मूर्तिपूजा से अनभिज्ञ

By: Jan 22nd, 2022 12:16 am

गतांक से आगे…
दुराग्रहपूर्ण सुधारों का परिणाम लक्ष्य हानि
संसार का इतिहास बताता है कि जहां कहीं ऐसे दुराग्रहपूर्ण सुधारों का प्रयास हुआ, उनका एकमेव परिणाम उनके अपने लक्ष्य की हानि में हुआ। अमरीका में दास प्रथा को समाप्त करने के लिए जो आंदोलन हुआ, न्याय और स्वतंत्रता की स्थापना के हेतु उससे भारी आंदोलन की कल्पना नहीं की जा सकती।  इस बारे में जानते हैं, किंतु उसके परिणाम क्या निकले? दास प्रथा उन्मूलन के पूर्व दासों की जो दशा थी, आज उससे सौ गुना खराब है। दास प्रथा उन्मूलन के पूर्व ये बेचारे नीग्रो लोग किसी न किसी निश्चित व्यक्ति की संपत्ति होते थे। उनकी काफी चिंता की जाती थी ताकि इस संपत्ति को कोई हानि न पहुंचे। किंतु आज वे किसी की भी संपत्ति नहीं हंै। उनके प्राणों का कोई मूल्य नहीं है। जरा-जरा से बहानों को लेकर उन्हें जीवित भून दिया जाता है। उन्हें बिना किसी कारण गोली मार दी जाती है, किंतु उनके हत्यारों के लिए कोई कानून नहीं है।

उन्हें मनुष्य ही नहीं समझा जाता, यहां तक कि पशु भी नहीं माना जाता, वे केवल काले आदमी हैं। यह फल निकला है किसी बुराई को कानून या कट्टरवादिता के साथ समाप्त करने का। भारत में मूर्तिपूजा का आरंभ सगुण ईश्वर की कल्पना के विरुद्ध गौतम बुद्ध के समस्त प्रहारों की प्रतिक्रिया स्वरूप हुआ। वेद मूर्तिपूजा से अनभिज्ञ हैं।  किंतु सृष्टि के नियंता एवं पालक के स्थान से ईश्वर को हटाने की प्रतिक्रिया स्वरूप महान आचार्यों एवं धर्म प्रर्वतकों की मूर्तियां बनना प्रारंभ हो गईं और बुद्ध स्वयं एक भगवान बन बैठे। आज भी लाखों मनुष्य उनकी इसी रूप में पूजा करते हैं। सुधार के उग्र प्रयास सदैव सच्चे सुधार को पीछे ढकेलने के कारण हैं। प्रत्येक कट्टरपंथी आंदोलन के विरुद्ध यही इतिहास की साक्षी है। भले ही उसका लक्ष्य कल्याण करना क्यों न रहा हो। जनता में सुधार की चाह कहां है? इसके साथ ही एक अन्य बात भी विचारणीय है। भारत की जनता को विरासत से प्राप्त आंतरिक ज्योति को प्रकाशित करने का अभी अवसर ही नहीं मिला। पश्चिम विगत कुछ शताब्दियों से व्यक्ति स्वातंत्र्र्य की ओर तेजी से बढ़ रहा है। भारत में राजा ही प्रत्येक बात का निर्णय करता था, कुलीनता से लेकर भक्ष्याभक्ष्य निर्णय तक। किंतु पाश्चात्य देशों में जनता स्वयं सब कुछ करती है। भारतवासियों में आत्मनिर्भरता की भावना तो दूर, अभी आत्मविश्वास भी रंचमात्र नहीं है। आत्मविश्वास जो कि वेदांत का मूलाधार है, अभी तक हमारे व्यवहार में लेशमात्र नहीं आया है। अतएव समाज सधार की संपर्ण समस्या यहां आकर कंेद्रित हो जाती है। सुधार चाहने वाले लोग कहां हंै? पहले उनका निर्माण करो। यदि सिर नहीं तो सिरदर्द कहां होगा? अत: जनता कहां है, इसका विचार करो। हमारा देश गहन तमस में समस्त संसार का भ्रमण कर मैने अनुभव किया है।     – क्रमश:


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