हिमाचल की समकालीन कविता

By: Jan 9th, 2022 12:09 am

कविता एक सांस्कृतिक व सामाजिक प्रक्रिया है। इस अर्थ में कि कवि जाने-अनजाने, अपने हृदय में संचित, स्थिति, स्थान और समय की क्रिया-प्रतिक्रिया स्वरूप प्राप्त भाव-संवेदनाओं के साथ-साथ जीवन मूल्य भी प्रकट कर रहा होता है। और इस अर्थ में भी कि प्रतिभा व परंपरा के बोध से परिष्कृत भावों को अपनी सोच के धरातल से ऊपर उठाते हुए सर्वसामान्य की ज़मीन पर स्थापित कर रहा होता है। पाठक को अधिक मानवीय बनाते हुए और एक बेहतर समाज की अवधारणा देते हुए। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए रचनात्मकता का विश्लेषण और मूल्यांकन जरूरी है। यथार्थ के समग्र रूपों का आकलन आधारभूत प्राथमिकता है। यदि यह आधार खिसक गया तो कवि कर्म पर प्रश्न उठेंगे।…हिमाचल प्रदेश में कविता व ग़ज़ल की सार्थक तथा प्रभावी परंपरा रही है। उसी को प्रत्यक्ष-परोक्ष, हर दृष्टि और हर कोण से खंगालने की चेष्टा यह संवाद है।… कुछ विचार बिंदुओं पर सम्मानित कवियों व समालोचकों की ज़िरह, कुम्हार का चाक/छीलते काटते/जो घड़ दे एक आकार। ‘हिमाचल की हिंदी कविता के परिप्रेक्ष्य में’ शीर्षक के अंतर्गत महत्त्वपूर्ण विचार आप पढ़ेंगे। जिन साहित्यकारों ने आग्रह का मान रखा, उनके प्रति आभार। रचनाकारों के रचना-संग्रहों की अनुपलब्धता हमारी सीमा हो सकती है। कुछ नाम यदि छूटे हों तो अन्यथा न लें। यह एक प्रयास है, जो पूर्ण व अंतिम कदापि नहीं है। – अतिथि संपादक

अतिथि संपादक : चंद्ररेखा ढडवाल, मो. : 9418111108

हिमाचल की हिंदी कविता के परिप्रेक्ष्य में -17

विमर्श के बिंदु

  1. कविता के बीच हिमाचली संवेदना
  2. क्या सोशल मीडिया ने कवि को अनुभवहीन साबित किया
  3. भूमंडलीकरण से कहीं दूर पर्वत की ढलान पर कविता
  4. हिमाचली कविता में स्त्री
  5. कविता का उपभोग ज्यादा, साधना कम
  6. हिमाचल की कविता और कवि का राज्याश्रित होना
  7. कवि धैर्य का सोशल मीडिया द्वारा खंडित होना
  8. कवि के हिस्से का तूफान, कितना बाकी है
  9. हिमाचली कवयित्रियों का काल तथा स्त्री विमर्श
  10. प्रदेश में समकालीन सृजन की विधा में कविता
  11. कवि हृदय का हकीकत से संघर्ष
  12. अनुभव तथा ख्याति के बीच कविता का संसर्ग
  13. हिमाचली पाठ्यक्रम के कवि और कविता
  14. हिमाचली कविता का सांगोपांग वर्णन
  15. प्रदेश के साहित्यिक उत्थान में कविता संबोधन
  16. हिमाचली साहित्य में भाषाई प्रयोग (काव्य भाषा के प्रयोग)
  17. गीत कविताओं में बहती पर्वतीय आजादी

डा. हेमराज कौशिक, मो.-9418010646

समकालीनता देश और काल की सीमा नहीं है। मुख्य बात अपने समय के समाज को देखने की दृष्टि है। विनोद कुमार शुक्ल की एक पंक्ति है कि घड़ी देखना समय देखना नहीं होता। समकालीनता को घड़ी या कैलेंडर से निर्धारित करना संभव नहीं है। समकालीनता अपने समय के प्रश्नों, सरोकारों से मुठभेड़ करते हुए उनमें हस्तक्षेप करते हुए रचनाकार को समकालीनता अर्जित करनी होती है। समकालीनता रचना की अंतर्वस्तु के साथ भाषा और शिल्प से संपृक्त प्रश्न भी हैं। वस्तुतः प्रत्येक महत्त्वपूर्ण रचना अपनी समकालीनता को अर्जित करने की सतत प्रक्रिया है। एक ही समय के दो रचनाकार अपने विज़न और दृष्टि के कारण कम या अधिक समकालीन हो सकते हैं।

