हिमाचल प्रदेश का उर्दू साहित्य

By: Mar 13th, 2022 12:07 am

साहित्य की निगाह और पनाह में परिवेश की व्याख्या सदा हुई, फिर भी लेखन की उर्वरता को किसी भूखंड तक सीमित नहीं किया जा सकता। पर्वतीय राज्य हिमाचल की लेखन परंपराओं ने ऐसे संदर्भ पुष्ट किए हैं, जहां चंद्रधर शर्मा गुलेरी, यशपाल, निर्मल वर्मा या रस्किन बांड सरीखे साहित्यकारों ने साहित्य के कैनवास को बड़ा किया है, तो राहुल सांकृत्यायन ने सांस्कृतिक लेखन की पगडंडियों पर चलते हुए प्रदेश को राष्ट्र की विशालता से जोड़ दिया। हिमाचल में रचित या हिमाचल के लिए रचित साहित्य की खुशबू, तड़प और ऊर्जा को छूने की एक कोशिश वर्तमान शृंाखला में कर रहे हैं। उम्मीद है पूर्व की तरह यह सीरीज भी छात्रों-शोधार्थियों के लिए लाभकारी होगी…

अतिथि संपादक, डा. सुशील कुमार फुल्ल, मो.-9418080088

हिमाचल रचित साहित्य -5

विमर्श के बिंदु

  1. साहित्य सृजन की पृष्ठभूमि में हिमाचल
  2. ब्रिटिश काल में शिमला ने पैदा किया साहित्य
  3. रस्किन बांड के संदर्भों में कसौली ने लिखा
  4. लेखक गृहों में रचा गया साहित्य
  5. हिमाचल की यादों में रचे-बसे लेखक-साहित्यकार
  6. हिमाचल पहुंचे लेखक यात्री
  7. अतीत के पन्नों में हिमाचल का उल्लेख
  8. हिमाचल से जुड़े नामी साहित्यकार
  9. यशपाल के साहित्य में हिमाचल के रिश्ते
  10. लालटीन की छत से निर्मल वर्मा की यादें
  11. चंद्रधर शर्मा गुलेरी की विरासत में

ज़ाहिद अबरोल, मो.-9816643939

अठारहवीं सदी के शुरू में ही उर्दू शायरी अपने साहित्यिक रूप में रचित होने लगी थी और फिर तो इस भाषा ने क्या दक्षिण, क्या उत्तर, सभी प्रदेशों में अपना रंग जमाना शुरू कर दिया था। हिमाचल प्रदेश के उर्दू शायरी की नुमांइशी जिन शायरों ने की है, मैं सबसे पहले जिक्र कर रहा हूं हिमाचल कला, संस्कृति, भाषा अकादमी के संस्थापक जनाब लाल चंद प्रार्थी ‘चांद’ कुल्लवी का। चांद कुल्लवी न सिर्फ उर्दू और पहाड़ी के पुख्ता शायर थे, बल्कि हिमाचल के मंत्री की हैसियत से उन्होंने भाषा, कला, संस्कृति अकादमी की स्थापना भी की। इतने बड़े पद पर रहने के बावजूद उनका उर्दू ग़ज़ल संग्रह ‘वजूद-ओ-अदम’ जो वो बहुत आसानी से अपने जीवन काल में प्रकाशित करवा सकते थे, उनके स्वर्गवास के बाद हिमाचल अकादमी ने प्रकाशित किया। वो एक साधु स्वभाव इनसान, देशभक्त दार्शनिक कवि और प्रबंधकुशल राजनीतिज्ञ थे। उनकी उर्दू शायरी में प्रस्तुतिकरण के बहुत से पहलू, अभिव्यक्ति के विभिन्न अंदाज और विषयों की भरमार पाई जाती है। हिमाचल के एक और बहुत बड़े शायर हुए हैं भगवान दास, जो धर्मशाला में वकालत करते थे।

