हिमाचली लोकसा‌हित्य में महाभारत के कथा प्रसंग

By: Aug 1st, 2021 12:06 am

अतिथि संपादक : डा. गौतम शर्मा व्यथित

मो.- 9418130860

विमर्श के बिंदु

हिमाचली लोक साहित्य एवं सांस्कृतिक विवेचन -40

-लोक साहित्य की हिमाचली परंपरा

-साहित्य से दूर होता हिमाचली लोक

-हिमाचली लोक साहित्य का स्वरूप

-हिमाचली बोलियों के बंद दरवाजे

-हिमाचली बोलियों में साहित्यिक उर्वरता

-हिमाचली बोलियों में सामाजिक-सांस्कृतिक नेतृत्व

-सांस्कृतिक विरासत के लेखकीय सरोकार

-हिमाचली इतिहास से लोक परंपराओं का ताल्लुक

-लोक कलाओं का ऐतिहासिक परिदृश्य

-हिमाचल के जनपदीय साहित्य का अवलोकन

-लोक गायन में प्रतिबिंबित साहित्य

-हिमाचली लोक साहित्य का विधा होना

-लोक साहित्य में शोध व नए प्रयोग

-लोक परंपराओं के सेतु पर हिमाचली भाषा का आंदोलन

लोकसाहित्य की दृष्टि से हिमाचल कितना संपन्न है, यह हमारी इस शृंखला का विषय है। यह शृांखला हिमाचली लोकसाहित्य के विविध आयामों से परिचित करवाती है। प्रस्तुत है इसकी 40वीं किस्त…

कपिल मेहराए मो.-9816412261

देवभूमि हिमाचल में शायद ही कोई ऐसा स्थान हो, जहां किसी देवी-देवता का वास न हो या किसी देवता की पूजा न होती हो। अगर हम द्वापर युग की बात करें तो यहां कई ऐसे स्थान हैं जो इस युग के राजाओं व अन्य शूरवीरों की गाथाओं का उल्लेख करते हैं। कुछ स्थानों पर तो द्वापर युग के इतिहास के प्रसंग लिखित रूप में बयां किए गए हैं। हिमाचली लोकसाहित्य में महाभारत के कथा प्रसंग अक्सर हमें सुनने को मिलते हैं। प्राचीन काल में कांगड़ा को त्रिगर्त के नाम से जाना जाता था। त्रिगर्त का शाब्दिक अर्थ तीन नदियों रावी, सतलुज और ब्यास के बीच फैले भूभाग से हैं। त्रिगर्त नाम महाभारत, पुराणों और राजतरंगिनी में मिलता है। त्रिगर्त के राजा सुशर्मा ने महाभारत युद्ध के दौरान कौरवों का साथ दिया था। इसका उल्लेख वेदव्यास द्वारा रचित महाकाव्य में तो मिलता ही है, साथ ही सुशर्मा द्वारा पांडवों को वनवास के दौरान शरण देने वाले राजा मत्स्यराज विराट पर आक्रमण करने की गाथाएं भी हिमाचल व इसके सटे इलाकों में सुनने में मिलती हैं। देवभूमि में जिन भी स्थानों पर पांडवों ने वनवास या अज्ञातवास के दौरान समय बिताया, इन स्थानों से लोगों की आस्था प्रत्यक्ष रूप से जुड़ती गई और ये स्थान हिमाचली लोकसाहित्य का हिस्सा बनते गए। कांगड़ा जनपद के जवाली कस्बे के नजदीक देहर खड्ड में पांडवों के आने की दंतकथाओं के चलते इस स्थान को लोग मिनी हरिद्वार की संज्ञा देते हैं।

ज्वालामुखी के चंगर क्षेत्र भीड़ गौड़ा के कथा प्रसंग भी महाभारतकाल से अछूते नहीं हैं। लोकसाहित्य में इन गाथाओं को कई साहित्यकारों ने अपनी कलम से भी बयां किया है। इस क्षेत्र के कथा प्रसंग के अनुसार अपने अज्ञातवास के दौरान पांडव यहां आए थे और उन्होंने इस स्थान को हरिद्वार बनाना चाहा, लेकिन कार्य में बाधा उत्पन्न होने पर वे यहां से चले गए। कांगड़ा के फतेहपुर कस्बे के नजदीक पौंग झील में स्थापित बाथू की लड़ी के मंदिरों का इतिहास भी महाभारत से जुड़ा है। ऐसा इसके कथा प्रसंगों से प्रतीत होता है। किंवदंती है कि इन मंदिरों का निर्माण द्वापर युग में पांडवों ने किया था। जिला कांगड़ा में मसरूर मंदिरों का इतिहास भी महाभारत से जुड़ा है। हिमाचली लोकसाहित्य में इसके कथा प्रसंग में बताया गया है कि इन मंदिरों का निर्माण पांडवों ने अपने अज्ञातवास के दौरान किया था। मंदिर में राधा-कृष्ण सहित राम, लक्ष्मण और माता सीता की मूर्तियां मौजूद हैं। धर्मशाला के एक छोर पर स्थित अघंजर महादेव मंदिर का जुड़ाव भी महाभारत काल का एक कथा प्रसंग है। कहा जाता है कि इस स्थान पर ही पांडु पुत्र अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण ने भोलेनाथ की उपासना करने को कहा था। अर्जुन ने इसी स्थान पर बैठकर घोर तपस्या कर भोलेनाथ को प्रसन्न किया और उनसे दिव्य शक्तियां प्राप्त कीं। इसी प्रकार कुल्लू जनपद के मनाली में स्थित हिडिंबा देवी मंदिर का इतिहास पांडवों से जुड़ा हुआ है। कथा प्रसंग में बताया जाता है कि जुए में सब कुछ हारने पर कौरवों ने पांडवों को वारणावत नामक स्थान में भेज दिया था। यहां उन्हें जीवित जला देने की योजना बनाई गई थी, लेकिन पांडव वहां से एक सुरंग के रास्ते भाग गए थे।

