किन्नौरी बोलियांःसंरक्षण एवं संवर्धन

By: Aug 1st, 2021 12:05 am

सपना नेगी, मो.-9354258143

बोली किसी भी समाज के निर्माण, विकास, अस्मिता, सामाजिक एवं सांस्कृतिक पहचान को परखने का महत्त्वपूर्ण साधन है। बोली ज्ञान के बिना उस समाज के इतिहास और परंपराओं को मौलिक रूप में समझना मुश्किल ही नहीं, असंभव भी है। बिना इसके जो भी ज्ञान प्राप्त होगा, वह आधा-अधूरा ही होगा, उसे परिपूर्ण नहीं माना जा सकता। हम सभी को यह नहीं भूलना चाहिए कि बोलियों ने ही अपने समाज के लोक गीत, लोक गाथाओं और नैतिक मूल्यों की अमूल्य विरासत को अपने आप में संजोए रखा है। बोलियों के बिना इनका अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा।

साथ ही इस सच्चाई से भी मुंह नहीं मोड़ सकते कि आधुनिकता के बहाव और पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव के कारण आज किन्नौरी समाज की युवा पीढ़ी अपनी मां बोली को छोड़ हिंदी और अंग्रेज़ी के पीछे भाग रही है। वे इस बात को लगभग भुला चुके हैं कि जिस तरह किन्नौरी टोपी यहां के हर किन्नौर वासी के सिर का ताज़ है, ठीक वैसे ही यहां की बोलियां समस्त किन्नौर वासियों की पहचान हैं, जो लाखों-करोड़ों लोगों के बीच भी उन्हें अलग पहचान देती हैं, साथ ही उन्हें आज भी अपने समाज के लोगों से जोड़े हुए हैं। जो मिठास और अपनापन अपनी बोली में झलकता है, वह दूसरी भाषा में संभव ही नहीं।

वर्तमान में जो छात्र-छात्राएं शहरों में उच्च शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं या जो नौकरी कर रहे हैं, उनसे यदि किन्नौरी बोली के संदर्भ में प्रश्न किया जाए तो उन सबका जवाब यही होता है ‘हम किन्नौरी बोली समझ तो लेते हैं, पर हमें बोलने में दिक्कत होती है।’ इसी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि आने वाले समय में किन्नौरी बोलियां भी अन्य भारतीय जनजातीय भाषाओं की भांति ही अपनी अंतिम सांसें ले रही होंगी। इसलिए समय रहते ही किन्नौरी बोलियों का संरक्षण एवं संवर्धन करने की अत्यंत आवश्यकता है ताकि आने वाली पीढ़ी यहां प्रचलित विभिन्न बोलियों की इस अनमोल धरोहर से वंचित न रह जाए। हिमाचल प्रदेश की पहाड़ी बोली की तरह किन्नौरी बोलियों का इतिहास भी गौरवपूर्ण रहा है।

राहुल सांकृत्यायन ने इस बोली को ‘हमस्कद’ नाम दिया। वहीं वंशीराम शर्मा द्वारा इसे ‘कन्नौरयानु स्कद’ और श्री ठाकुर सेन नेगी जी द्वारा इसे ‘होमस्कद’ या ‘होमकद’ कहा गया है। किन्नौर वासियों द्वारा अपनी बोली को ‘कनौरिङ्.स्कद’ या ‘कनौरेउनुस्कद’ कहा गया है। जहां तक इन बोलियों के भाषा परिवार की बात है, सर जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन इन्हें तिब्बती-बर्मी भाषा परिवार के अंतर्गत रखते हैं। विस्तृत रूप होने के बावजूद इस बोली की न तो कोई स्वतंत्र लिपि है और न ही लिखित रूप। लिपि पहले टांकरी होती थी और अब देवनागरी है। अतीत से ही यह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरित होती रही है। किन्नौर की बोलियों के वर्गीकरण को लेकर भी विभिन्न विद्वानों के अलग-अलग मत रहे हैं। यहां के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में बोलने की शैली और लय में थोडे-बहुत अंतर को देखकर कुछ विद्वानों ने इसकी संख्या दस तो कुछ ने सात या पांच गिनाई है। इस संदर्भ में यह कहावत ‘कोस कोस पर पानी बदले, चार कोस पर बोली’ किन्नौर की बोलियों पर चरितार्थ होती है। स्थानीय लोग इन बोलियों को निम्न नामों से जानते हैं ः

  1. हमस्कद (हम बोली), 2.ञमस्कद (ञम बोली), 3. जङरामस्कद (जङरामी बोली), 4. शुमछोस्कद (शुमछो बोली), 5. सुन्नमस्कद (सुन्नमी बोली), 6. छितकुलस्कद (छितकुली बोली) तथा 7. जुलाहा-बढ़ई बोली। इसमें हमस्कद ऐसी बोली है जिसे किन्नौरी समाज के अधिकांश लोग बोलते हैं और समझते हैं। हमस्कद के बाद ञमस्कद बोली का क्षेत्र दूसरे स्थान पर है, जो इस भूभाग के बड़े क्षेत्र किन्नौर के साथ किन्नौर की सीमा से बाहर लाहुल-स्पीति आदि जिलों में भी है।

किन्नौरी समाज के अतीत में झांकने पर हम पाते हैं कि उस समय यहां के हर वासी की जुबान पर केवल किन्नौरी का ही राज था, परंतु बदलते समय के साथ अब यहां किन्नौरी के साथ हिंदी और अंग्रेज़ी का प्रभाव भी देखने को मिलता है। आधुनिक समय में किन्नौरी समाज के बच्चों को उनके अभिभावकों द्वारा गांव से दूर शहरों में इंग्लिश मीडियम स्कूलों में पढ़ाया जा रहा है। उन्हें बचपन से ही अपने परिवेश और घर के बुजुर्ग वर्ग की छत्रछाया से दूर कर दिया जाता है। वहां शहरों में रहते हुए अधिकतर माता-पिता अपने बच्चों से हिंदी में बात करते हैं। साथ ही कुछ अभिभावक जो रहते तो गांव में ही हैं और उनके बच्चें भी गांव के स्कूल में पढ़ रहे हैं। उसके बावजूद वे अपने बच्चों से हिंदी में बात करते हुए नज़र आते हैं। इस ओर गंभीरता से सोचने की जरूरत है कि ऐसे में बच्चों से कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वे अपनी मां बोली बोले, जब उनके परिवार के सदस्य ही हिंदी को बढ़ावा दे रहे हैं।

इसके लिए कहीं न कहीं हमारी शिक्षा प्रणाली भी उत्तरदायी है, जो नई पीढ़ी को मां बोली के ज्ञान से विस्मृत कर हिंदी और अंग्रेज़ी रटने वाला तोता बना रही है। स्कूलों में न तो अध्यापकों द्वारा मां बोली के महत्त्व के बारे में बताया जाता है और न ही अन्य विषयों की तरह इसे पढ़ाया जाता है। माना आधुनिक मांग के अनुसार हिंदी और इंग्लिश भाषा का ज्ञान होना अनिवार्य है, परंतु इसके पीछे अंधे होकर अपनी मां बोली से दूर होना कहां की समझदारी है। क्या ऐसे में बच्चों का सर्वांगीण विकास हो पाएगा? क्या आगे चलकर वे अपने समाज से तालमेल बिठा पाएंगे? क्या अपनी आगे आनी वाली पीढ़ी को मां बोली के ज्ञान से अवगत करा पाएंगे? ऐसे कई सवाल हैं जिन पर अभी से सोचने की जरूरत है और बोलियों के संरक्षण पर ध्यान देने की आवश्यकता है।


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