सबसे बड़ा धर्म

By: Jan 22nd, 2022 12:16 am

वास्तव में परोपकार ही मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म है जिसका अर्थ है दूसरों की भलाई चाहे वह किसी भी रूप में हो। यूं तो भारत की भूमि पर अनेकों परोपकारी महापुरुषों के उदाहरण पौराणिक काल से ही मिलते रहे हैं, परंतु ऋषि दधीचि के बलिदान एवं त्याग को कौन भूल सकता है। ऋषि दधीचि को जब पता चला कि उनके शरीर की हड्डियों से बने बज्र नामक हथियार से ही असुरों का विनाश हो सकता है, तो उन्होंने देवताओं के आह्वान पर स्वयं अपनी पत्नी के जीवित रहते हुए अपनी देह त्याग दी। हमारे अंदर कितना सेवाभाव है इसकी परीक्षा का जीता जाता उदाहरण है कोरोना की पहली लहर। कुछ लोग इतने खुदगर्ज बन गए कि अस्पतालों में दिन रात सेवाएं देने वाले नर्स और डाक्टर किराएदारों के प्रति नफरत करने लगे, परंतु सलाम है उन नौजवानों के जज्बे को जिन्होंने अपनी जरा भी परवाह न करते हुए दिन-रात लोगों की सेवा की। यदि कुछ सेवाकार स्वयंसेवी और राधास्वामी जैसी संस्थाएं सामने ना आती तो भुखमरी और बीमारी से परिणाम गंभीर होते।

मरीजों को बचाते- बचाते संक्रमण से न जाने कितने डाक्टर, नर्स और पुलिस कर्मचारियों की जान चली गई, लेकिन व्यापार में अंधे कुछ लोग दो दूनी दस के चक्कर में ही पड़े रहे। आधुनिक समय में भी कुछ लोग दधीचि बनकर त्याग परोपकार को अपना धर्म समझते हैं। 1980 के दशक में जब शिमला के ऊपरी इलाकों में रहस्यमयी प्लेग नामक बीमारी का प्रकोप चरम सीमा पर फैला, तो कोई भी डाक्टर इन इलाकों में जाने को तैयार नहीं था। यहां तक कि केंद्रीय डाक्टरों की टीम भी इस इलाके में जाने से कतरा गई थी। ऐसे में बड़ा अजीब लगता है कि हिमाचल के रोहड़ू में स्थित शील गांव के इस नेक दिल डाक्टर ने अपनी पीठ पर दवाइयां ले जाकर न केवल अकेले इन पहाड़ी इलाकों में मरीजों का उपचार किया, बल्कि वहां पर कई लाशों को जलाकर उनका अंतिम संस्कार भी किया जिन्हें कोई हाथ लगाने को तैयार नहीं था।

यदि हम अपने यहां के सामाजिक सुरक्षा जीवन की बात करें, तो हमें ज्ञात होना चाहिए कि हमारा समाज यूरोपीय समाज की तरह विकसित नहीं है, जहां माता- पिता अपने बच्चों को 15 साल की उम्र में अपने से अलग कर स्वयं एकांतमय जीवन व्यतीत करते हैं। वहां यह सब इसलिए संभव है क्योंकि वहां की सरकारें अपने बुजुर्ग नागरिकों को हर तरह की सहूलियत प्रदान करती हैं। देर सवेर हम भी उसी जीवनशैली को अपना रहे हैं, परंतु फर्क सिर्फ इतना है कि वहां की सरकार अपने लोगों के जीवन की कीमत सर्वोपरि मानती है। लेकिन उनकी सरकारों जैसा काम करने की इच्छा शक्ति से हमारी सरकारें अभी कोसों दूर हैं। उनके विकसित समाज होने के कारण उन्हें जीवन बसर करने के लिए अच्छी पेंशन सुविधाएं उपलब्ध है, परंतु हमारे यहां 60 वर्ष के उपरांत भी एक बे औलाद मजदूर आदमी को 800 की मामूली पेंशन लगवाने के लिए आय प्रमाण पत्र का झंझट पड़ता है। जरा विचार करें कि ढलती उम्र के इस पड़ाव में भला वह रूखे सूखे पहाड़ी खेतों में क्या पैदा कर लेगा। हमारी हिमाचल सरकार द्वारा सहारा जैसी योजनाएं लाकर लाचार बीमार लोगों को सहारा देने का प्रयास जरूर किया गया है, परंतु अभी तक काफी प्रयास किए जाने बाकी है। कई क्षेत्रों में तो सरकार ने बिलकुल निराश किया है।

-गुरमीत राणा, खुंडियां


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