स्त्री के सरोकार और चिंताएं

By: Dec 19th, 2021 12:08 am

कविता एक सांस्कृतिक व सामाजिक प्रक्रिया है। इस अर्थ में कि कवि जाने-अनजाने, अपने हृदय में संचित, स्थिति, स्थान और समय की क्रिया-प्रतिक्रिया स्वरूप प्राप्त भाव-संवेदनाओं के साथ-साथ जीवन मूल्य भी प्रकट कर रहा होता है। और इस अर्थ में भी कि प्रतिभा व परंपरा के बोध से परिष्कृत भावों को अपनी सोच के धरातल से ऊपर उठाते हुए सर्वसामान्य की मीन पर स्थापित कर रहा होता है। पाठक को अधिक मानवीय बनाते हुए और एक बेहतर समाज की अवधारणा देते हुए। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए रचनात्मकता का विश्लेषण और मूल्यांकन जरूरी है। यथार्थ के समग्र रूपों का आकलन आधारभूत प्राथमिकता है। यदि यह आधार खिसक गया तो कवि कर्म पर प्रश्न उठेंगे।…हिमाचल प्रदेश में कविता व गज़़ल की सार्थक तथा प्रभावी परंपरा रही है। उसी को प्रत्यक्ष-परोक्ष, हर दृष्टि और हर कोण से खंगालने की चेष्टा यह संवाद है।… कुछ विचार बिंदुओं पर सम्मानित कवियों व समालोचकों की रह, कुम्हार का चाक/छीलते काटते/जो घड़ दे एक आकार। ‘हिमाचल की हिंदी कविता के परिप्रेक्ष्य में शीर्षक के अंतर्गत महत्त्वपूर्ण विचार आप पढ़ेंगे। जिन साहित्यकारों ने आग्रह का मान रखा, उनके प्रति आभार। रचनाकारों के रचना-संग्रहों की अनुपलब्धता हमारी सीमा हो सकती है। कुछ नाम यदि छूटे हों तो अन्यथा न लें। यह एक प्रयास है, जो पूर्ण व अंतिम कदापि नहीं है। – अतिथि संपादक

मो. : 9418111108

हिमाचल की हिंदी कविता के परिप्रेक्ष्य में -15

विमर्श के बिंदु
1. कविता के बीच हिमाचली संवेदना
2. क्या सोशल मीडिया ने कवि को अनुभवहीन साबित किया
3. भूमंडलीकरण से कहीं दूर पर्वत की ढलान पर कविता
4. हिमाचली कविता में स्त्री
5. कविता का उपभोग ज्यादा, साधना कम
6. हिमाचल की कविता और कवि का राज्याश्रित होना
7. कवि धैर्य का सोशल मीडिया द्वारा खंडित होना
8. कवि के हिस्से का तूफान, कितना बाकी है
9. हिमाचली कवयित्रियों का काल तथा स्त्री विमर्श
10. प्रदेश में समकालीन सृजन की विधा में कविता
11. कवि हृदय का हकीकत से संघर्ष
12. अनुभव तथा ख्याति के बीच कविता का संसर्ग
13. हिमाचली पाठ्यक्रम के कवि और कविता
14. हिमाचली कविता का सांगोपांग वर्णन
15. प्रदेश के साहित्यिक उत्थान में कविता संबोधन
16. हिमाचली साहित्य में भाषाई प्रयोग (काव्य भाषा के प्रयोग)
17. गीत कविताओं में बहती पर्वतीय आजादी

सरोज परमार
मो.-9816208309

-(पिछले अंक का शेष भाग)
नारी में संवदेनशीलता अधिक होती है, छोटी सी बात उसे आहत कर डालती है। दफ्तर में बॉस, घर में सास, पति सबसे कुछ न कुछ सुनना पड़ता है। ऐसे में प्रेम के दो बोल उसके संतप्त मन पर मरहम लगा सकते हैं। पर इन दो बोलों को सुनने के लिए वह अंदर ही अंदर क्षत-विक्षत होती रहती है। कामकाजी औरत कहीं भी कार्य करती हो उसकी सांस अपने बच्चों में, पति में अटकी रहती है। घर पहुंचने की शीघ्रता में वह बड़ी से बड़ी बाधाएं पार कर चुनौतियों का सामना कर (मसलन रेल, बस का सफर खड़े होकर करना, सड़क पार करते हुए वाहनों से टकरते-टकराते रह जाना, फब्तियां सुनना, भागदौड़ में चप्पल टूटना) घर पहुंचती है तो सबके सूजे हुए चेहरे देख सफाई देने का यत्न करते हुए सीधे रसोई में घुसती है, उसे पानी का गिलास देने वाला कोई नहीं। फिर उसी क्रम को दोहराते हुए बच्चों को होमवर्क, बुजुर्गों की सेवा, पति की जरूरतें, आने-जाने वालों की आवभगत करते हुए आधी रात थके शरीर और बुझे मन से बिस्तर पर जाती है तो नींद के आगोश में डूब भी सकती है या फिर दफ्तर की किसी परेशानी या बच्चे की बीमारी के कारण रात करवटों में कट जाना आम बात है।

