लोकसाहित्य और शिष्ट साहित्य का अंतर्संबंध

By: Jan 2nd, 2022 12:08 am

कविता एक सांस्कृतिक व सामाजिक प्रक्रिया है। इस अर्थ में कि कवि जाने-अनजाने, अपने हृदय में संचित, स्थिति, स्थान और समय की क्रिया-प्रतिक्रिया स्वरूप प्राप्त भाव-संवेदनाओं के साथ-साथ जीवन मूल्य भी प्रकट कर रहा होता है। और इस अर्थ में भी कि प्रतिभा व परंपरा के बोध से परिष्कृत भावों को अपनी सोच के धरातल से ऊपर उठाते हुए सर्वसामान्य की ज़मीन पर स्थापित कर रहा होता है। पाठक को अधिक मानवीय बनाते हुए और एक बेहतर समाज की अवधारणा देते हुए। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए रचनात्मकता का विश्लेषण और मूल्यांकन जरूरी है। यथार्थ के समग्र रूपों का आकलन आधारभूत प्राथमिकता है। यदि यह आधार खिसक गया तो कवि कर्म पर प्रश्न उठेंगे।…हिमाचल प्रदेश में कविता व ग़ज़ल की सार्थक तथा प्रभावी परंपरा रही है। उसी को प्रत्यक्ष-परोक्ष, हर दृष्टि और हर कोण से खंगालने की चेष्टा यह संवाद है।… कुछ विचार बिंदुओं पर सम्मानित कवियों व समालोचकों की ज़िरह, कुम्हार का चाक/छीलते काटते/जो घड़ दे एक आकार। ‘हिमाचल की हिंदी कविता के परिप्रेक्ष्य में’ शीर्षक के अंतर्गत महत्त्वपूर्ण विचार आप पढ़ेंगे। जिन साहित्यकारों ने आग्रह का मान रखा, उनके प्रति आभार। रचनाकारों के रचना-संग्रहों की अनुपलब्धता हमारी सीमा हो सकती है। कुछ नाम यदि छूटे हों तो अन्यथा न लें। यह एक प्रयास है, जो पूर्ण व अंतिम कदापि नहीं है। – अतिथि संपादक

अतिथि संपादक: चंद्ररेखा ढडवाल

मो.:  9418111108

हिमाचल की हिंदी कविता के परिप्रेक्ष्य में -16

विमर्श के बिंदु

  1. कविता के बीच हिमाचली संवेदना
  2. क्या सोशल मीडिया ने कवि को अनुभवहीन साबित किया
  3. भूमंडलीकरण से कहीं दूर पर्वत की ढलान पर कविता
  4. हिमाचली कविता में स्त्री
  5. कविता का उपभोग ज्यादा, साधना कम
  6. हिमाचल की कविता और कवि का राज्याश्रित होना
  7. कवि धैर्य का सोशल मीडिया द्वारा खंडित होना
  8. कवि के हिस्से का तूफान, कितना बाकी है
  9. हिमाचली कवयित्रियों का काल तथा स्त्री विमर्श
  10. प्रदेश में समकालीन सृजन की विधा में कविता
  11. कवि हृदय का हकीकत से संघर्ष
  12. अनुभव तथा ख्याति के बीच कविता का संसर्ग
  13. हिमाचली पाठ्यक्रम के कवि और कविता
  14. हिमाचली कविता का सांगोपांग वर्णन
  15. प्रदेश के साहित्यिक उत्थान में कविता संबोधन
  16. हिमाचली साहित्य में भाषाई प्रयोग (काव्य भाषा के प्रयोग)
  17. गीत कविताओं में बहती पर्वतीय आजादी

डा. गौतम शर्मा ‘व्यथित’, मो.-9418130860

लोकसाहित्य से अभिप्राय है लोक द्वारा रचित साहित्य जो मौखिक परंपरा में, मुख दर मुख परंपरित रहता है। इसमें लोकमानस की विद्यमानता रहती है, अतः इसके मूल स्वरूप में जुड़ने-घटने की प्रक्रिया भी अज्ञात रूप में रहती है। इसी कारण से एक ही लोक गीत या लोक कथा-गाथा, लोक नाट्य प्रस्तुति के अनेक रूपांतर भेद या पाठांतर भेद प्रचलित होते हैं। लोक शब्द को समझाते डा. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है, ‘लोक में ग्रामों और नगरों के वे समस्त निवासी आते हैं, जिनके व्यावहारिक ज्ञान का आधार अनुभव के अतिरिक्त दूसरा नहीं।’ अंग्रेजी में लोक (फोक) के बारे में इन्साइक्लोपीडिया ऑफ ब्रिटेनिका में उल्लेख है, ‘वह सामान्य जन जो नागरिक संस्कृति और साविध शिक्षा के प्रवाहों से परे है।’ हिंदी साहित्य कोष कहता है, ‘लोक समाज का वह वर्ग है, जो अभिजात्य संस्कार शास्त्रीयता और पांडित्य की चेतना और अहंकार से शून्य है, जो अपनी परंपरा प्रवाह में जीवित है।’

