यूरोपीय यात्री-लेखकों की नज़र में हिमाचल

By: Mar 27th, 2022 12:06 am

साहित्य की निगाह और पनाह में परिवेश की व्याख्या सदा हुई, फिर भी लेखन की उर्वरता को किसी भूखंड तक सीमित नहीं किया जा सकता। पर्वतीय राज्य हिमाचल की लेखन परंपराओं ने ऐसे संदर्भ पुष्ट किए हैं, जहां चंद्रधर शर्मा गुलेरी, यशपाल, निर्मल वर्मा या रस्किन बांड सरीखे साहित्यकारों ने साहित्य के कैनवास को बड़ा किया है, तो राहुल सांकृत्यायन ने सांस्कृतिक लेखन की पगडंडियों पर चलते हुए प्रदेश को राष्ट्र की विशालता से जोड़ दिया। हिमाचल में रचित या हिमाचल के लिए रचित साहित्य की खुशबू, तड़प और ऊर्जा को छूने की एक कोशिश वर्तमान शृंाखला में कर रहे हैं। उम्मीद है पूर्व की तरह यह सीरीज भी छात्रों-शोधार्थियों के लिए लाभकारी होगी…

अतिथि संपादक

डा. सुशील कुमार फुल्ल, मो.-9418080088

हिमाचल रचित साहित्य -7

विमर्श के बिंदु

  1. साहित्य सृजन की पृष्ठभूमि में हिमाचल
  2. ब्रिटिश काल में शिमला ने पैदा किया साहित्य
  3. रस्किन बांड के संदर्भों में कसौली ने लिखा
  4. लेखक गृहों में रचा गया साहित्य
  5. हिमाचल की यादों में रचे-बसे लेखक-साहित्यकार
  6. हिमाचल पहुंचे लेखक यात्री
  7. अतीत के पन्नों में हिमाचल का उल्लेख
  8. हिमाचल से जुड़े नामी साहित्यकार
  9. यशपाल के साहित्य में हिमाचल के रिश्ते
  10. लालटीन की छत से निर्मल वर्मा की यादें
  11. चंद्रधर शर्मा गुलेरी की विरासत में

सुदर्शन वशिष्ठ, मो.-9418085595

पर्वतीय क्षेत्रों पर यूरोपीय विद्वानों ने इतना लिखा है कि उसे धर्मकांटे पर तौलने में भी समय लगेगा। एक किताब उठाने के लिए हाथों में ताकत चाहिए। यदि छूट कर पैरों के ऊपर गिर जाए तो फ्रेक्चर हो सकता है। इधर इन ग्रंथों के संकलन या रिपिं्रट सबसे पहले शायद भाषा विभाग पंजाब ने करवाए थे। बहुत साल पहले की बात है, विश्व पुस्तक मेले में भाषा विभाग पंजाब ने ऐसी पुस्तकों की सस्ते में सेल लगा रखी थी।  बहुत से ग्रंथ चूहों ने कुतर रखे थे। तब मुझे बहुत सारी ऐसी किताबें सस्ते में मिलीं जिनमें एच. ए. रोज़ द्वारा संपादित पंजाब की 1883 की सेंसिज रिपोर्ट भी थी जिसकी चौड़े आकार में एक वोल्यूम की पृष्ठ संख्या 923 से अधिक है। भारी वोल्यूम होने से कुछ ही किताबें उठा पाया। भाषा हो या संस्कृति, इतिहास हो या भूगोल, जीव विज्ञान हो, वनस्पति विज्ञान हो या भूविज्ञान, यूरोपियन रचनाकारों की कोई न कोई पुस्तक मिल ही जाती है। ये पुस्तकें बहुत भारी ग्रंथों के रूप में उपलब्ध हैं जो एकदम तथ्यपरक, तार्किक और ज़मीनी जानकारी प्रदान करती हैं। स्टेट गजेटियर पुरातन इतिहास व संस्कृति को जानने का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत रहा है। आज भी हम गजेटियर से ही नकल मारते हैं। हिमाचल में भी ‘स्टेट गजेटियर विभाग’ था।