उन्होंने हफीज़ जालंधरी की तर्ज पर शाहनाम हिंदोस्तान और शाहनाम राजस्थान के शाहनाम इस्लाम की रचना की थी जिसमें उन्होंने पूरे राजपूत इतिहास का वर्णन शायरी में किया है और हिंदोस्तान की महान विभूतियों पर नज़्में कही हैं। उनका दुर्भाग्य यह रहा कि वो अपने जीते जी उसे या अपनी अन्य शायरी को पुस्तक के रूप में प्रकाशित नहीं करवा सके और उनका कुल कलाम आज तक अप्रकाशित ही पड़ा है। भगवान दास के बाद मैं जिक्र करना चाहूंगा सन् 1922 में पैदा हुए जुब्बल (शिमला) से शायर ठाकुर काहन सिंह जमाल का। चूंकि इनके पिता स्थानीय मदरसे में अध्यापक थे, उर्दू अदब का शौक इन्हें बचपन ही से हो गया था। इनके ़गज़ल संग्रह जमालियात, नज़्मों और गीतों का संग्रह ‘वक्त की आवाज’ प्रकाशित हुए। अब मैं हिमाचल के एक और उस्ताद शायर का जिक्र करना चाहूंगा जिन्होंने अल्लाम ‘मुनव्वर’ लखनवी और जनाब जोश मलसियाती से शायरी की कला सीखी और आगे बहुत से शागिर्दों तक यह कला पहुंचाई। यह शायर थे जनाब शबाब ललित। इनकी प्रकाशित नौ-दस काव्य पुस्तकों में मिजराव, पतवार, पुरवाई और मौसमों का दर्द बहुत सराही गई। इनका जन्म अगस्त 1933 में हुआ और इनको विभिन्न प्रदेशों की उर्दू अकादमियों और हिमाचल प्रदेश सरकार द्वारा भी बहुत से ईनामात से नवाजा गया। यह कई सालों तक भाषा संस्कृति विभाग की उर्दू पत्रिका ‘जदीद फिक्र-ओ-फन’ के संपादक भी रहे। अब मैं जिक्र करूंगा कांगड़ा जिला के मोरिंडा गांव के एक शायर जनाब मनोहर लाल शर्मा ‘सागर’ पालमपुरी का जो एक जून 1928 को पैदा हुए और जिलाधीश धर्मशाला के कार्यालय में नौकरी की। इनके गुजर जाने के बाद इनके बेटे नवनीत शर्मा और सुशील कुमार फुल्ल ने ‘सागर पालमपुरी, व्यक्तित्व और कृतित्व’ में इनके कलाम को सहेजा था। इनकी शायरी की रिवायत इनके बेटे द्विजेंद्र द्विज और नवनीत शर्मा आगे बढ़ा रहे हैं और यह दोनों हिंदी साहित्य और विशेषतः ़गज़ल के क्षेत्र में एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। के. के. तूर, अब मैं हिमाचल प्रदेश के उस शायर का जिक्र करूंगा जो पंजाब, हरियाणा, हिमाचल और जम्मू-कश्मीर में पहले उर्दू साहित्यकार हैं जिन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया। सन् 2012 में उन्हें उनकी पुस्तक ‘गुर्फा-ए-गैब’ पर साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला और उसी साल गालिब अकादमी द्वारा गालिब अवार्ड से भी सम्मानित किया गया। इनकी प्रकाशित काव्य कृतियों में तरतीब, सैर-सब्ज, शेर शगुफ्त, आलमऐन, मश्के मुनव्वर, रफ्त रमज, सरनाम ए गुमांनजरी, गुर्फा ए गैब, चश्म ए चश्म, गुल ए गुफ्तार और तूर तलिस्म उल्लेखनीय हैं।

तूर साहिब 11 अक्तूबर 1933 को लाहौर में पैदा हुए और हिमाचल पर्यटन विभाग से सेवानिवृत्त होने के बाद स्थायी तौर पर धर्मशाला में रह रहे हैं। इन दो पुरस्कारों के अलावा इन्हें भारत की बहुत सी उर्दू अकादमियों से पुरस्कार और सम्मान मिले हैं। सुप्रसिद्ध उर्दू पत्रिका सर सब्ज के मालिक और संपादक हैं। शिमला के एक और शायर जनाब सुरेश चंद्र ‘शौक’ शिमलवी जो हिमाचल के महालेखाकार कार्यालय से सेवानिवृत्त हुए। पंजाब के सुप्रसिद्ध उस्ताद शायर पंडित रत्न पंदोरवी के शागिर्द रहे और जनाब राजेंद्रनाथ रहबर और जनाब शबाब ललित की शायरना सोहबत में इनका शौक-ए-शायरी परवान चढ़ा। इनका जन्म पांच अप्रैल 1938 को ज्वालामुखी में हुआ। चंद बरम ‘जदीद फिक्र-ओ-फन’ में संपादक भी रहे। इनका उर्दू ग़ज़ल संग्रह ‘आंच’ देवनागरी लिपि में सन् 2002 में प्रकाशित हुआ था जिसे साहित्यिक क्षेत्रों में और आम पाठकों द्वारा खूब सराहा गया। शिमला के एक और शायर हुए हैं जनाब अरमान शहाबी। इन्होंने ग़ज़लों के अलावा फिल्मी गीत और फिल्मी कहानियां भी लिखी। धर्मशाला में मुकीम एक बहुमुखी प्रतिभा के मालिक परमानंद शर्मा जालंधरी 17 नवंबर 1923 में जन्मे और 37 वर्षों तक विभिन्न महाविद्यालयों में अध्यापन कार्य करने के बाद 1982 में धर्मशाला कालेज से बतौर प्रिंसीपल सेवानिवृत्त हुए। हिंदी, पंजाबी, उर्दू, फारसी, संस्कृत, अंग्रेजी, पहाड़ी आदि अनेक भाषाओं के विद्वान परमानंद जी ने गालिब की कुछ उर्दू ़गज़लों का पहाड़ी में काव्यानुवाद ‘किच्छ गालिब किच्छ मैं’ नामक पुस्तक में किया है। इनका उर्दू ़गज़ल संग्रह नागरी लिपि में ‘रक्स-ए-शरद’ भी प्रकाशित हुआ है। हाल में अंग्रेजी में इनकी ‘माई माऊंटेन, माई वैली’ आत्मकथा प्रकाशित हुई है।