अपने समय में लिखना और अपने समय के सरोकारों से संघर्ष करते हुए सृजन करना दो भिन्न-भिन्न बातें हैं। एक ही समय में सृजन करने वाला प्रत्येक कवि आवश्यक नहीं है कि वह समकालीन भी हो। समकालीनता समय से पहचानी जाकर हमारे चिंतन, व्यापक दृष्टि और विज़न से निर्धारित होती है। समय समकालीनता के लिए छाया की भांति होता है। कवि का विज़न ही समकालीनता का आधारभूत तत्त्व है। लेखक को अपने समय की अग्रगामी सामाजिक गतिकी को काव्य कृति की संवेदना का अंग बनाना समकालीनता का प्रमुख तत्त्व है। ऐसी कविता जो लोकधर्मी चेतना, अग्रगामी सामाजिक गतिकी संपन्न, सामाजिक सरोकारों से संपृक्त होकर मनुष्य जीवन के कल्याण में निहित है, वह समकालीन है। लोकोन्मुखता और सामाजिक विडंबनाओं  और अपने समय के प्रश्नों और चुनौतियों, द्वंद्वों और  क्रूरता  से जूझना   समकालीता का आधार है। हिमाचल प्रदेश में आधुनिक हिंदी कविता का प्रादुर्भाव उस समय होता है जब ‘नई कविता’ आंदोलन अपनी पराकाष्ठा में था। भौगोलिक परिस्थितियों और आर्थिक कठिनाइयों और शिक्षा के सीमित प्रसार के कारण काव्य आंदोलनों का प्रभाव यहां के सृजन पर नगण्य ही रहा। साहित्य पठन-पाठन के लिए प्रारंभ में साहित्यिक पत्रिकाओं का सीमित होने के कारण रचनाकारों की सृजन दृष्टि सीमित परिधि में बंद रही और प्रकाशन की भी कठिनाइयां रहीं। हिमप्रस्थ पत्रिका के प्रकाशन के साथ साहित्य सृजन के प्रति रचनाकार उन्मुख हुए। राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाएं पढ़ने वाला नितांत सीमित वर्ग था। प्रारंभ में कैलाश भारद्वाज, परमानंद शर्मा, रामदयाल नीरज, श्रीनिवास श्रीकांत प्रवृत्ति रचनाकारों की कविताएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई। सन् 1976 में ‘श्यामला’ शीर्षक काव्य संग्रह का संपादन अनिल राकेशी ने किया जिसमें तेरह कवियों की चार-चार कविताओं का संपादन किया। इसी संग्रह में संग्रहीत कवियों में हिमाचल में समकालीनता की अनुगूंज है।

इस संग्रह की कविताओं में जहां एक ओर नव्य छायावाद के प्रभाव से रामदयाल नीरज,  कैलाश भारद्वाज, सत्येंद्र शर्मा भावप्रवण  वैयक्तिक गीतों के स्थान पर आधुनिक भाव बोध से संपन्न कविता का सृजन करते हैं, दूसरी ओर अमिताभ,  श्रीनिवास श्रीकांत,  सुंदर लोहिया, अनिल राकेश की कविताएं समकालीन भावबोध से संपन्न होती है। सुंदर लोहिया और अनिल राकेशी की कविताएं प्रगतिशील चेतना का स्वर मुखर करती हैं। सातवें दशक में ही सीआरबी ललित का काव्य संग्रह ‘उन्मुक्त स्वर’ (1965) शीर्षक से आया था। आठवें दशक में केशव  समकालीन कविता के क्षेत्र में ‘शहर का दुख’ (1971) शीर्षक कविता संग्रह से अपनी पहचान बनाते हैं। ‘अलगाव’ (1976), ‘एक सूनी यात्रा’ (1981) व ‘धूप के जल में’ (1989) केशव के अन्य काव्य संग्रह हैं। केशव की कविताएं व्यक्ति मन के अकेलेपन, अजनबीपन और संत्रास के साथ सामाजिक-राजनीतिक विकृतियों के यथार्थ को भी सामने लाती हैं। श्यामला में संग्रहीत कवि श्रीनिवास श्रीकांत का प्रथम काव्य संग्रह ‘नियति, इतिहास और जरायु’ (1978) है। इसके बाद सुदीर्घ  अंतराल के पश्चात ‘बात करती है हवा’ (2007), ‘घर एक यात्रा है’ (2008), ‘हर तरफ समंदर है’ (2010), ‘चट्टान पर लड़की’ (2012), ‘आदमी की दुनिया का दिन’ (2014), ‘महानगर एक मोंटाज’ (2017) काव्य संग्रह इक्कीसवीं शती के दो दशकों में प्रकाशित हुए। श्रीनिवास श्रीकांत की कविताओं का फलक नितांत  व्यापक है। युगीन यथार्थ, जीवनबोध और सामाजिक जीवन के संवेदनशील पक्षों को उन्होंने कविताओं के विविध इंद्रिय ग्राह्य बिंबों, प्रतीकों और मिथकों के माध्यम से मूर्तिमान किया है। उनकी कविता जहां जीवन की जड़ों से गहन रूप में संपृक्त है, वहीं दार्शनिक अंदाज में चिंतनपरक भी है।  ‘एक टुकड़ा धूप’ (1979) ओमप्रकाश सारस्वत का प्रथम काव्य संग्रह है। इस संग्रह की कविताएं मानव संबंधों की टूटन, मूल्यों के विघटन और हृास तथा नगरीय सभ्यता की अमानवीयता को उद्घाटित