संभवतः अंतिम गजेटियर नेगी जी ने तैयार किया। बाद में ऐसी परंपरा बनी कि मुख्यमंत्री के निजी सचिव, जो आई. ए. एस. होते थे, सरकार बदलते ही सचिवालय से बाहर करने के लिए स्टेट गजेटियर के निदेशक बनाए जाने लगे। पहला आदेश इसी पद का निकलता। यह पद सजायाफ्ता अधिकारियों के लिए मार्क कर दिया गया। तंग आने पर किसी को सूझी कि क्यों न इसे ख़त्म ही कर दिया जाए। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। अतः पहले इसे भाषा-संस्कृति विभाग में मर्ज कर दिया गया। एक पुरानी सी गाड़ी और पांच साल अधिकारी या कर्मचारी शेष बचे थे तब तक जो अपनी रिटायरमेंट की बाट जोह रहे थे। कुछ समय बाद यह विभाग लुप्त हो गया। अब मुख्यमंत्री के निजी सचिव सरकार बदलने पर सजा के तौर पर भाषा-संस्कृति विभाग में सचिव लगाए जाने लगे।

अंग्रेजी राज के समय जितने डी. सी. या कलैक्टर होते थे, उन्हें अपने क्षेत्र की एक रिपोर्ट तैयार करनी होती थी जिसमें वहां के इतिहास, संस्कृति का सटीक लेखा-जोखा रहता। अब यह परंपरा है या नहीं, ज्ञात नहीं। ऐसी एक महत्त्वपूर्ण रिपोर्ट कुल्लू के असिस्टेंट कमिशनर ए. एफ. पी. हारकोट द्वारा लिखी ‘‘हिमालयन डिस्ट्रिक्ट्स ऑफ कुल्लू, लाहौल एंड स्पीति’’ है जिसका प्रकाशन लंदन से सन् 1871 में हुआ। यही नहीं, हारकोट ने कुल्लू का इतिहास भी लिख रखा था जिसे वे प्रकाशित नहीं कर सके और यह सामग्री उन्होंने हचिसन वोगल को दी। हचिसन वोगल ने ‘‘हिस्ट्री ऑफ पंजाब हिल्ज स्टेट्स’ (पृष्ठ 414, रिप्रिंट भाषा-संस्कृति विभाग) में बड़ी ईमानदारी से लिखा है ‘‘दिवंगत कर्नल (तब कैप्टन) हारकोट ने पहली बार वंशावली की ओर अपनी पुस्तक में ध्यान दिलाया….वे कुल्लू का इतिहास लिखना चाहते थे जिसके लिए उन्होंने बहुत सी सामग्री इकट्ठी कर रखी थी। यद्यपि वे ऐसा कर नहीं पाए और अपनी मृत्यु से पहले पूरी पांडुलिपि हमे सौंप दी। कर्नल हारकोट के प्रति हम विशेष ऋणी हैं जिसका हम आभार प्रकट करते हैं।’’ उक्त तथ्य से स्पष्ट है कि सूचना देने वाले व्यक्तियों का नाम देना, उनका आभार प्रकट करना यूरोपियनों के शोध की विशिष्टता रही है। साथ ही प्रामाणिकता इनकी कृतियों का मुख्य गुण है। अपने इतिहास, पुरातत्व, विभिन्न वर्गों, जातियों, उपजातियों, जन जीवन, सामाजिक व्यवस्था का जितना प्रामाणिक विवरण हमें यूरोपियन विद्वानों से मिलता है, उतना किसी और स्रोत से नहीं। इन कृतियों के रचनाकार चाहे शासक रहे हों, शोधकर्ता रहे हों, खोजी यात्री रहे हों, अपने अतीत को हम इनके माध्यम से देखते हैं। बाहरी व्यक्ति होने के कारण भी इनकी किसी व्यक्ति या वर्ग से आसक्ति नहीं थी। यूरोपीय विद्वानों से पहले कुछ अन्य यात्रियों पर भी बात की जा सकती है जो भारत में यात्री बन कर आए, किंतु उन्होंने यहां की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक व्यवस्था की भी व्याख्या की।

