लुप्त हो रही किन्नौरी श्रम लोक कलाओं की परंपरा

By: Aug 22nd, 2021 12:05 am

सपना नेगी, मो.-9354258143

जनजातीय क्षेत्रों में बांस मानव सभ्यता से जुड़ी प्राचीनतम प्राकृतिक सामग्रियों में से एक है, जिसका प्रयोग अनेक प्रकार से होता रहा है। ‘किन्नौरी समाज में भी पिग (निगाल), राजल, सुचुल (चाको) इत्यादि झाडिय़ों से बनाई जाने वाली अनेक वस्तुओं का प्रयोग अतीत काल से होता आ रहा है। इन वस्तुओं का यहां के जीवन से घनिष्ठ संबंध रहा है। यदि यह कहा जाए कि कभी यह यहां के निवासियों की घर की शान हुआ करती थी तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। खेत-खलिहान से लेकर घर-आंगन या फिर उत्सव, त्योहारों के समय में इनसे बनी वस्तुएं यहां प्रयोग होती रही हंै। पहले यहां इन वस्तुओं के बिना दैनिक कार्य की कल्पना तक नहीं की जा सकती थी।

इस काम में यहां के शिल्पकार इतने माहिर होते हैं कि उनकी बनाई गई वस्तुओं को देखकर हर कोई उनके प्रति आकर्षित हो जाता है। यहां इनसे पात्र बनाने का यह काम चनालङ् (चनाल) जाति द्वारा किया जाता रहा है और आज भी उन्हीं के कारण यह कला जीवित है। यह कला उन्हें अपने पूर्वजों से विरासत में मिली है, जिसे वे आज भी संजोए हुए हैं। इन शिल्पकारों द्वारा बनाई गई वस्तुएं, जैसे छ़टो (टोकरी), कोटिंग (किल्टा), यांग छामे (बड़ी टोकरी) और चागेर (करंडी) यहां के जीवन का मुख्य अंग हंै। इनके द्वारा बनाई गई हर वस्तु में इनकी मेहनत साफ झलकती है। राजल और सुचुल की झाडिय़ां किन्नौर के कई गांवों के आसपास मिल जाती हैं, जबकि पिग (निगाल) लाने के लिए इन्हें कई कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ता है। इसे लाने के लिए गांव से दूर जंगल जाना पड़ता है। जंगल का रास्ता काफी मुश्किलों से भरा होता है और साथ ही आजकल वन अधिकारी इसे काटने से टोकते भी हैं, जबकि पिछले समय में जाएं तो तब इसे काटने पर कोई रोक-टोक नहीं थी। इन सभी मुसीबतों को झेलने के बाद भी इन शिल्पकारों को इस व्यवसाय से उतना फायदा नहीं हो रहा जितना कि कड़ी मेहनत के बदले मिलना चाहिए। वर्तमान समय में बाहरी क्षेत्रों के संपर्क में आने के कारण ‘किन्नौरी समाजÓ भी आधुनिकता की आंधी में बहने लगा है। इसके चलते वह अपनी परंपरागत वस्तुओं को छोड़कर आधुनिक बाज़ार से बनी वस्तुओं के प्रति आकर्षित हो रहे हैं और इनका प्रयोग बढ़ता ही जा रहा है।

इनसे बनी जिन वस्तुओं का वह पहले प्रयोग करते थे, उनके साथ ही अब प्लास्टिक से बनी वस्तुएं भी प्रयोग करने लगे हैं। किन्नौर वासी पहले इन वस्तुओं के लिए जहां सिर्फ यहां के शिल्पकारों पर निर्भर थे, अब उनके पास और भी विकल्प आ गए हैं। इस कारण इन शिल्पकारों को न तो पहले जैसा काम मिल पा रहा है और न ही उनके काम को वह सम्मान मिल पा रहा है जो पहले मिलता था। न ही उनका गुज़ारा अब केवल इस काम पर निर्भर रह कर हो रहा है। न ही आज उनकी संतानें इस काम को करने को तैयार हो रही हैं। आगे आए भी तो कैसे, जब उन्होंने इस काम में अपने बुजुर्गों को संघर्ष करते देखा है और उसके बाद भी कोई विशेष आमदनी इनकी न के बराबर हो रही है। इसलिए वर्तमान में कुछ ही बुजुर्ग शेष रहे हैं, जो अपने इस पुश्तैनी काम को लुप्त होने से बचा रहे हैं। अगर इसे वक्त रहते नहीं बचाया गया तो जो बुजुर्ग वर्ग इस काम को संजोए हुए है, उनके न रहने पर उनके साथ ही यह कला हमेशा के लिए विलुप्त हो जाएगी। ऐसे में क्या हम किन्नौर वासियों का फर्ज नहीं बनता कि हम इस परंपरा को इस तरह समाप्त होने से बचाएं? जब प्राचीन समय से ही इनसे बनी वस्तुओं का प्रयोग हमारे पूर्वज करते आए हैं, तो हम इसका स्थान प्लास्टिक से बनी वस्तुओं को कैसे दे सकते हैं? इस आधुनिकता के बहाव में आकर न जाने कितनी ही परंपरागत वस्तुओं को हम बनावटी सुंदरता के चक्कर में पहले ही खो चुके हैं। ऐसा ही हमारा रवैया रहा तो वह दिन दूर नहीं जब हमारे पास परंपरागत श्रम लोक कलाओं के नाम पर कहने को कुछ भी नहीं बचेगा। अगर हमें अपनी प्राचीन कलाओं को सुरक्षित रखना है तो इनका संरक्षण होना बहुत जरूरी है। माना कि समय के साथ बदलाव जरूरी है, पर हमें इस ओर भी ध्यान देना होगा कि कहीं नवीनता को अपनाते हुए हम अपनी प्राचीन कलाओं को तो विकृत नहीं कर रहे हैं? हर बार सरकार ही इसके संरक्षण के बारे में सोचे, यह जरूरी तो नहीं। क्या हम किन्नौर वासियों का इसके प्रति कोई दायित्व नहीं बनता? एक ओर प्रत्येक जनजातीय क्षेत्र अपनी इस परंपरागत संस्कृति को संजोए रखने में लगा है, दूसरी ओर हम किन्नौर वासी खुद ही अपनी सांस्कृतिक धरोहर को मिटाने पर तुले हैं।

इस कला के संरक्षण में उड़ान समाज सेवा, किन्नौर (एनजीओ) द्वारा एक महत्त्वपूर्ण कदम उठाया गया है ताकि इस पुरानी परंपरा को बचाए रख सकें। उन लोगों को एक बार फिर से रोजगार का अधिक से अधिक अवसर दिया जा सके, जो समुदाय आज भी काफी हद तक इस पर आश्रित हैं। समस्त किन्नौर वासियों की छोटी-सी सहयोगी कोशिश इस समुदाय से जुड़े लोगों में नई ऊर्जा भर सकती है और उन्हें अपने इस काम को जारी रखने का हौसला भी दे सकती है। परिणामस्वरूप किन्नौर की आने वाली पीढ़ी भी इन महत्त्वपूर्ण श्रम लोक कलाओं के मूल्य के बारे में जान सकेगी। इस विषय में सचेत होने का समय आ गया है। सोचिए, अब नहीं तो कब?


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