमाचली लोक संगीत को प्रसारित किया है। प्रसार माध्यमों की पृष्ठभूमि में आईसीसीआर अर्थात इंडियन कौंसिल फार कल्चरल रिलेशंस के तत्त्वावधान में अनेक कलाकार अन्य देशों में जाकर हिमाचली लोक संगीत को विश्व पटल पर लाने में प्रयासरत हैं। इसके माध्यम से हिमाचली कलाकारों ने स्तरीय प्रस्तुतियां देकर अपनी भागीदारी सुनिश्चित की है। कांगड़ी लोक गीतों के सम्मानित कलाकार श्री प्रताप चंद शर्मा को भुलाया नहीं जा सकता। उनका लिखित और स्वरबद्ध किया गया गीत ‘ठंडी ठंडी हवा चलदी झुलदे चील्लां रे डालू, जीणा कांगड़े दा’ इकतारा की सुरीली नादात्मक ध्वनि के साथ उनका गायन आज हिमाचल प्रदेश की पहचान बन चुका है। कांगड़ा के लोक गीतों को लोकप्रिय बनाने की दिशा में कांगड़ा लोकसाहित्य परिषद, श्री करनैल राणा व डा. सतीश ठाकुर आदि भी महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं।

लोक संगीत के प्रसार हेतु श्री मोहित चौहान ने कांगड़ा-चंबा की पारंपरिक लोक गाथा  ‘कुंजु-चंचलो’ की धुन में कुछ परिवर्तन कर मधुरता से प्रस्तुत किया है। कुछ अन्य लोक गीत फिल्मांकन तथा विडियोग्राफी के माध्यम से विश्व पटल पर कांगड़ा के प्रतिनिधि गीत बन चुके हैं। यह तो सर्वविदित है कि फिल्म संगीत शास्त्रीय संगीत अथवा लोक संगीत की अपेक्षा बहुत शीघ्र लोकप्रिय हो जाता है। इसी तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए अन्य कलाकारों ने भी हिमाचल प्रदेश के लोक संगीत का फिल्मांकन किया है। कई फिल्मों की शूटिंग में हिमाचल की पृष्ठभूमि में पार्श्व संगीत के लिए हिमाचली लोक गीतों की मधुर धुनों को समाविष्ट किया गया है। निश्चय ही इससे हिमाचली लोक संगीत का विस्तार एवं प्रसार हुआ है।

पारंपरिक लोक संगीत के प्रसार हेतु इनकी धुनों में आधुनिक वाद्ययंत्रों का प्रयोग युवावर्ग में अधिक पसंद किया जा रहा है। समय की मांग को देखते हुए ऐसे प्रयोग वांछनीय प्रतीत होते हैं, यदि उनकी परंपरागत धुनों में अधिक छेड़छाड़ न की गई हो। परंपरागत लोक गायन की ऐसी विधाएं जो लुप्तप्राय हो रही हैं, उन्हें पुनर्जीवित करने की दिशा में भारत सरकार तथा प्रदेश सरकार की ओर से भी प्रयत्न किए जा रहे हैं। लोक गायक श्री हेतराम तनवर राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित हैं। प्रदेश सरकार द्वारा  लाहुल-स्पीति के मुखौटा निर्माता, चंबा के जनजातीय क्षेत्र भरमौर के खंजरी-रुबाना वादन के साथ मुसादा गायक श्री रोशन लाल, उनकी पत्नी और भाई जो स्वयं भी गायन करते हैं, सम्मानित किए गए हैं। लोक वाद्य वादन के क्षेत्र में श्री नंदलाल गर्ग के निर्देशन में एक साथ 108 वाद्य वादकों ने देवता के सम्मान में वादन प्रस्तुत किया। इन परंपरागत गायन वादन शैलियों में अगली पीढ़ी को प्रशिक्षित करने के लिए इन्हें गुरु-शिष्य परंपरा के अंतर्गत लाया गया है। चंबा का  गद्दी लोक नृत्य ‘घुरई’, मंडी का ‘लुड्डी’ नृत्य, ‘सिरमौरी नाटी’ व कांगड़ा के महिला लोक नृत्य झमाकड़ा ने लोकप्रियता की कसौटी पर अपना-अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बनाया है।

सिरमौर की ‘हारुल’ गायन शैली, कुल्लू और महासू के ‘लामण’, चंबा का ‘कुंजड़ी-मल्हार’, कांगड़ा के ‘संस्कार गीत’ आदि विधाएं लुप्त होने के कगार पर हैं, परंतु कुछ नई गाथाएं सृजित कर इन विधाओं को लोकप्रिय बनाने में कई कलाकार कार्य कर रहे हैं। लोक गायन को प्रसारित करने की दिशा में लोक गीत सबसे सशक्त माध्यम हैं। लोक गीत स्वतः प्रसूत होते हैं। पुराने मिटते चले जाते हैं और  सृजन के क्रम में नए जुड़ते चले जाते हैं। अतः यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि लोक गायन और लोक संगीत की परंपरा में प्रसार की दृष्टि से नवसृजन एक महत्त्वपूर्ण विधा है।


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