यूरोपीय यात्रियों के आगमन से पहले देखें तो ह्यून सांग ने भारत भ्रमण के समय (630-644 ईस्वी) त्रिगर्त में पचास बौद्ध मठ और दो हजार भिक्षु देखे। कुल्लूत मंे बीस बौद्ध मठ और घाटी के बीचोंबीच एक स्तूप था। कुशाण काल के खनियारा में ब्राह्मी खरोष्ठी के लेख, पठियार के लेख के अलावा चैतड़ू में कनिष्क काल में एक चैत्य होने की पुष्टि इतिहासकारों ने की है जहां अब भी एक पाषाण बौद्ध प्रतिमा है। मुगल इतिहासकारों ने भी भारत पर बहुत लिखा। महमूद गज़नवी के कांगड़ा किले पर हमले के समय इतिहासकार उतबी तथा फरिश्ता ने विवरण लिखे हैं। उतबी की ‘तारीख़-ए-यामिनी’ तथा फरिश्ता ने कांगड़ा किले की लूटपाट का वर्णन किया है। फरिश्ता ने लिखा है ‘‘भीम किला से 7,00,000 सोने के दीनार, 700 मन सोना तथा चांदी, 200 मन शुद्ध सोना, 2000 मन चांदी तथा हीरे-मोती जवाहरात महमूद द्वारा लूट कर गज़नी ले जाए गए।’’ कनिंघम ने केवल सिक्कों की कीमत 17,50,000 पौंड से ऊपर आंकी, सोने-चांदी का तो हिसाब ही न था। सन् 1572 में अकबर ने पंजाब के वायसराय ख़ान जहां हुसैन कुलीख़ान को नगरकोट किला फतह करने के लिए भेजा जिसका वर्णन ‘तबकात-ए-अकबरी’ में किया गया है। ‘मुआसिर-उल-उमरा’ में किले की घेरेबंदी का उल्लेख मिलता है। ‘तबकात-ए-अकबरी’ में लिखा है ः ‘‘इस संघर्ष के दौरान लगभग 200 काली गौएं, जो हिंदुओं की थीं, मंदिर में शरण लेने आ गई थीं। कुछ कट्टर तुर्की लोगों ने, जब बाण तथा गोलियों की वर्षा हो रही थी, उन सभी गौओं को एक-एक कर मार दिया। फिर अपने बूट उतार कर उनमें ख़ून भरा और मंदिर की छत और दीवारों पर फेंक दिया।’’

मुगल बादशाहों के साथ कुछ लेखक या इतिहासकार चले रहते थे जो उनकी रोज़मर्रा की जि़ंदगी व युद्धों के वर्णन लिखा करते थे। कुछ ऐसा इतिहास आत्मकथात्मक शैली में भी मिलता है जैसे बादशाह ने खुद ही अपनी आत्मकथा लिखी हो। शाहजहां के समय लिखे ‘मुआसिर-उल-उमरा’ और ‘शाह फतेह-ई-कांगड़ा’ में कांगड़ा किले के बारे में विवरण मिलते हैं। ‘वाक्यात-ए-जहांगिरी’ में जहांगीर के कांगड़ा किले में आने का वर्णन किया गया है। इसके बाद के समय के वर्णन ‘तारीख़-ए-पंजाब’ में मिलते हैं।

हिमालय की जानकारी देने वाले लेखक

कांगड़ा का उल्लेख करने वाला सबसे पहला यूरोपीय यात्री फिंच (1611) था जो संभवतः कांगड़ा आया नहीं। थॉमस कोयार्ट पहला यूरोपीय यात्री था जो सन् 1615 में कांगड़ा आया। सन् 1666 में थैवनाट तथा सन् 1835 में विगने आया। सन् 1783 में फोर्स्टर और 1820 में मूरक्राफ्ट। इन्होंने कांगड़ा किला, शहर, मंदिर आदि के विवरण लिखे हैं। बैजनाथ मंदिर का उल्लेख फरगुसन, सर ऑरेल स्टेन, फलीट, कनिंघम जैसे पुरातत्ववेत्ताओं ने किया है। कनिंघम ने ‘एंशिएंट ज्योग्राफी ऑफ इंडिया’ (पृष्ठ 143-44) तथा ‘आर्कियोलोजिकल सर्वे रिपोर्ट’ (पांच, चौदह) में जालंधर डिविजन के अंतर्गत कांगड़ा का उल्लेख किया है। इनके बाद बारनेस का नाम आता है।

