कवि हृदय का हकीकत से संघर्ष

By: Sep 19th, 2021 12:03 am

आत्मारंजन, मो.-9418450763

इस कविता परिसंवाद के विषयों में से-‘कवि हृदय का हकीकत से संघर्ष विषय ने कुछ अलग से आकर्षित किया। यह इसलिए भी कि यह अन्य विषयों से अलहदा कविता की रचना प्रक्रिया में कवि के आत्मसंघर्ष को संकेतित करता है, जिस पर प्राय: कम बात होती है। असल में अभिव्यक्ति की तमाम विधाओं में या तमाम कला विधाओं में कविता पर्याप्त जटिल विधा है और इसकी रचनाप्रक्रिया भी पर्याप्त जटिल। जबकि देखने में यह आता है कि इसके ठीक विपरीत इसे उतनी ही आसान समझकर सबसे अधिक लोग इसी विधा में दाखिल होते चले जाते हैं।
कितने तो विधा की न्यूनतम जरूरी समझ और तैयारी के बिना भी। कवि हृदय का हकीकत से यह संघर्ष, टकराव या द्वंद्व भी इस न्यूनतम में शुमार है। कवि हृदय और हकीकत दो लगभग विरोधाभासी बिंदु हैं और दोनों में संतुलन या सामंजस्य बना पाना कवि और कविकर्म के लिए चुनौती से कम नहीं। संवेदनशील होना बल्कि सामान्य से कुछ अधिक संवेदनशील होना कवि होने की जरूरी शर्त है। इस तरह स्वाभाविक रूप से कवि प्राय: कुछ अधिक संवेदनशील होता है और हकीकत यानी यथार्थ की जमीन पथरीली और बीहड़। यूं कोमलहृदयी के लिए इस पथरीली और बीहड़ जमीन की यात्रा एक कसौटी भी है और चुनौती भी। इतना ही नहीं उस कठोर और बीहड़ के क्रूरतम को भी अपने भीतर आत्मसात करना कवि कर्म के लिए आवश्यक रहता है। चिंतन मंथन से बिलो कर किसी संशलिष्ट और सार्थक परिणति तक पहुंचना और रचना के रूप में उसे दर्ज करना। यानी सबसे पहले जीवन स्थितियों में गहरे उतरना होता है। हर्ष आह्लाद ही नहीं दुख और विषाद के भी अंतर्तम की यात्रा। इस यात्रा के लिए संवेदनशील मुनष्य होने की शर्त तो अनिवार्य है ही।

यह उतरना कवि सर्जक के संवेदनशील मनुष्य होने, परदुख कातर हृदयी होने के रास्ते ही संभव हो पाता है। इसी रास्ते संभव होता है परकाया प्रवेश जिसके जरिए वह हर्ष या विषाद की सूक्ष्म और गहनतम की थाह पाता है, अनुभूत के कहीं निकट पहुंच पाता है। साहित्य समाज का दर्पण है जैसी उक्तियां सोद्देश्य कला या रचनाशीलता के परिप्रेक्ष्य में आज नाकाफी या अस्वीकार्य हैं। कविता या समग्र साहित्य ही यथास्थितिवाद का समर्थक नहीं होता। उसका मूल स्वभाव और ध्येय ही अग्रगामी होता है। वह बेहतर दुनिया का स्वप्र देखता है। इस तरह यथार्थ की कठोर जमीन पर मजबूती से पांव टिकाए हुए भी जरूरी तौर पर स्वप्नदर्शी! ख्यात आलोचक डा. रामविलास शर्मा जी कितना सही कहते हैं कि ब्रह्मा की बनाई सृष्टि से असंतुष्ट होना कवि का जन्मसिद्ध अधिकार है। यथास्थितिवाद से किसी बेहतर दिशा में अग्रगामी होने के लिए अपने समय की विसंगतियों या विरोधाभासों की पहचान या शिनाख्त करना लाजिमी रहता है और इस शिनाख्त के लिए विद्रूप और विसंगत जीवन स्थितियों की बीहड़ यात्रा लाजिम।

यह यात्रा, पड़ताल या आत्मसात की यह प्रक्रिया निश्चय ही बहुत तकलीफदेह तो होती है। भरपूर रचनात्मक तनाव देती हुई। बल्कि कहना चाहिए कि भरपूर रचनात्मक तनाव या दबाव में ही कोई रचना जन्म लेती है। एक कवि या सर्जक के लिए यह प्रसवपीड़ा के सदृश स्थिति होती है। जो सार्थक सृजन में परिणत होती है लेकिन भीतर कहीं पीड़ादाई आलोडऩ के बाद। शिव के गरल की तरह सर्जक को विष और पीड़ा अपने भीतर धारण या समाहित करनी होती है किसी सार्थक, दिशासजग रचना के लिए। असंगत/विसंगत स्थिति किसी भावनात्मक मुद्दे, त्रासद संंबंधों आदि की भी हो सकती है और सामाजिक, राजनीतिक आदि के स्तर की भी। इस तरह रचना का यह आत्मसंघर्ष आंतरिक और बाह्य किसी भी स्तर का हो सकता है। यानी सूक्ष्म यथार्थ के स्तर का भी या फिर स्थूल यथार्थ के स्तर का भी। यह आत्मसंघर्ष भावनात्मक या संवेदनात्मक भी होता है और बौद्धिक या वैचारिक स्तर का भी।

यानी इसकी कई परतें और प्रकार हैं। उदाहरण के तौर पर आज के हमारे जटिल सामाजिक और राजनीतिक यथार्थ को लिया जा सकता है। जिसमें धार्मिक और जातीय उन्माद हैं। झूठ, प्रपंच और प्रोपेगंडा का बोलबाला है। असहमति जुर्म का पर्याय बनती हुई। सत्ताओं के अधिनायकवादी चरित्र, रवैये और फैसले हैं। ऐसे ही फैसलों से परिणत हजारों-लाखों मजदूरों के सैकड़ों मील पैदल गांव पलायन करते, भूखों मरते, कुचलते रेवड़ हैं। सड़कों पर बेहद सर्द मौसम में पानी की बौछारों से खदेड़े जाते किसानों के हुजूम हैं। लठियाए जाते लहूलुहान छात्र समूह हैं और फिर किसानों, मजदूरों, शोषितों, वंचितों के पक्ष में खड़े होने पर ट्रोलिंग, लिंचिंग और हत्याओं तक की परिणति। ऐसे में काव्य या समग्र साहित्य का ही मूल चरित्र, जो जन का और शोषित वंचित अंतिम जन का प्रखरता से पक्ष लेना होता है, उसका निर्वहन कितना जोखिमपूर्ण है, सहज समझा जा सकता है और सहज समझा जा सकता है ऐसे कवि के आत्मसंघर्ष को। यह तो एक उदाहरण है जबकि इस आत्मसंघर्ष के कई आयाम हैं। इस तरह स्पष्ट है कि सामान्य से अधिक संवेदनशील कवि हृदयी के लिए यह आत्मसंघर्ष दोधारी तलवार पर चलने जैसा होता है- चुनौतीपूर्ण और दुसाध्य कर्म भी।


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