हिंदी साहित्य इतिहास के सोलह खंड नागरी प्रचारिणी सभा ने वाराणसी से प्रकाशित किए हैं, उनमें सोलहवां खंड लोकसाहित्य के संग्रह, संपादन, प्रकाशन पर केंद्रित है। यह स्वयं प्रमाणित करता है कि भारतीय लोकसाहित्य परंपरा के बिना हिंदी साहित्य की चर्चा निराधार है। इसी प्रकाशन के बाद भारतीय विश्वविद्यालयों के अंतर्गत हिंदी विभाग प्रादेशिक लोकसाहित्य के विभिन्न पक्षों पर शोध कार्य आरंभ हुए जो अद्यतन जारी हैं। लोक अनंत है, लोक असीम है। इसका भाव लोक परत दर परत निरंतर खुलता जाता है जिसके आगे विराम नहीं लगता। विश्वभर में जितने रूप लोक के हैं, उतने ही रूप हैं लोकसाहित्य के। लोक वाणी के भी उतने ही प्रकार। लोक संवेदना की भी उतनी ही व्यापकता, विविधता। लोक की भाषा ही लोक भाषा है। लोक भाषा में ही अभिव्यक्त हैं, समाहित हैं संपूर्ण लोक की सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, धार्मिक संवेदनाएं। उन्हें ही वाणी देता है लोकसाहित्य लोक भाषा के बहुरंगी रूप-स्वरूप में।

अनाम अथवा इसके रचयिता का नाम ज्ञात न होने के कारण इसकी प्रकृति परिवर्तनशील है जिससे इसका संवर्द्धन होता रहता है। इसके अनेक पाठांतर भेद मिलते हैं, इसी कारण, क्योंकि यह अप्रकाशित होता है। प्रकाशित हो भी कैसे सकता था जबकि भारत में मुद्रण यंत्र या मुद्रणालय का इतिहास भी तो वैंकटेश्वर प्रेस बम्बई से शुरू होता है। अतः पूर्वकालीन साहित्य का स्वरूप मौखिक होना स्वाभाविक है। हिंदी साहित्य इतिहास पर दृष्टि डालें तो आदिकालीन, मध्यकालीन, रीतिकालीन साहित्य अधिकांशतः मौखिक परंपरा में रहा जिसे ‘लोक’ ने स्मृति माध्यम से प्रचारित-संवर्द्धित, संरक्षित किया है। मुद्रित साहित्य तो भारतेंदु काल अर्थात आधुनिक युग से ही दिखता है। पूर्वकालीन साहित्य पांडुलिपि और मौखिक (स्मृति) रूप में ही संरक्षित रहा। यह मानना सही होगा कि जीवन की सूक्ष्मतम संवेदनाओं, प्रकार्यों का प्रयोग मिलता है लोकसाहित्य में। जहां इतिहास मौन हो जाता है, वहां लोकसाहित्य सहायक बनता है।

जहां शिष्ट भाषा असमर्थ हो जाती है, वहां लोक भाषा ही अभिव्यक्ति निरंतरता में सहायक होती है। इसके विपरीत शिष्ट साहित्य लिपिबद्ध, कलमबद्ध या रचित होता है। यह विशेष स्थिति, वातावरण, सृजन सामग्री की अपेक्षा करता है। चिंतन की एकाग्रता के साथ। परिश्रम साध्य है, सायासिक है। लोक मानस की विद्यमानता या अभिव्यक्ति होना, न होना ही दोनों साहित्य रूपों में भेद रेखा है। मनोविज्ञान में मानस चेतन, अवचेतन तथा अर्द्धचेतन माना गया है। विद्वानों का मत है कि उत्तराधिकारेय मानस या सहज मानस ही लोक मानस है।