वोगल, जे. पी. एच. द्वारा ‘एंटिक्यूटीज़ ऑफ चंबा स्टेट’ (1911) जैसे बृहत् ग्रंथ में इस पूरे भूभाग की दुलर्भ मूर्तियों, शिलालेखों का विस्तृत वर्णन मिलता है। इस महत्त्वपूर्ण जानकारी को पढ़कर मैं चंबा से मणिमहेश यात्रा पर जा रहा था तो शिव मंदिर हड़सर में मूर्ति देखी जिसका वर्णन इस पुस्तक में किया गया था। वोगल ने पुस्तक मंे लेख का उद्धरण दिया था ः ‘‘ओं श्री संवत् 58 जेष्ठ प्रविष्टे 14 भगस्याणि नथ रे पुत्रे गंगे-ए तथा किस्नूए। एक महादेव अडसरे थाप्या।’’ जब भीतर जाकर गौर से देखा तो मूर्ति के आधार में कलाकार हाकम का नाम लिखा था ः ‘‘इस मूर्ति का निर्माण हड़सर के पुजारियों द्वारा 30.3.94 को किया गया, मूर्तिकार हाकम सिंह।’’ पुजारी से पूछा तो पता पुरानी मूर्ति तो चोरी हो गई। एक और बनवाई, वह भी चोरी हो गई। यह तीसरी मूर्ति चंबा के कलाकार हाकम से बनवाई गई है। एक पांगी गया तो साच दर्रे के दूसरी ओर लगभग दस किलोमीटर पर सेहली पनघट शिलालेख देखने का अवसर मिला। वोगल ने भी  उस समय शिलाओं के टुकड़े ढूंढ कर सहारे से खड़े किए थे। इस महत्त्वपूर्ण शिलालेख में अद्भुत मूर्तियां उकेरी गई हैं। शिव, नंदी, स्कंद, कार्तकेय की अद्भुत मूर्तियां जिनका कार्यकाल  ललितवर्मन के समय लगभग 1170 माना गया। उस समय ही ये महत्त्वपूर्ण शिलालेख टूटा हुआ पड़ा था। अब पता नहीं क्या स्थिति होगी! इस तरह न जाने पांगी की कितनी मूर्तियां बदल दी गई हैं, कितने पनघट शिलालेख टूट  गए हैं। ऐसा सर्वे दोबारा होना तो दूर रहा, जो उसमें उल्लेख है, वह कितना शेष है, यह भी अब कोई नहीं बता पाया। ग्रियर्सन के ‘लिंग्यूस्टिक सर्वे’ की बात करें तो भारतीय भाषाओं का इतना विस्तृत सर्वेक्षण उसके बाद नहीं हो पाया। इस सर्वेक्षण में इधर की समस्त पहाड़ी बोलियों का विषद विवेचन मिलता है।

हचिसन वोगल ‘हिस्ट्री ऑफ पंजाब हिल्ज स्टेट्स’ लिख गए। यहां के इतिहास उसी को बिना कन्फर्म किए उतारे जा रहे हैं। टूची ने ‘टेंपल्ज ऑफ वेस्ट्रन हिमालय एंड देयर आर्टिस्टिक सिम्बोलिज़्म’ नामक एक बहुत बड़ी पुस्तक लिखी जिससे बौद्ध गोंपाओं का पता चलता है। इन नामों में एलेस्जेंडर कनिंघम एक बहुत महत्त्वपूर्ण नाम है जिन्होंने सन् 1881 तथा 1884 में सिक्कों पर महत्त्वपूर्ण जानकारी देने के साथ ‘आर्कियोलोजिकल सर्वे रिपोर्ट्स’ प्रकाशित की। हचिसन वोगल की ‘हिस्ट्री ऑफ पंजाब हिल्ज स्टेट्स’ और बक एडवर्ड की ‘शिमला पास्ट एंड प्रेजेंट’ पर न जाने कितने ही लेखकों ने अपनी हिमाचल के इतिहास और शिमला पर किताबंे रच डालीं। फेंके (1909) ने ताबो मठ में पांच फुट ऊंचे पांडुलिपियों के दो ढेरों का उल्लेख किया है। इसी तरह टूची (1933) ने भी ताबो प्रज्ञापारमिता के कितने ही खुले पृष्ठ देखे। टूची ने ‘द टेम्पल्ज ऑफ वेस्ट्रन तिब्बत एंड देयर सिम्बोलिज़म’ में महत्त्वपूर्ण ताबो लेख अनुवाद सहित दिया है जो एक अति महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है।