और भी हैं शायर इस जहां में

और अब मैं बात करूंगा हिमाचल की एकमात्र महिला उर्दू शायर डा. नलिनी विभा नाज़ली की। इनका जन्म पांच दिसंबर 1954 को नंगल (पंजाब) में हुआ। उर्दू के शौक ने इन्हें अपने दादा से उर्दू भाषा सीखने के लिए प्रेरित किया और फिर डा. शबाब ललित की शागिर्दी में इन्होंने उर्दू शायरी का सफर शुरू किया। आप कंठ संगीत में पीएचडी हैं और राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय हमीरपुर से सेवानिवृत्त हुई हैं। उम्दा शायरा होने के साथ-साथ उम्दा चित्रकार भी हैं और शायरी, संगीत तथा चित्रकारिता का अद्भुत संगम हैं। उर्दू में इनके तीन गज़ल संग्रह ‘रेज़ा रेज़ा आइन’, ‘हर्फ हर्फ आइना’ और ‘दस्तखत रह जाएंगे’ और नागरी लिपि में ‘़गज़ल के पर्दे में’ प्रकाशित हो चुके हैं। नलिनी विभा हिमाचल सरकार एवं देश की कई अन्य संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत भी हुई हैं। आजकल भोटा (हमीरपुर) में मुकीम हैं।