करती हैं। ‘शब्दों के सम्पुट में’ (1990) और ‘दिन गुलाब होने दो’ उनके दो अन्य कविता संग्रह हैं। नौवें दशक में सतीश धर का ‘कल की बात’ (1981), सुदर्शन वशिष्ठ का ‘युग परिवर्तन’ (1982), गौतम व्यथित का ‘अनुभूति का दर्द’ (1982), महाराज कृष्ण काव  का ‘कहना आसान है’ (1983), ‘इक्ष्वाकु से’ (1985), अवतार सिंह एनगिल का ‘सूर्य से सूर्य तक’ (1983), ‘मलखान आएगा’ (1985), सीआरवी ललित का ‘प्रश्न चिन्हों के धुंधलके में’ (1985) और ‘प्रेरणा गीत’ कविता संग्रह प्रकाशित हुए। कुमार कृष्ण के ‘डरी हुई ज़मीन’ (1983), ‘पहाड़ पर बदलता मौसम’ (1984), ‘काठ पर चढ़ा लोहा’ (1985), ‘खुरो की तकलीफ’ (1987), ‘इस भयानक समय में’ (2016), ‘उम्मीद का पेड़’, ‘पक्षी की चोंच के दाने में उड़ रहा है गांव’ (2019) उनके काव्य संग्रह हैं। उनकी कविताओं में जहां ग्रामीण जीवन का विडंबनात्मक यथार्थ घनीभूत संवेदना के साथ मूर्तिमान है, वहां समसामयिक मनुष्य के अंतर्द्वंद्वों और संघर्षों की अनवरत गाथा भी है। समूची मानवता की पीड़ा को मूर्त करती हुई समकालीन समय की भयावहता को रेखांकित कर निराशा में नहीं डुबोती, अपितु भविष्य के लिए उम्मीद जगाती है। समकालीन कविता में कुमार कृष्ण की कविता  संवेदना और शिल्प की दृष्टि से निजी पहचान कायम कर नया आयाम प्रस्तुत करती है। बद्री सिंह भाटिया का ‘कंटीले तारों का घेरा’ (1983) एक संग्रह प्रकाशित है। सतीश धर के ‘कल की बात’ की कविताओं में व्यवस्था की विसंगतियों पर प्रहार है तो सुदर्शन वशिष्ठ के ‘युग परिवर्तन’ में व्यवस्था की विसंगतियों से उत्पन्न स्थितियों और जिंदगी के अभावों की सहज शैली में अभिव्यंजना है।