रोसर ने मलाणा पर शोध किया और उस समय मंे फिल्म बनाई जब वहां पहुंच पाना ही अति दुष्कर कार्य था। हंगरी के विद्वान अलेक्जेंडर चोमो द कोरोस ने किन्नौर के कानम मठ में रहकर शब्दकोष निर्माण किया जिसे मूरक्राफ्ट ने तिब्बती सीखने के लिए भेजा था। तिब्बती-अंग्रेजी का यह शब्दकोष 1834 में पूरा हुआ। फोस्टर सन् 1783 में बिलासपुर से नूरपुर होता हुआ जम्मू गया। उसने कांगड़ा किले की घेराबंदी का उल्लेख किया है। ग्रिफिन एल. एंड मैसी (चीफ्ज एंड फेमिलीज़ ऑफ पॉर्थ इन पंजाब), बक एडवर्ड, जे. (शिमला पास्ट एंड प्रेजेंट), मूरक्राफ्ट (ट्रेवल्ज़ इन हिमालयन प्रोविंसिज ः 1832), जेरार्ड अलेक्जेंडर (हिमालय माउंटेंज ः1840), हरमन गोट्ज (अरली वुडन टेम्पल्ज ऑफ चंबा ः1955), जे. एफ. फ्लीट, ऑर्चर, जे. कैलवट (कुल्लू), जेम्स बेली फ्रेज़र, कैप्टन रॉस, द्यूस्तर (कनावर), बर्नियर रोनाल्ड आदि कितने ही ऑर्थर हैं जिन्होंने हिमालय और हिमाचल की प्रामाणिक जानकारी दी है। फलीट ने ‘निरमंड ताम्रपत्र’ पर प्रकाश डाला है तो बर्नियर रोनाल्ड इस क्षेत्र के टावरनुमा मंदिरों या किलों पर लिखते हैं।

मूरक्राफ्ट ने राजा संसार चंद के बारे में बहुत दिलचस्प जानकारी दी है। जब मुरक्राफ्ट वहां आया तो संसार चंद का भाई फतेह चंद इतना बीमार था कि उसके अंतिम संस्कार की तैयारियां चल रही थी। मूरक्राफ्ट ने दवाइयां देकर उसे मौत के मुंह से बचा लिया जिसके लिए राजा ने उसका बहुत आभार प्रकट किया। लगभग 54 वर्षीय राजा लंबा, ऊंचा व्यक्ति था। राजा के पूरे परिवार और दिनचर्या का वर्णन भी मूरक्राफ्ट ने किया है। मूरक्राफ्ट ने लिखा है ः ‘‘संसार चंद प्रातःकाल पूजापाठ में बिताता था। दस बजे से दोपहर तक दरबार लगाता था…संसार चंद के यहां कई कलाकार रहते थे। राजा अधिकांश सुजानपुर व आलमपुर में रहता था जहां बाग में छोटे भवनों में दरबार लगता था और बड़े भवनों में जनाना रहती थीं। टिहरा के महल राजा ने रणजीत सिंह द्वारा हथियाने की आशंका से छोड़ दिए थे।’’ विगने ने 1835 में अनिरुद्ध चंद के दो पुत्रों रणवीर चंद और प्रमोद चंद से भेंट की जो दो या तीन नीची छत वाले घरों में रहते थे। बड़ा भाई बहुत सोशियल था जिसने विगने को ब्रेकफास्ट खिलाया। कर्नल मैसी द्वारा लिखी पुस्तक ‘चीफ्ज एंड फेमिलीज ऑफ पॉर्थ इन पंजाब’ बहुत महत्त्वपूर्ण पुस्तक है जिसमें अंतिम शासकों के बाद उनके उत्तराधिकारियों का बखान है।

-सुदर्शन वशिष्ठ

हरनोट के साहित्यिक सफर का साक्षी ‘सेतु’