इस सुरंग के रास्ते वे निकल कर गंगातट पर आ गए। नाव से गंगा को पार किया और दक्षिण दिशा की ओर बढ़े। कौरव यही सोचते रहे कि पांडवों की मौत हो गई है। यहां से बच निकलने के बाद पांडव कौरवों की नजरों से बचने के लिए जंगलों में वनवास काटते रहे। इसी दौरान जंगलों में चलते-चलते वे एक राक्षस क्षेत्र में आ पहुंचे। इस स्थान पर हिडिंबा का भाई हिडिंब भीम के हाथों मारा गया। लेकिन, राक्षसी हिडिंबा का भीम को देखते ही उससे प्रेम हो गया। कुंती ने भीम को समझाया कि इसका इस दुनिया में अब और कोई नहीं है। इसलिए तुम हिडिंबा से विवाह कर लो। कुंती की आज्ञा से हिडिंबा एवं भीम दोनों का विवाह हुआ। इन्हें घटोत्कच नामक पुत्र हुआ जिसने महाभारत की लड़ाई में अत्यंत वीरता दिखाई थी। मंडी जिले के शिकारी देवी मंदिर का कथा प्रसंग भी महाभारत काल से जुड़ा हुआ है। कहा जाता है कि पांडवों ने अपने अज्ञातवास के दौरान इस मंदिर का निर्माण किया था। पांडवों की तपस्या से प्रसन्न होकर देवी दुर्गा ने उन्हें महाभारत युद्ध में विजयश्री का आशीर्वाद इसी स्थान पर दिया था। कहा जाता है कि मां दुर्गा की पत्थर की मूर्ति की स्थापना करके पांडव यहां से चले गए और तब से यह मंदिर बिना छत वाला ही है। बैजनाथ के महाकाल मंदिर के कथा प्रसंग का जुड़ाव भी महाभारत काल से है। कहा जाता है कि इस स्थान पर अज्ञातवास के दौरान पांडवों ने पूजा-अर्चना की थी, जिसका साक्ष्य मंदिर के पास बने कुंती कुंड से मिलता है।

इसके अलावा प्रदेश में कई ऐसे स्थान हैं जो किसी न किसी रूप में महाभारतकालीन इतिहास को बयां करते हैं। कथा प्रसंग बताते हैं कि हस्तिनापुर के बाद पांडव जिस रास्ते से होकर वनवास व अज्ञातवास के लिए गए, उन जगहों पर कुछ न कुछ ऐसे निशान छोड़ गए जो बाद में इतिहास बन गया और लोगों की आस्था से जुड़ गया। एक कथा प्रसंग में यह भी बताया गया है कि शिमला के ज्यूरी में स्थित गर्म पानी का चश्मा भीम ने माता कुंती के लिए बनाया था। हिमाचल के कांगड़ा जनपद से सटे पठानकोट के नजदीकी कस्बे शाहपुरकंडी के पास रावी नदी के तट पर बसा है छोटा सा गांव डूंग, जहां पर मुक्तेश्वर महादेव के रूप में भोले नाथ की आराधना की जाती है। लोकसाहित्य के कथा प्रसंग बताते हैं कि यहां स्थापित गुफाएं करीब 5500 वर्ष पुरानी हैं और इन्हें अर्जुन ने अपने तीरों से चीर कर बनाया था। तीरों के निशान मंदिर के अंदर बनी गुफाओं में आज भी दिखाई देते हैं। कहा जाता है कि इस स्थान पर पांडव अपने अज्ञातवास के दौरान कुछ समय के लिए रुके थे। इसके बाद वे रावी नदी पार कर जम्मू-कश्मीर के अखनूर जिले में, जिसे विराट राजा की नगरी कहा जाता था, वहां चले गए थे।


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