सामाजिक समस्याओं का कविता में चित्रण

गौतम व्यथित के ‘अनुभूति का दर्द’ में ग्रामीण जीवन के अनुभव, संघर्ष को गहन अनुभूतियों का विषय बनाया गया है। महाराज कृष्ण काव के ‘कहना आसान है’ और ‘इक्ष्वाकु से’ की कविताएं ईश्वर, छद्म क्रांतिकारिता, मानव अस्तित्व,  संघर्षरत मनुष्य आदि की सार्थक अभिव्यक्ति है। अवतार सिंह एनगिल के ‘सूर्य से सूर्य तक’ (1983) की कविताओं में एक शहर  की कहानी जैसी लंबी कविताएं हैं। ‘मलखान आएगा’ (1985), ‘अंधे कहार’ (1992), ‘तीन डग कविता’ (1995), ‘एक और दिन’ (2002) कविता संग्रह प्रकाश में आए हैं। उनकी कविताओं में सामान्य जन के प्रति पक्षधरता और प्रगतिशील चेतना परिलक्षित होती है। ‘अंधेरे से जूझते शब्द’ एवं ‘मेरे हिस्से की धूप’ (1982) जोगेश कौर के दो काव्य संग्रह हैं। उनकी कविताओं में प्रमुख रूप में परिवार और समाज में नारी की नियति से संबंधित समस्याओं का चित्रण है। ‘ढलान पर खुशबू’ (1983) संगीता श्री का प्रथम काव्य संग्रह है जिसमें उनकी कविताएं और ग़ज़लें प्रकाशित हैं। उनमें संबंधों के यथार्थ के साथ सामाजिक विसंगतियों के प्रति रचनात्मक संघर्ष है।

सातवें दशक से ही निरंतर काव्य सृजनरत अनिल राकेशी का प्रथम काव्य संग्रह 1984 में ‘बोधि सत्व सुनें’ शीर्षक से प्रकाश में आया। उनका दूसरा काव्य संग्रह ‘इन्द्रधनुषी गीत कोई’ (1986) है। ‘घायल घोड़े नीली धूप’ (1985) अमिताभ का प्रथम काव्य संग्रह हैं। उनकी कविताएं अपनी नवीन संवेदना भूमि और कथन की विशिष्ट भंगिमा के कारण आकर्षित करती हैं। शिवकुमार सूर्य के ‘उगी आंखों का दर्द’ (1986) की कविताएं आधुनिक युवा मानसिकता का साक्षात्कार करवाती हैं। तेज राम शर्मा के ‘धूप  की छाया’ (1984),  ‘बंदनवार’ (2000), ‘नहाए रोशनी में’ (2004), ‘नाटी का समय’ (2012), ‘कंप्यूटर पर बैठी लड़की’ (2016)  काव्य संग्रह प्रकाशित हैं। तेज राम शर्मा मूलतः ग्रामीण बोध के कवि हैं। ग्रामीण जीवन के अनुभवों को रूपायित करते हुए कवि ने मनुष्य के सार्वभौमिक सत्य उद्घाटित किए हैं।

तेज राम शर्मा की कविताएं अनेक प्रकार से पारिवारिक, सामाजिक और आधारभूत मानवीय सरोकारों को मूर्तिमान करती हैं। जगदीश शर्मा  के दो काव्य संग्रह  ‘दोषी और उजला वृत’ (1986) और ‘मां और द्वन्द्व’ (2019) प्रकाशित हैं। रेखा के ‘मेरे हिस्से की धूप’ (1984), ‘चिंदी चिंदी सुख’ (1987) और ‘विरासत सा कुछ’ (2012) काव्य संग्रह हैं। पारिवारिक जीवन की समस्याओं और नारी जीवन की नियति से संबंधित प्रश्नों को कविताओं में उठाया है। संसार चंद्र प्रभाकर ने ‘माया’, ‘सीता अग्नि’ और ‘प्रलय खंड’ काव्य के अतिरिक्त ‘मेरा देश मेरी धरती’, ‘देव धरती’ काव्य कृतियों का सृजन किया है। ‘बिखरे कण’, ‘कुंतली’ (1980), ‘अस्मिता’ (1983) शम्मी  शर्मा के तीन काव्य संग्रह भावपूर्ण विचारात्मक विषयों से संबद्ध हैं। प्रारंभिक कविताओं में छायावादी भाव बोध है। सुमन शेखर का प्रथम काव्य संग्रह ‘मुट्ठी भर धूप’ (1987) है।