साहित्यिक पत्रकारिता की विवेचना के रास्ते और सृजन संदर्भों को जोड़ते ‘सेतु’ पर एसआर हरनोट का लेखन अपनी कलात्मक शक्ति के साथ सफर पर निकला दिखाई देता है। यहां सेतु पत्रिका का जहां आधार और आभार अपने गुणात्मक पक्ष के कई रोशनदान खोलता है, वहीं पंद्रह वर्षों की साहित्यिक साधना में अपनी विविधता के पैगाम लिए, एसआर हरनोट के सृजन सारांश की कथा सरीखा भी हो जाती है। कुल 243 पन्ने अगर किसी साहित्यकार के भीतर कथानक खोजने का मंजर है, तो यह समुद्र मंथन अपनी तरह का अनूठा प्रयास है, जहां हमारी मुलाकात विशेषांक के नायक के साथ तो हो रही है, साथ ही इस कक्ष में सेतु पत्रिका के संपादक डा. देवेंद्र गुप्ता के संकल्प की मर्यादा, उद्देश्य की संरचना, विषय विशालता के सागर को गागर में भरने का जुझारूपन भी अंगीकार होता है। संपादक अपनी कलात्मक भूमिका में एक शख्सियत को बिना किसी माप तौल के उसी की श्रेष्ठता में ढूंढते हुए ‘पांच कहानियों’ का गुलदस्ता सौंपता है।

जाहिर है ‘फ्लाई किलर’, आभी, जीन काठी, बिल्लियां बतियाती हैं और ‘बेजुबान दोस्त’ के मार्फत हरनोट के लेखन का कैनवास जो विषय उकेरता है, उसे रेखांकित करता चयन, पाठक के लिए प्रवेश द्वार खोल देता है। यह हरनोट की अपनी अलग रचना प्रक्रिया के सबूत हैं, जिनमें दृष्टि संपन्नता, सामाजिक दायित्व बोध और संवेदनशीलता झलकती है। हरनोट की अपनी खास बेचैनियां हैं जिन्हें मापते-मापते कई विश्वविद्यालयों का पाठ्यक्रम समृद्ध हो गया, तो कहीं नाट्य मंचन भी होने लगा। पुरस्कारों की फेहरिस्त के बीच अपने 19 प्रकाशनों के साथ एसआर हरनोट, शिमला के चनावग गांव से निकल कर राष्ट्रीय फलक पर साहित्यिक मंजूषा का अनवरत पर्याय कैसे बन गए, इस सफर का साक्षी बनकर ‘सेतु’ खुद को उत्कृष्ट व परिमार्जित करता है। सेतु पत्रिका हरनोट के ऊपर समीक्षात्मक परिवेश पैदा करती हुई सूरज पालीवाल, रोहिणी अग्रवाल, डा. स्मृति शुक्ल, गौतम सान्याल व डा. हेमराज कौशिक के आलेखों की गरिमापूर्ण उपस्थिति दर्ज करती है, तो कमलेश्वर, डा. बच्चन सिंह, विनोद तिवारी व सुभाष पंत के पत्रांश से आत्मीयता का बोध कराती है। उपन्यास ‘हिडिम्ब’ पर पालीवाल लिखते हैं, ‘इक्कीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में लिखा यह उपन्यास उन प्रश्नों से भी अछूता नहीं है, जो इस शताब्दी के विश्व भूगोल ने हमें दिए हैं।’ इसी उपन्यास पर खगेंद्र ठाकुर, ‘इस उपन्यास के जरिए हिंदी उपन्यास नया यथार्थ पाता है।

इसकी भाषा स्पष्टतः पहाड़ी क्षेत्र की लोक भाषा के सहयोग से बनी है।’ नामवर सिंह ने हरनोट को प्रकृति और पर्यावरण के साथ पहाड़ी जीवन की कथा और व्यथा के नजदीक पाया है, तो कमलेश्वर ने इनकी कहानियों में आंचलिक, सांस्कृतिक व सामाजिक परिवेश महसूस किया है। चित्रा मुदगल ने इन्हें पहाड़ का प्रेम चंद कहा है। अपने साथ अनेक कहानियां ढोते हरनोट को समझना इसी तरह आसान नहीं, जिस तरह पहाड़ पर आते मौसम को किसी वृत्तांत में बांधना। वह एक चिडि़या के माध्यम से अंचल की कहानी ‘आभी’ को जिस तरह चोंच में भर लेते हैं, तो ‘फ्लाई किलर’ में पिघलती लेखकीय संवेदना का अक्स पैदा कर देते हैं। मानवीय उधेड़बुन और मां के आंचल से रिसते रिश्तों के बीच ‘बिल्लियां बतियाती हैं’, तो कहीं स्नेह की गंध में कहानी का मार्मिक पहलू पसर जाता है। जिस समग्रता से डा. हेमराज कौशिक कहानीकार हरनोट को पढ़ते हैं, और अपने आलेख के अनेक बिंदुओं से परिभाषित करते हैं, प्रशंसनीय है।