नाहन (सिरमौर) जो उर्दू शायरी के लिए एक बहुत ही ज़रखेज धरती रही है और हिमाचल के उस प्रदेश से ही उर्दू शायरों का इतिहास लिखा जा सकता है, एक उर्दू शायर नासिर यूसुफजई ने पिछले दिनों में कमाल किया है। इनका ़गज़ल संग्रह ‘इब्तिदा’ और माहियों का संग्रह ‘इश्क इबादत है’ नागरी लिपि में प्रकाशित हुए हैं। माहियों में नासिर साहिब ने खूब रंग जमाया है। उर्दू पत्रिका ‘जदीद फिक्र-ओ-फन’ के कई बरसों तक संपादक रहे जनाब धर्मपाल ‘आकिल’ लाहौरी 20 नवंबर 1932 में पैदा हुए। मुनव्वर लखनवी के शागिर्द थे और खून-ए-जिगर नाम से उनका अलजामः उर्दू काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ था। जिला अमृतसर में 25 अक्तूबर 1930 को पैदा हुए शायर प्रकाश नाथ परवेज ने महालेखाकार हिमाचल के दफ्तर में मुलाजमत की और ‘शफकजार’ (कितआत) जाद-ए-मंजिल और याद-ए-जिया (नज़्में और ़गज़लें) नामक पुस्तकें प्रकाशित की। सन् 1922 में जन्मे जनाब शिवराम आदिल सिरमौरी हिमाचल में शिक्षा विभाग में कार्यरत थे। उनकी प्रकाशित पुस्तक ‘गैर-मुस्लिम उर्दू शोर की वजह से पहचाने जाते हैं। हालांकि जनाब जगदीश मेहता ने इसी मजमून पर तीन-चार संग्रह निकाले हैं। आदिल साहिब की किताब मेरी नजर से नहीं गुजरी। एक बात और है, आदिल साहिब के शागिर्दान की फेररिस्त बहुत लंबी है और उसमें अश्विनी कुमार गुप्ता ‘वहार’, अमिया झा, कंवर सत्यदेव सिंह, कृष्ण लाल रहबर, शिवसिंह चौहान आदि शामिल हैं। सन् 1902 में नकोदर (पंजाब) में जन्मे शायर जनाब दुर्गा दास ‘कासिर’ कांगड़ा में आकर बस गए थे। इनकी प्रकाशित पुस्तक खुशबुएं खूब चर्चित रही। अब मैं उन शायरों की बात करूंगा जिनकी जीवन यात्रा के बारे में मुझे कोई सुराग नहीं मिल पाया और न ही उनका जीवन परिचय उपलब्ध हो सका। इनमें शामिल हैं ः तलअत इर्फानी, कंवल नूरपुरी (जन्म मार्च 1931, नूरपुर) काव्य संग्रह जुर्म-ए-वफा, कर्मचंद रुसवा-काव्य संग्रह ‘तस्वीह’, सरदारी लाल ‘निश्तर’, ओम प्रकाश ‘नसीम’ नूरपुरी (जन्म 20 सितंबर 1930, नूरपुर), कमर लखनवी, साबिर हुसैन साबिर, जिया सिद्दीकी, बख्शी सूरज प्रकाश ‘दर्द’ (जन्म 1913) मोहन मीकनज, सोलन से सेवानिवृत्त हुए, डी. कुमार (जन्म 1929, दिल्ली), खेमराज गुप्ता ‘सागर’ (जन्म मई 1931, चंबा), प्रेम सिंह ‘आलम’ (जन्म जून 1938), अजिज शिमलवी व गीता राम तालिब शिमलवी। अब मैं अपनी भी बात करना चाहूंगा। मैं पिछले 27 सालों से हिमाचल में रहकर उर्दू अदब की खिदमत कर रहा हूं।

उर्दू में तीन नज़्मों के मजमुए ‘अंधा खुदा’, ‘एक सफा पुसम’ और ‘ख्वाबों के पेड़ तले’ प्रकाशित हुए हैं। ़गज़ल संग्रह ‘दरिया दरिया, साहिल साहिल’ 2014-2015 में उर्दू और हिंदी में प्रकाशित हुआ और 2003 में ‘फरीदनामा’ प्रकाशित हुआ जिसमें पंजाबी के प्रथम शायर महान सूफी शेख फरीद के पंजाबी श्लोकों का उर्दू में श्लोकों के रूप में ही काव्यानुवाद किया गया है। हिमाचल की इस देवभूमि में सैकड़ों और उर्दू के शायर हैं जिनका कलाम मुझे मयस्सर नहीं हुआ। इनमें कुछ के नाम दे रहा हूं ः अभय राज सिंह, शांति स्वरूप, चरणजीत सिंह आसी, प्रीतम पहाडि़या, बख्शी राम मुसाफिर, हरकिशन गौतम, राजेश कुमार, फिक्र पटियालवी, आरिफ, जोगिंद्र सिंह, खेम चंद, के. भारद्वाज कमर, कमाल करतारपुरी, मोहर लाल फहीम, एस. सरहदी, खालिद कमाल, कमर लखनवी, एस. ए. सिद्दीकी, एस. नियाजी, हारून अयूब, शमशाद जैदी, नजीर हसन, ए. आर. फतीही, कृष्ण कुमार शबनम, खुशहाल चंद, खतीब सय्यद मुस्तफा, कृष्ण पाल तेग, राम सिंह पठानिया, फतेह सिंह, उत्तम आहलूवालिया, अमर सिंह फिगार, सुदर्शन कौशल नूरपुरी, प्रकाश चंद और शेर सिंह राणा। इस तरह हिमाचल में उर्दू साहित्य का निरंतर सृजन हो रहा है।