इसके बाद ‘कल्पतरू बन जाना तुम’, ‘बहुत जरूरी है रोटी’ (2013), ‘गुम होती लड़कियां’ (2013), ‘ईश्वर सोचता है’ (2014) और ‘खुला दरवाजा’ (2015) संग्रह हैं। उनकी कविताएं व्यक्ति मन की अनुभूतियों की सूक्ष्म अभिव्यंजना के साथ सामाजिक विसंगतियों और विडंबनाओं को परत दर परत अनावृत करती  हैं। आर. वासुदेव प्रशांत नौवें दशक से निरंतर सृजनरत हंै। ‘शाख पर टंगा सत्य’ (1985), ‘ठिगना हो रहा आदमी’ और ‘है कोई आसपास’ उनके तीन काव्य संग्रह प्रकाशित हैं। प्रशांत की कविताओं में अपने आसपास के परिवेश में व्याप्त जीवन जगत के विविध रंग, आध्यात्मिक चिंतन और आधुनिक समाज की जरूरतों और विषमताओं का अंकन है। कांता शर्मा का ‘शब्दों के जाल में’, डीसी चाम्बियाल का ‘हिमपात’ (1984), मधुकर भारती का ‘शरद कामिनी’ (1985), इंदिरा कश्यप का ‘एक टुकड़ा आदमी’ (1984), अरविंद रंचन का ‘पोस्टर कन्या’ (1984), शरत का ‘मुक्त अधरों के कारावास’ (1986), ‘नाकाबंदी की बगावत’ (1993), ‘मुट्ठी भर संसार’ (2017), सुरेंद्र वर्मा  ‘तस्वीरें बोलती हैं’ (1985), यादवेंद्र शर्मा ‘किले में कैद होकर’ (1988), ‘सबसे सुंदर लड़कियां’ (2003) हैं। आरडी शर्मा भी काव्य क्षेत्र में निरंतर सृजनरत  हैं। ‘बर्फ का सूरज’, ‘बर्फ की महक’ (1985) व ‘बर्फ की सौंदर्य मुखी’ उनकी काव्य कृतियां हैं। हिमाचल के प्राकृतिक सौंदर्य, प्रेम और जीवन के विविध रंग उनकी कविताओं और ग़ज़लों में अनुभूत किए जा सकते हैं। तुलसी रमण के ‘ढलान पर आदमी’ (1986) और ‘पृथ्वी पर आंच’ (1991) हैं। रमेश चंद्र शर्मा के ‘निर्जीव चांदनी’ (1987), ‘एक स्वरता’ (1999) व ‘ईव’ (2013) तीन काव्य संग्रह प्रकाशित हैं। उनकी कविताओं में उनके काव्य विकास  के  पड़ाव अनुभूत किए जा सकते हैं। ‘ईव’ संग्रह की चार कविताएं 1947 और 1950 में लिखी गई हैं।

आत्मानुभूति से लेकर विचार प्रधान कविता तक की यात्रा रमेश चंद्र की कविताओं में विद्यमान है। अनुभूति की प्रतीक ‘ईव’ से लेकर जीवन की सांझ तक कविता यात्रा की संवेदना भूमि का वैविध्य और कलात्मक कौशल इनमें परिलक्षित होता है। आनंद बंसल का पहला कविता संग्रह ‘आग की गंध’ शीर्षक से सन् 1987 में प्रकाशित हुआ। ‘सुबह की तलाश’ (1988) भगवान देव चैतन्य का प्रथम काव्य संग्रह है जिसमें उनकी भाव धारा जीवन के कटु यथार्थ का साक्षात्कार करवाती है। शंकर लाल शर्मा का ‘कतरा कतरा सच’ (1987), तरसेम भारती के ‘बुरादे  में जलता जंगल’ (1986)  और ‘रंगों का इतिहास’ (1993), श्याम सिंह घुना का ‘कृपया मौन रहिए’, वेदप्रकाश अग्नि का ‘मिथ हुआ जा रहा’, देवेंद्र धर का ‘जमीन तलाशते शब्द’, मस्तराम शर्मा ‘पतझड़ के पत्ते’, ठाकुर दत्त शर्मा आलोक का ‘वीणा  के टूटे तार’, लक्ष्मण  का ‘शाख  दर शाख’, पीयूष गुलेरी का ‘गूंगा हृदय बहरी पीर’, सुरेंद्र नाथ वर्मा का ‘तस्वीरें बोलती हैं’, वरयाम सिंह का ‘हिमाचल समाचार और अन्य कविताएं’ व अमरदेव आंगिरस का ‘राष्ट्र अस्मिता’ आदि कुछ अन्य संग्रह हैं।

      -डा. हेमराज (अगले अंक में जारी)

