सत्ता की कंदराओं से ‘पतझड़ बीत गया’

By: Dec 12th, 2021 12:04 am

‘पतझड़ बीत गया’ दरअसल अपने भीतर के तंज, व्यंग्य, कसौटियों, उपमाओं, चारित्रिक दोगलेपन, सत्ता के अहम, वहम और भंगिमाओं को तलाशता लेखन है। हिमाचल प्रशासनिक सेवा के अधिकारी पृथीपाल सिंह जिन बारीकियों से उपन्यास को सत्ता की अंधी कंदराओं से खोज पाते हैं, यह उनकी लेखकीय ईमानदारी के साथ-साथ साहस की प्रशासनिक फाइल की तरह है। उपन्यास के माध्यम से रेखांकित जीवन विन्यास के कई खांचे, खूंटे और खुराफाती मंजर दिखाई देते हैं। जमीन के एक टुकड़े पर घूमती कहानी में बदरंग सत्ता की गलियों का सामना उस मां की ममता से है, जो अपने नौकरीपेशा इकलौते बेटे को ऊना की झुलसाती गर्मी से निजात दिलाना चाहती है, चाहे बदले में मंत्री की जालसाजी में पुश्तैनी भूमि चली जाए। सुभाष केवल कहानी में दंपति रत्नु व निर्मला का बेटा नहीं, बल्कि हमारा बेटा, भाई या पड़ोसी हो सकता है। स्थानांतरण की भाषा में लिखा गया उपन्यास ‘एडजस्टमेंट’ की कई बोलियां बोलता है।

सचिवालय के संकीर्ण माहौल में पूरे प्रदेश की फाइलें, झुलसते आम आदमी के अरमान और दबी-कुचली आशाओं की सड़ांध में पनपती संदेहास्पद प्रवृत्तियां, प्रश्रय और प्रथाएं। यहां कर्मचारी यूनियन के संपर्क और सरकारी कार्य संस्कृति के कारनामों में संलिप्त माहौल की विडंबनाएं, फाइल पर चढ़ती मलाई और चारों तरफ फिसलता ईमान कबूल है। स्थानांतरण आर्डर की कितनी दरगाहें, कितने कब्रिस्तान और कितने भंवर हैं, कोई जान नहीं सकता। भाषायी चुस्ती और संवेदना के पटल पर लिखते हुए पृथीपाल सिंह खुद को भी मुख्य भूमिका से नजरअंदाज नहीं कर पाते, इसलिए वह कहानी के साथ प्रशासन, सुशासन और सत्ता की परिक्रमा में सरकारी कार्यालयों की छत के नीचे मकडि़यां ही मकडि़यां देख पाते हैं और उस मकड़जाल से रूबरू करा देते हैं, जिसके भीतर बाबूगिरी, अफसरशाही, नौकरशाही और लालफीताशाही के जबड़े आम आदमी को दबोच रहे हैं। उपन्यास एक चलचित्र की मानिंद पाठक को दर्शक बना लेता है और यही गतिशीलता अंतिम पन्ने तक दिखाई देती है। राजनीतिक सीढि़यों पर फिसलते इनसान को सत्ता कैसे देखती है, इसका वर्णन करते हुए उपन्यास के भीतर मंत्री और विधायक के बीच संवाद की एक बानगी, ‘अलग-अलग आदमी को साधने का अलग-अलग तरीका होता है। हमें हर आदमी की नब्ज का पता होना चाहिए कि किसकी क्या कमजोरी है। किसी को पैसा चाहिए होता है, तो कोई डंडे से मानने वाला होता है, किसी के साथ हाथ मिला लेना ही काफी होता है, तो कोई थोड़े बहुत मान-सम्मान का भूखा होता है। किसी को जाति के नाम से बहलाया जा सकता है तो कोई किसी अहसान के भार से झुकाया जा सकता है।’

उपन्यास के भीतर औरत के सपनों को बांधते रिश्ते, आशाओं की चिडि़या को पिंजरे में बंद करता एहसास तथा आम आदमी के घर के ताने-बाने की जकड़न मुखातिब है। कूहल के मिटते अस्तित्व में झांकती तड़प और विकास के ढहते घराट तक के जिक्र से उपन्यास चीखता है। मंत्री के फरेबी नक्श और चालबाज नैनों से किस तरह रत्नु अपनी जमीन बचा पाता है, इसे आम आदमी की खुद्दारी कहें या ग्रामीण सहजता का सच मानें, लेकिन कहीं सारांश यही निकलता है कि सचिवालय की पनाह में घूमती इच्छाएं, विनीत आग्रह और पीड़ा के लिए कोई जगह नहीं है। मानवीय कशमकश से बाहर निकलने की कोशिश पर लिखा गया यह उपन्यास हमें यथार्थ के पन्नों से रूबरू कराता है।                                                                -निर्मल असो

उपन्यास का नाम: पतझड़ बीत गया

लेखक : पृथीपाल सिंह

प्रकाशक :  भावना प्रकाशन, दिल्ली

कीमत :  200 रुपए


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