साहित्य सृजन : उपभोग या साधना?

By: Oct 3rd, 2021 12:02 am

कुलदीप शर्मा, मो.-9882011141

यह विषय ही किसी विमर्श से ज्यादा हमारे समय की मूल्यगत मान्यताओं की स्टेटमेंट जैसा लगता है। किसी भी सृजन की प्रक्रिया में अनिवार्य रूप से एक दीर्घकालिक अपनत्व और स्वामित्व की भावना रहती है। यह स्वामित्व किसी वस्तु पर कब्जा करके रखने जैसा नहीं है, बल्कि सृजन में लोकसंग्रह और लोककल्याण की उद्दात चेष्टा निहित होती है। जबकि उपभोग का क्रियात्मक अर्थ है किसी वस्तु को अपने लिए खर्च करके समाप्त कर देना। साहित्य सृजन मनुष्य के लिए अपने अस्तित्व के भीतरी उहापोह को व्यवस्थित करने का उपक्रम है। जबकि उपभोग महज हमारी शारीरिक आवश्यकताओं की आपूर्ति मात्र है। बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में पश्चिम की ओर से आए ठेठ भौतिकवाद ने पूरे विश्व में उपभोक्तावाद को न केवल नैतिक मान्यता दी, बल्कि उपभोग के लिए एक पूरे वैश्विक बाजार का मुंह खोल दिया।

कहना न होगा कि इस बाजार की चपेट में देर-सवेर साहित्य भी आ गया। कुछ वर्ष पहले तक साहित्य व साहित्यिक विधाएं जैसे पत्रकारिता व जीवनी लेखन आदि को सृजन क्षेत्र का सम्मानित अंग माना जाता था। पर हमारे इस बाजार समय ने पत्रकारिता के साथ-साथ साहित्य को भी अपनी चपेट में लेकर उसे कमोबेश उपभोग की विषय सूची में शामिल कर लिया। हमने अपने सृजनात्मक मापदंडों को ही नहीं, पूरी सृजन प्रक्रिया को ही उपभोग की इस अपसंस्कृति के हाथों पदच्युत होने दिया। किसी भी प्रकार का सृजन आपसे आपके सर्वश्रेष्ठ की मांग करता है। उस सर्वश्रेष्ठ को व्यक्त होने के लिए निश्चित रूप से एकनिष्ठ प्रयास की दरकार रहती है। साधना एक आंतरिक मनोस्थिति है। आजकल के लेखक या किसी भी सृजनशील व्यक्ति के सामने एक खुला बाजार है, जहां साहित्य सृजन के भी और साहित्य उपभोग के भी अनेक मौके उसके सामने उपस्थित रहते हैं। इन मौकों पर चील-झपट्टा मारकर फायदा उठा जाने को आजकल दुनियादारी कहा जाने लगा है। सभी नहीं, पर अधिकांश लेखक इस बाजार के आगे नतमस्तक हैं।

ज्यादातर लेखक अब लेखन से ज्यादा प्रकाशक के साथ अच्छे संबंध रखने में विश्वास करते हैं। कहना न होगा कि पुस्तक प्रकाशन के व्यावसायिक पहलू मुनाफे और खरीद-फरोख्त की नींव पर ही उठते हैं। फिर अगर लेखक थोड़ा-सा भी दुनियादार हो जाए तो वह सोशल मीडिया के माध्यम से चटपटी चीजें चुराने लग जाता है जिसके नए से नए मामले सोशल मीडिया के साहित्यिक पृष्ठों पर आए दिन उजागर हो रहे हैं। सही लेखक इस प्रवृत्ति से बहुत परेशान है, पर असहाय है। इसी विषय में अमरीकी जर्मन कवि चार्ल्स बुकोवस्की की एक कविता है जो आज के उपभोक्तावादी बाजार समय में लेखकों को रास्ता दिखाती है। इस कविता में बुकोवस्की पूछते हैं- ‘तो तुम लेखक बनना चाहते हो?’ यह प्रश्न लेखक बनने और लेखक होने के बीच के अंतर को स्पष्ट करता है। बुकोवस्की का मानना है कि कोई भी लेखक स्वाभाविक रूप से अपनी रचना प्रक्रिया में इतना ही सहज और नैसर्गिक होना चाहिए जितना एक बहती नदी या आसमान में तैरते बादल या खिलते फूल या बड़ा होता बच्चा। इस कविता का एक अंश है जो यहां उद्धृत करना चाह रहा हूं। यह कविता एक लेखक होने या न होने के अंतर को ही स्पष्ट नहीं करती, बल्कि लेखक के सृजन सामर्थ्य और सरोकारों को भी चुनौती देती है। सिर्फ सृजन क्षमता ही नहीं, सृजन के उद्देश्य भी साफ होने चाहिएं। लेखक हो सकने की संभावना किसी व्यवसाय में सफल होने की संभावना जैसी नहीं है। यह उन दुनियावी चालाकियों से अलग किस्म का उद्यम है। बुकोवस्की कहते हैं ः ‘अगर फूट के न निकले/किसी वजह से/मत लिखो। अगर बिना पूछे बिना बताए न बरस पडे़/तुम्हारे दिल और दिमाग से/और जुबां, और पेट से/मत लिखो। अगर पैसे के लिए/या शोहरत के लिए लिख रहे हो/मत लिखो।’ अगर सर्जक ही सृजन का उपभोक्ता हो जाए तो यकीनन उपभोग एक अपवित्र क्रिया में बदल जाएगा। यह अपवित्रता आजकल बहुत कम लोगों को समझ आती है।

आज के इस दौर में जब संचार क्रांति ने सोशल मीडिया के कई दृश्य पटल एक साथ खोल दिए हैं तो लेखकीय शुचिता भी संदेह के घेरे में आ गई है। सृजन की प्रमाणिकता को ग्रहण लग गया है। विचारवान रचनाकार भी जल्दबाजी में है कि वह अपनी रचनाओं के माध्यम से वह सब कुछ हासिल कर ले जो आज समाज के लिए सम्मान्य है। उपभोक्तावाद ने हमारे समाज को एक ऐसी दुरूह स्थिति में ला खड़ा किया है कि तमाम पुराने मूल्य और परंपराएं भरभरा कर गिर रही हैं। कुछ इस तरह कि हमारा समाज सफलता का एकमात्र पर्याय आर्थिक संपन्नता को मानता है। कुछ भी योग्यता न हो तो भी धनाढ्य व्यक्ति में हमारा समाज बहुत कुछ हो सकने की संभावनाएं देखता है। जरूरी है कि साहित्य को इस तरह की ह्रासात्मक प्रवृत्तियों से मुक्त रखा जाए। इतिहास में अगर थोड़ा सा पीछे जाएं तो हमें उन रास्तों के निशान मिलते हैं जिन पर चलकर हम साहित्य को उपभोग की वस्तु बनने से बचा सकते हैं। सोचें कि आज अगर वे जीवित होते तो क्या प्रेमचंद, धूमिल, मंटो और रेणु भी इस अंधी दौड़ में शामिल रहते?


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