मीटू के आईने में पुरुष विमर्श

राजेंद्र राजन, मो.-8219158269

विमर्श-1

समाज, मीडिया और राजनीति के गलियारों में दो साल पहले मीटू का अभियान एक ऐसे ज्वलंत विमर्श को समाने लाया जिस पर पूर्व में स्त्री समाज कमोबेश चुप्पी साधे रहता था। महिलाओं के यौन उत्पीड़न की कहानियों को मीडिया ने किसी सोप ओपेरा की तरह प्रस्तुत किया। हर वक्त सनसनी, विवाद की टोह में किसी आदमखोर शेर की मानिंद आंखें गड़ाए बैठे हमारे न्यूज चैनलों ने मीटू कैम्पेन से दो हित साधे। पहला, टीआरपी बढ़ाने की कवायद। दूसरा, यौन शोषण की पीडि़त महिलाओं की पक्षधरता को भुनाना। मगर इस बहस में एक सैलेक्टिव सा डिस्कोर्स सामने आया। मिडल क्लास की सतायी हुई औरतों ने तो चुप्पी साधे रखी। अलबता संभ्रांत व उच्च पदों पर आसीन दबंग दिखने वाली महिलाओं का दुस्साहस अवश्य सामने आया। ऐसी महिलाओं ने बेहिचक, बैखौफ अपनी पहचान छिपाए बिना उन पुरुषों को अनावृत किया जो कई साल पहले उनकी जिंदगी की फुलवारी में कांटे बो गए थे। जाहिर है उस वक्त पद, प्रतिष्ठा, कैरियर, समाज की मजबूरियां रही होंगी, तभी तो वे चुप रहीं। जब विदेश से भारत आए मीटू के ‘वायरस’ ने यहां की विवेकशील व बुद्धिमान महिलाओं पर आक्रमण किया तो बरसों से भीतर जमा ज्वालामुखी फूटा। ‘मीटू’ के रूप में उन्हें एक ऐसा हथियार मिला जहां से वे अपने-अपने संस्थानों, मीडिया हाऊसेज या बॉलीवुड में स्त्री देह के आदमखोर शेरों को नंगा कर सकीं।

मीडिया ने खूब मिर्च मसालों के साथ चटखारे ले-लेकर ऐसी कहानियों को पेश किया। एमजे अकबर जैसे पत्रकार, लेखक व नेता की नौकरी जाती रही तो बड़े मीडिया हाउस और फिल्मों में कुछ कलाकारों को शर्मनाक माहौल का सामना करना पड़ा। यह बात भी गौरतलब है कि बीस-बीस साल के लंबे अंतराल के बाद मीटू की बैसाखी के सहारे एक्टिविस्ट के रूप में अपने यौन शोषण की कहानियों को सार्वजनिक करने का क्या औचित्य हो सकता था? ऐसी तमाम कहानियां आमजन के मनोरंजन का ज़रिया बनीं। पुरुषों की ‘साइको पैथेटिक’ मानसिकता के चलते कार्यस्थलों में सहयोगी महिलाओं को शिकार बनाने के हथकंडों को पीडि़तों ने उस वक्त क्यों नहीं एक्सपोज़ किया जब वे उन संस्थानों में कार्यरत थीं? अगर उनके बॉस या दोस्त सैक्सुअल फेवरस की मांग कर रहे थे तो क्या उस वक्त वे मासूम थीं? उन्होंने क्योंकर पुरुषों की अवांछनीय हरकतों, मांगों का विरोध नहीं किया? उल्टे हालात से समझौता कर स्वयं को एक देह के रूप में ऐसे निर्मम पुरुषों के समक्ष प्रस्तुत कर दिया।

सामान्य सेक्स स्त्री-पुरुष की सहमति से ही संभव है, यह सर्वविदित सत्य है। दबाव में या जबरन सेक्स रेप की श्रेणी में आता है। सब जानते हैं कि मीटू अभियान में घी डालकर उसे भड़काने के लिए बेचैन महिलाओं का रेप तो नहीं हुआ था। वे सहमति से ही अपने कैरियर, पद, मान-सम्मान को सुरक्षित रखने के वास्ते ही पुरुषों के संपर्क में आई होंगी। वह सामान्य सेक्सुअल क्रिया या प्रक्रिया रही होगी। ऐसे में फिल्मी हस्तियों, मीडिया, मुगलस, बड़े संस्थानों में बड़े पदों पर बैठे पुरुषों की छवि को धूमिल कर उन्हें मानहानि के कगार पर पहुंचाना कहां तक उचित रहा होगा। यह बहस का मुद्दा बना ही रहेगा। बहरहाल मीटू की एकतरफा बहस के बीच मेरा ध्यान ‘नया ज्ञानोदय’ में प्रकाशित दो ऐसी कहानियों ने खींचा जिनमें महिलाएं पर पुरुषों के साथ सहवास के लिए व्यग्र हैं। लेकिन पुरुषों की अनिच्छा के अलावा ऐसे क्षणों में दार्शनिक हो जाना या फिर ऐसे संबंधों को परिभाषित करने के लिए नई से नई व्याख्याएं ढूंढना, ऐसी स्त्रियों के नाजुक पलों में भी अतृप्त रह जाने के कारण हैं।