शिष्ट साहित्य उपार्जित अवचेतन मानस की अभिव्यक्ति है और लोकसाहित्य सहज अवचेतन मानस की। दूसरे शब्दों में उत्तराधिकारेय अवचेतन मानस या लोक मानस की। लोक मानस की अभिव्यक्ति जहां जिस परिमाण में मिलती है, वहां उसी मात्रा में लोक तत्त्व विद्यमान रहता है। यही लोकसाहित्य की उपादेयता बढ़ाता है। शिष्ट साहित्य की अंतर रेखा है। यदि शिष्ट साहित्य का गंभीरता से अध्ययन-मनन करें तो उसमें भी लोक तत्त्व सर्वत्र देखने को मिलता है। सूर, तुलसी, कबीर, विद्यापति आदि कवियों का साहित्य लोक तत्त्व पूर्ण है। लोक तत्त्व के कारण ही उनका साहित्य आज भी मौखिक परंपरा में सुनने को मिलता है। लोक मानस के कारण ही वह हृदयग्राही और श्रवणप्रिय है। जिस साहित्य में लोक तत्त्व कम या बिल्कुल नहीं होता, वह शिष्ट साहित्य है। रचयिता की दृष्टि से लोकसाहित्य तो लोक मानस की रचना है और शिष्ट साहित्य मुनि मानस की। शिष्ट समाज की जीवन पद्धति शिष्ट साहित्य में प्रतिबिंबित होती है। लोक की मर्यादाएं ही लोकसाहित्य है। लोकसाहित्य में लोक जीवन की वाणीगत समस्त अभिव्यक्तियां समाहित होती हैं। कथ्य और शिल्प दोनों दृष्टियों से लोकसाहित्य शिष्ट या कलात्मक साहित्य से भिन्न होता है। शिष्ट साहित्य विशेष वातावरण में ज्ञानार्जन की परंपरा से गुजरता है। अनेक भाषा-साहित्य और भाषा-शैलियों से परिचित होता है। वह जीवन में व्यक्ति के सरोकारों की तलाश करता है, उन्हें अपने साहित्य का आधार बनाता है। अपने कथ्य-शिल्प कौशल से नए आयाम देता है। प्रयासजन्य होता है।

अध्ययन और अनुभूति का संश्लिष्ट रूप भी है। नैसर्गिक नहीं। इतने विमर्श के बाद भी प्रश्न उठता है कि क्या शिष्ट साहित्य की रचनात्मक प्रक्रिया में लोकसाहित्य की कोई भूमिका रहती है अथवा नहीं? इसका उत्तर पाने के लिए हमें हिंदी साहित्य इतिहास को खंगालना होगा। हमें उत्तर मिलता है कि हिंदी साहित्य का आदिकाल जिसे वीरकाल, चारणकाल भी कहा है, तत्कालीन ऐतिहासिक प्रभावित होने पर भी लोक तत्त्व से पूर्ण है।

रासो साहित्य में प्रयुक्त छंद लोक से ग्रहीत हैं। लोक प्रचलित हैं। भारत के प्रत्येक जनपद में जितने भी लोक गान प्रचलित हैं, उनकी विशेष धुनें हैं। जो विसर्गसिद्ध हैं। इन्हीं लोक धुनों में भारतीय शास्त्रीय संगीत का प्रत्येक राग छिपा है। लोक संगीत तो लोक संबंधों का संगीतमयी इतिहास है। ‘शास्त्रीय संगीत का विकास निश्चित रूप से लोक धुनों पर आधारित है।’ ऐसा विद्वानों का मत है। भारत के हर जनपद की विशेष गान पद्धति है और उसी पर उसका नामकरण है। यथा, हिमाचली लोक संगीत, पंजाबी, हरियाणवी, राजस्थानी, गढ़वाली, नेपाली संगीत आदि।

मध्यकालीन हिंदी साहित्य अर्थात संत साहित्य। सूरदास, तुलसीदास, मीरा, कबीर, विद्यापति आदि संतों द्वारा रचित साहित्य भी लोक तत्त्व से भरपूर है। संत साहित्य की लोकप्रियता का मुख्य कारण ही उसमें लोक तत्त्व की प्रधानता है। उस काल के साहित्य में लोक छंदों- सोहर, विरहा, लोरी, झूमर, सावन, फगुआ, बरवै, दोहा, चौपाई, छप्पय, कवित, सवैया, रोला आदि लोक छंदों का ही तो प्रयोग हुआ है। इसी कारण आज भी लोक में परंपरित है संत वाणी। रागों के नाम इन्हीं छंदों, लोक धुनों के आधार पर दिए गए हैं।