बकौल डा. कौशिक, ‘समग्रतः हरनोट की कहानियों की सर्वाधिक विशिष्टता है। उनमें अंतर्वस्तु की गंभीरता और प्रयोजनीयता तथा इसके साथ ही उनकी प्रवाहमयी भाषा की सहजता पाठक को बांधे रखने में सक्षम हुई है।’ सेतु के माध्यम से हरनोट के व्यक्तित्व के अलग-अलग पहलू सामने आए हैं और इन्हीं में से एक डा. देवेंद्र गुप्ता और सीताराम शर्मा को दिया गया विस्तृत साक्षात्कार भी है, जहां हरनोट अर्बन नक्सलियों के प्रश्न पर बुद्धिजीवी समाज की परिभाषा को अलंकृत करते हैं, ‘ये असहमतियां ही हैं जो अच्छे-बुरे की पहचान कराती हैं। साहित्य या विपक्ष में आप किसी व्यक्ति के खिलाफ नहीं होते, सत्ता के खिलाफ नहीं होते, बल्कि सत्ता की जनविरोधी सोच और विचारधारा के विरोध में होते हैं। परंतु आज विरोध, बोलने या प्रश्न पूछने के प्रचलन को समाप्त किया जा रहा है।’

-निर्मल असो

पुस्तक समीक्षा : पहाड़ पर पर्यटन का सजीव चित्रण

भारत के संस्कृति मंत्रालय द्वारा पुरस्कृत त्रैमासिक पत्रिका ‘प्रणाम पर्यटन’ का जनवरी-मार्च 2022 अंक प्रकाशित हुआ है। संस्कृति, पर्यटन व साहित्य को समर्पित इस पत्रिका का यह अंक लेह, लद्दाख, कश्मीर, उत्तराखंड व हिमाचल प्रदेश जैसे पहाड़ी इलाकों के पर्यटन पर विशेष सामग्री लेकर आया है। पत्रिका के संपादक डा. प्रदीप श्रीवास्तव हिमालय के चार धाम की यात्रा करवा रहे हैं। लेह-लद्दाख की प्राकृतिक छटा पर हेमचंद सकलानी का आलेख भी पाठकों को आकर्षित करता है। प्रमोद दीक्षित ने भी श्रद्धालुओं की आस्था के केंद्र गिनवाते हुए धार्मिक पर्यटन पर कलम चलाई है। इसी तरह डा. कविता विकास ने हिमाचल की दूसरी राजधानी के नाम से प्रख्यात धर्मशाला के नैसर्गिक सौंदर्य का सजीव चित्रण किया है। कश्मीर के खीर भवानी मंदिर पर संतोष बंसल ने कलम चलाई है।

डा. अर्पिता अग्रवाल मानती हैं कि धौलाधार की वादियां सम्मोहित करती हैं। मेधा झा ने नैनीताल के सौंदर्य का चित्रण किया है। हिमाचल के सोलन जिले में बड़ोग सुरंग का सौंदर्य व कला की अनूठी संगम के रूप में चित्रण हुआ है। साहित्यकार पवन चौहान कल्पा का चित्रण कल्पना-सा सुंदर गांव के रूप में करते हैं। कालका-शिमला रेल मार्ग पर आने वाली सुरंगों के सौंदर्य को भी पत्रिका में उकेरा गया है। मसूरी व मारीशस के प्राकृतिक आकर्षण को भी उकेरा गया है। साथ ही कहानियों व लघुकथाओं से पत्रिका सुसज्जित है। कहने का भाव है कि पत्रिका में पढ़ने लायक काफी सामग्री है। विशेषकर जो पहाड़ की सैर का मन बना रहे हैं, उन्हें पर्यटकीय दृष्टि से महत्त्वपूर्ण स्थलों का अध्ययन सैर से पहले कर लेना उचित होगा।                                                                                                                                                                                                                          -फीचर डेस्क


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