इन कारणों की तलाश के लिए ये कहानियां एक ऐसा ‘डिस्कोर्स’ सामने लाती हैं जो अपनी सूक्ष्म व महीन रेशों के बीच फैली परतों में नए-नए अर्थ खोलती हैं। वैसे यह बात कितनी अस्वाभाविक सी लगती है कि अगर सौंदर्य की प्रतिमूर्ति कोई जवां, आकर्षक व दिलकश औरत स्वयं पुरुष को अपना सर्वस्व समर्पित करने के लिए राजी है तो आदमी भला क्यों मासूम बना रहेगा? ऐसी गोल्डन अपॉर्च्यूनिटी को कोई भी पुरुष हाथ से नहीं जाने देगा। भले उसके कोई भी परिणाम उसे क्यों न भुगतने पड़े? जिन दो कहानियों में हिंदी साहित्य में मीटू का विलोम शब्द रचने का प्रयास है, वे नासिक के कथाकार पराग मांदले और रांची की लेखिका महुआं माजी की कहानियां हैं। इनके प्रकाशन में 10 साल का अंतराल है। पुरुष के औरत के प्रति विकर्षण को महुआ ने 10 साल पहले ही भांप लिया था, तो पराग की यह कहानी नया ‘ज्ञानोदय’ के दिसंबर 2018 के  अंक में छपने के बाद देशभर में चर्चा के केंद्र में आई। पराग की कहानी का शीर्षक है ‘मुकम्मल नहीं, खूबसूरत सफर हो’। महुआं माजी की कहानी है ‘चिंद्रबिंदु’। जिस अंक में महुआं की कहानी छपी थी, वह प्रेम महाविशेषांक-3 था। कहते हैं इसकी बिक्री ‘हाट केक’ की तरह हुई थी।

-(शेष भाग अगले अंक में)

पुस्तक समीक्षा : पुस्तक के माध्यम से पंडित इंद्रपाल को आदरांजलि

हिमाचल के शिक्षाविद और साहित्यकार डा. ओपी शर्मा अपनी सातवीं पुस्तक ‘महान क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी ः पंडित इंद्रपाल’ के माध्यम से इस महान स्वतंत्रता सेनानी को आदरांजलि भेंट कर रहे हैं। यह पुस्तक पंडित इंद्रपाल के संस्मरणों पर शोध कार्य है। कुछ सामग्री रिश्तेदारों से तथा कुछ साहित्यिक गं्रथों से एकत्र कर यह रचना करने का प्रयास किया गया है। इसमें पंडित इंद्रपाल के स्वतंत्रता संग्राम में योगदान का पूरा ब्योरा दिया गया है।

इनका जन्म हमीरपुर के नादौन में पंडित हरिराम के घर पांच अप्रैल 1906 को हुआ था। वह जीवन भर देश की आजादी के लिए योगदान करते रहे। 30 जनवरी 1948 को जब महात्मा गांधी जी को गोली मार देने का समाचार उन्होंने सुना तो वह बेहोश हो गए। पैरालाइज हुआ, दिल्ली में एक महीना पीडि़त रहने के बाद 13 अप्रैल 1948 को वीरगति को प्राप्त हुए। 54 पृष्ठों वाली इस पुस्तक की कीमत 300 रुपए है, जिसके प्रकाशक हैं अभिनव प्रकाशन, नई दिल्ली। पंडित इंद्रपाल की कहानी के साथ-साथ किताब में कई ऐतिहासिक व बहुमूल्य चित्र भी संकलित किए गए हैं। आशा है पाठकों को यह पुस्तक बहुत पसंद आएगी।

-फीचर डेस्क


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App