-ज़ाहिद अबरोल

भागलपुर की भीगी आंखों से कर्बला-दर-कर्बला

भागलपुर की घायल आंख से देखते हुए लेखक गौरीनाथ ने ‘कर्बला दर कर्बला’ उपन्यास को सामान्य लेखन की चारदीवारी से बाहर लाकर खड़ा ही नहीं किया, बल्कि सामाजिक पपडि़यों से टपकती लहू की बूंदों से कई इबारतों-इबादतों का पटाक्षेप भी किया है। इनसानी मुद्दों से बड़े धार्मिक कैसे हो जाते हैं, इसकी बानगी में सार्वजनिक भूमि पर हनुमान जी की मूर्ति प्रकट होती है और जय श्री राम के उद्घोष सुनकर सुन्न होता लोकतंत्र अपने चरित्र में फंसे देश की हकीकत को नजरअंदाज कर देता है। व्यवस्था चीखती है, तो समाज के कोने-कोने में दर्द होता है। दरअसल ‘कर्बला दर कर्बला’ अपने भीतर कई विषय और संवाद तराशता है और इसकी पृष्ठभूमि में भागलपुर की भीगी आंखों से ऐतिहासिक तड़प पैदा होती है। कभी शहर ज्ञान की चरागाह की तरह युवा महत्त्वाकांक्षा को हरियाली सौंपता था, लेकिन अपराध के पंजों पर चलते हुए अचानक आपसी रगड़, सामाजिक उच्छृंख्लता, सांस्कृतिक विपन्नता, आर्थिक मायूसी और नफरत के कंकाल में फंस जाता है। उपन्यास अपने साथ युवा पीढ़ी को लेकर चलते हुए समय चक्र के हर हालात पर टिप्पणी करता है, तो बीच-बीच में भागलपुर की जीवंतता के पांव की बेडि़यां पहनकर उन जोंकों से मुकाबला करता है, जो इस शहर की हर रक्त बूंद को चूसना चाहती हैं।

आर्थिकी की महीन कताई के बीच धर्म की कढ़ाई कितनी विध्वंसकारी है, लेकिन धार्मिक उन्माद की अनुकूलता में परिवर्तित मानवीय द्वंद्व उम्र भर के अफसाने को दफन करने का प्रयास करता है। लेखक गौरीनाथ का यह उपन्यास छात्रों से विमर्श करता है और छात्रों के विमर्श से ही सुसज्जित होता है। मुख्य पात्रों की शब्दावली में दरअसल आधुनिक भारत के कई किरदार हमारे सामने आते हैं, फिर भी शिव को यहां ज़रीना की भावुकता, ईमानदारी, संवेदना, शक्ति और सरोकारों से मुलाकात करते लेखक उपन्यास की गतिशीलता, पठनीयता और विषय की भूमिका कायम रखने में सफल रहे हैं। युग पलटने की कोशिश में युवा वर्ग की महत्त्वाकांक्षी लहरों के बीच उपन्यास समाज के हर छोर की विसंगतियों से मुखातिब होता है। शिक्षा की सर्द हवाओं के बीच देश के घटनाक्रम का ताना-बाना हर बार युवा पीढ़ी को चौराहे पर लाकर खड़ा कर देता है। अपने पाठ्यक्रम को विस्तार देती युवा पीढ़ी के सपने जिस लाइब्रेरी में जिंदा सबब बनते हैं, उसके ठीक बाहर समाज के शोर में विभक्त ‘जिंदाबाद’ के नारे सारे उत्साह और भाईचारे को क्षत-विक्षत कर देते हैं।

यूनिवर्सिटी का अध्ययन कक्ष बार-बार निर्वस्त्र होकर कभी 1984 के ब्लू स्टार आपरेशन में झांकते हुए सिख विरोधी दंगे देखता है, तो कभी इंदिरा हत्याकांड या हिंदू राष्ट्रवाद के तहलकों में गहन चिंता में उलझ जाता है। आईआईटी और यूपीएसई की तैयारी का आधार बन रहे छात्रों के सामने बार-बार कोई न कोई घटनाक्रम या दंगा आकर अटक जाता है। ‘कर्बला दर कर्बला’ इन्हीं दंगों की आंच में समाज के टुकड़े देखता है और इस व्यथा को शिव और उसके साथियों के बीच बांटता है। प्रश्न उठाते कोई हिंदू और मुस्लिम चरित्र कभी एक रंग में, तो कभी समाज के बदरंग में भी इतना रास्ता खोजना चाहते हैं ताकि बस्तियों के अंधेरों में ज्ञान का कोई दीप जल जाए। उपन्यास राजनीति की बार-बार पोल खोलता है, तो उन आवरणों को भी उखाड़ फेंक देता है, जहां सत्ता के शिखर, छात्र राजनीति के भंवर और उद्वेलित युवा समूहों को धार्मिक वैमनस्य का पाठ पढ़ाया जाता है। किस तरह अफवाहों के समुद्र में बंटती अपराध की रेवडि़यां डुबो रही हैं, इसका जिक्र लल्लू की चाय की दुकान, उर्दू बाजार, घंटाघर और शहर के अनेक प्रतीक चिन्हों से होता हुआ युवा महत्त्वाकांक्षा के अध्ययन कक्ष तक पहुंच जाता है। अपने ही जानकारों की लाशों से ठोकर खाते शिव के लिए रिश्तों की आंधियों के बीच इनसानी जज्बातों की मारकाट और कहीं बहू-बेटियों का शिकार करता हर दंगा गुजर जाता है। व्यवस्था का नाक पोंछती राजनीति उन मनहूस मंसूबों की भागीदार कैसे बनती है और देश की ईंटें उखाड़ते अधिकारियों का चित्रण, उपन्यास के भीतर कई विवेचना स्थल बना देता है। कई संवाद व परिदृश्य ऐसे हैं जहां युवाओं के आदर्शों की भूमि के कतल और कातिल स्पष्ट हैं, फिर भी अकाट्य सत्य के बीच युवा मंतव्य खोखले नहीं और यह शिव व ज़रीना के संवाद में बार-बार आकर स्पर्श करता है, ‘शिव, क्या हमारा विश्वास इतना खोखला है?’ फिर चलते हुए, ‘हम-आप कितने भी गिर जाएंगे वो लफंगे नहीं हो सकते जिनकी दोस्ती सेंडिस कम्पाउंड की झाडि़यों में चंुबन तक रहती है।’