दोहरा बोझ ढोने पर भी उसे मिलता क्या है, थोड़े से सुख के बदले व्यर्थता का बोध। चकल्लस ही चकल्लस। देहमुक्ति का प्रश्न फिर भी मुंह बाये खड़ा है। वास्तव में देह की मुक्ति से अर्थ है देह का उपयोग देहधारी अपनी इच्छा के अनुसार करे यानी अपनी कोख में पलने वाले जीव का चयन भी वह स्वयं करे। बात चौंकाने वाली जरूर है, पर है सच। एक व्यभिचारि, व्यसनी तथा कामचोर पति का बच्चा वह कोख में न धारण करना चाहे तो न करे, उसे अधिकार हो कि वह योग्य, वीर, बलशाली, मेधावी व्यक्ति की संतान उत्पन्न करना चाहे तो करे। वह मां है। उसे नौ मास तो गर्भ ढोना है, तो अनिच्छित गर्भ क्यों ढोये? अनिच्छित संतान जब उसका दायित्व होगी तो उस पर कहर टूटेंगे। चोर, मवाली, आवारा संतान बनी तो मां ही तिल-तिल कर मरेगी। ताने सुनेगी, बातें सहेगी और अपने कोख जाये पर फिर भी रहम बरसाएगी।

ऐसे में वह उस पतित व्यक्ति चाहे वह उसका सात फेरों वाला पति ही क्यों न हो, की संतान अपने गर्भ में पालने के लिए क्यों मजबूर हो? क्यों उत्पन्न करे वह उसकी संतान जिसको वह मन से नहीं चाहती। बात अटपटी अवश्य है, पर देह पर अधिकार की बात करें तो यह प्रश्न भी सामने आएंगे, मेरी दृष्टि में यही देहमुक्ति है। ऐतिहासिक परिपे्रक्ष्य में भी हम इस देहमुक्ति को खोज सकते हैं। पांच पांडवों की मां तेजस्विनी कुंती राजा पांडु की पत्नी थी। पांडु चूंकि रोगग्रस्त थे, संतान उत्पन्न करने में अशक्त थे। कुंती की तीनों संतानें विभिन्न देवताओं द्वारा प्रदत्त हैं। युधिष्ठिर के पिता धर्मराज थे। भीम वायु पुत्र थे। अर्जुन इंद्र की संतान थी।

राजा पांडु की द्वितीय पत्नी माद्री के दोनों पुत्र अश्वनी कुमारों की संतान थे। महारानी कुंती का विवाहपूर्व जन्म लेने वाला पुत्र ‘कर्ण सूर्यपुत्र था जिसे लोकमर्यादा के भय से कुंती से त्याग दिया था। उपरोक्त संदर्भ से यह स्पष्ट है कि पति के संतान उत्पन्न करने में अशक्त होने पर नारी ने अपने देहमुक्ति के अधिकार का प्रयोग करते हुए मनचाही संतान प्राप्त की। देह की स्वामिनी नारी है, उसे प्रेम से, त्याग से तो जीता जा सकता है, परंतु बलपूर्वक उस पर अधिकार का दावा ठोकना, नारी की अस्मिता पर कुठाराघात है। मिथकीय परंपरा में पार्वती पूर्ण स्त्रीत्व लिए है, वह नारी मुक्ति का सशक्त उदाहरण है। वह अपने पिता राजा हिमालय से विद्रोह कर अपना इच्छित वर महादेव प्राप्त करती है। महादेव के प्रति उसकी आसक्ति उसका समर्पण बढ़ाती है। पार्वती ने पहली बगावत अपने पिता की सामंतवादी व्यवस्था से की जो अविकसित जातियों, जनजातियों, भूत-पिशाच आदि से एकाकार करने की बात सोचती है। क्योंकि किसी सामाजिक समारोह में उन्हें बराबरी का दर्जा नहीं दिया जाता।

पिता की व्यवस्था के प्रति प्रतिकार करती हुई वह आग में कूद जाती है और फिर शिव और उसके गणों ने जो प्रलय मचाई, वह साहित्य में दर्ज है। पार्वती समय-समय पर तर्कों के तीर तब तक चलाती रहती है जब तक उसकी जिज्ञासा का शमन नहीं हो जाता। उन्होंने गणेश को अपना मानस पुत्र स्वीकार किया तो महादेव ने भी उसे अपनाया। महादेव के आध्यात्मिक विकास के साथ-साथ अपने आध्यात्मिक विकास करने का प्रयत्न किया। पुत्रों का लालन-पालन करने के साथ-साथ विश्व को करुणामूलक दृष्टि भी पार्वती ने ही प्रदान की। महादेव ने कहीं भी उसे बरजा नहीं। उसकी जिद के आगे महादेव झुके अर्थात महादेव ने स्त्रीत्व का सम्मान किया। इस संदर्भ को देख कर मेरी मान्यता है कि देहमुक्ति ही नारी मुक्ति है। देहमुक्ति ही स्त्रीत्व का पूर्ण विकास है। तीन दशकों तक ईमानदार कोशिश व बड़े सरोकारों से प्रारंभ हुआ स्त्री विमर्श आंदोलन स्त्री मुक्ति पर आकर ठहर गया है। पुरुष प्रधान समाज द्वारा दबी-कुचली-सताई, शोषित एवं पीडि़त स्त्री को सही मायनों में यदि स्वतंत्र होना है तो वह अपने देह के स्वामित्व को पहचाने क्योंकि भविष्य में स्त्री के आंचल की छाया में नई दुनिया पनपेगी। अन्याय, अनादर, उपेक्षा, विकट हिंसा में घायल समाज को सुकून भरी रौशनी स्त्रियां ही दिखाएंगी। यह उत्तर स्त्रीवाद का समय है। इस समय में आत्मविश्वास, आत्मान्वेशण बढ़ा है। उत्तर स्त्रीवाद उपलब्धियों का महोत्सव तो नहीं कहा जा सकता, पर यह स्त्री को अपनी दशा पर सोचने को विवश अवश्य करता है।


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