लोक गीतों की लोक धुनें ख्याल, लावनी, दादरा, कहरवा, झूलना, कजली, रसिया,गज़ल, चब्बोला, खेमरा, कव्वाली आदि लोक ध्वनियां अद्यतन प्रयुक्त होती आ रही हैं। राग जै जै बन्ती, पीलू, तिलक कमोंद, बसंत, खमाज, देश, विरहा आदि राग लोक मनोभूमि से ही विकसित हुए हैं, ऐसा विद्वानों ने माना है। ऊपर गिनाई गई लोक धुनों का प्रयोग रीतिकालीन साहित्य में भी छंदमुक्त-छंदबद्ध पद्य शैलियों में दृष्टव्य है। आधुनिक काल में भारतेंदु युगीन कवियों ने लोक धुनों के प्रयोग किए हैं। उन्होंने ख्याल, लावनी, कजली लोक धुनों पर अनेक गीतों की रचना की है। प्रसाद, निराला आदि कवियों के कुछ गीतों में लावनी, रसिया, खेमटा लोक धुनों-शैलियों का संुदर समन्वय मिलता है। इसी परंपरा में बच्चन, नीरज, भवानी प्रसाद मिश्र, शमशेर, सुमन, गिरिजा कुमार माथुर आदि ने लोक धुनों पर आधारित संगीत प्रधान गीतों की रचना की है। आधुनिक काल का कथा साहित्य तो लोक तत्त्वपूर्ण है।

मुंशी प्रेमचंद की कहानियां, उपन्यास, चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानियां इस तत्त्व से अछूती नहीं। प्रयोगवादी साहित्य तथा साठोत्तरी साहित्य तो पूर्णरूपेण ग्राम्य भाषा, भाव तत्त्वों में अपनी सृजन भूमि की तलाश करता मिलता है। आज धीरे-धीरे शिष्ट साहित्य आम आदमी (लोक) के जीवन की विविधता, उसके अभाव और संत्रास को वाणी देने हेतु लालायित है। आज वही साहित्य लोकप्रिय है जो नगर की गलियों से निकलकर ग्राम पथ वीथिकाओं में आम आदमी की जिंदगी को तलाश करता उसे उसी की भाषा-शैली में व्याख्यायित कर रहा है। संक्षेप में सिनेमा-संगीत की बात भी करना हितकर होगा। सिनेमा पटकथाओं में भी लोक तत्त्व युक्त कथा-कहानियों, दृश्यों का भरपूर प्रयोग हो रहा है।

अभिनय में भी लोक तत्त्व को समाहित किया जा रहा है। लोक विसंगतियों को दर्शाती फिल्में ही अधिक लोकप्रिय हो रही हैं। सिने-संगीत में लोक धुनों को लेकर नित्य नए प्रयोग हो रहे हैं। आज वही गीत ज्यादा पापुलर हो रहे हैं जो लोक धुनों पर आधारित हैं। हिंदी नाट्य साहित्य भी, लोकसाहित्य के रूप लोक नाट्य शैलियों से, पर्याप्त मात्रा में प्रभावित हुआ है। इस दिशा में भारतेंदु हरिश्चंद्र का ‘अंधेर नगरी’ उद्वरणीय है। कालांतर में भी हिंदी नाटककारों ने लोक नाट्य शैलियों, लोक नाट्य गायन पद्धतियों-छंदों का प्रयोग हिंदी नाटक लेखन-सृजन में किया है।

समग्रतः यह कहना-मानना अत्युक्ति न होगा कि लोकसाहित्य ने शिष्ट साहित्य को भाव, छंद, अभिव्यक्ति से समृद्ध किया है। शिष्ट साहित्य का उद्देश्य आचार्य मम्मट की दृष्टि में- ‘काव्यं यशसे अर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये’ है, परंतु लोकसाहित्य इससे कोसों दूर है। इसमें तो लोक मानस की स्वाभाविक अभिव्यक्ति ही प्रधान रहती है। जीवन की आवश्यकता की अनुकूलता ही लोकसाहित्य का एक और प्रमुख तत्त्व है। इस तत्त्व के कारण तथा लोक मानस की युगीन स्थिति के अद्यतन रूप के कारण लोकसाहित्य शिष्ट साहित्य से अलग हो जाता है।

लोकसाहित्य को जीवन के यथार्थ सपंदनों से ही प्रेरणा मिलती है। इसमें लाभ-हानि, यश-अपयश, उपयोगिता-अनुपयोगिता आदि का प्रश्न ही नहीं रहता। इसमें न भाषा का पांडित्य है, न कल्पना की कलाबाजियां, बल्कि जीवन की सहजता की सहज अभिव्यक्ति ही होती है। उपर्युक्त दोनों साहित्य रूपों में हम अंतर मानते हुए भी इनके पारस्परिक अंतर्संबंधों की घष्ठिता से इंकार नहीं कर सकते। दोनों अलग होते हुए भी एक-दूसरे के पूरक हैं। विशेषकर शिष्ट साहित्य ने लोकसाहित्य से स्वयं को समृद्ध करने हेतु अनेक दिशाएं ढूंढी हैं, ग्रहण की हैं, निःसंदेह। यह प्रक्रिया निरंतर जारी है।

-डा. गौतम शर्मा ‘व्यथित’


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