संवाद की खूबसूरती में शब्द भावना के अनुरूप और मानवीय ग्रंथियों की कुरूपता में अंतर पैदा करते हैं। छात्रों के सामने देश की विकरालता, देश की विपन्नता, संयोग-दुर्योग और राजनीति के गठजोड़ में समाज की गांठें पन्ना दर पन्ना खुलती हैं। गौरीनाथ साहित्य को इतिहास का स्रोत नहीं, बल्कि इसके करीब खड़ा कर देते हैं। उपन्यास में भाषायी प्रयोगों की ऊष्मा इसे संवारती है, ‘अचानक बादल का कोई बड़ा सा टुकड़ा सूरज के ऊपर चढ़ आया था और खिली धूप गायब।’ पृष्ठ क्रमांक 118, 134, 144, 154, 155, 168, 172, 177, 197 और 206 पर उपन्यास युवा मानसिकता को विभिन्न विषयों के मायनों में कुरेदता है। बेजुबान मुस्लिम लड़कियों के सामने शाहबानो प्रकरण में ज़रीना भले ही अपना पक्ष सामने रखती है, लेकिन शिव को पाने के लिए कई दीवारें लांघते-लांघते अंततः वह बिहार की बाढ़ की तरह समाज के अनेक रिसाव और मानसिक विद्वेष के कटाव से रूबरू होती है। उपन्यास संपर्कों के ताने-बाने, यादों के गुलदस्ते, इतिहास की परतों और गुमनामी की अनेक सांसों पर शोधार्थी की तरह अपने तर्क और निष्कर्षों की जमीन पेश करता है। कर्बला दर कर्बला अपने यथार्थ और सरोकार पेश करता हुआ दस किताबों, सत्रह पत्रिकाओं, रिपोर्ट्स, वेबसाइट्स, सात अखबारों के अलावा दर्जनों बुद्धिजीवियों के विमर्श बिंदुओं पर अपना अनूठा दस्तावेजीकरण करता है। धर्म के उन्मादी तंबुओं के बीच हिंदू, मुस्लिम, सिख इत्यादि वर्गीकरण को झुठलाते प्रेम के आगोश में, कहीं तो संबंधों का अटूट मिलन होता है, लेकिन इसे मुलायम पन्नों में सलीके से उपन्यास सहेज लेता है।

– निर्मल असो

उपन्यास का नाम:  कर्बला दर कर्बला

लेखक : गौरीनाथ

प्रकाशक : अंतिका प्रकाशन प्रा. लि.

मूल्य : 295 रुपए

पुस्तक समीक्षा : लघुकथाओं का आकर्षक गुलदस्ता

अपने लघुकार के बावजूद लघुकथा अपनी विधागत साहित्यिक परिपूर्ण दृष्टि से साहित्य क्षेत्र में समुचित पदार्पण कर चुकी है। समीक्षित कृति ‘जन्मदिन’ शुभतारिका (मासिक) के सह संपादक श्री विजय कुमार की भले ही लघुकथा की प्रथम प्रकाशित पुस्तक है, लेकिन लघुकथा लेखन क्षेत्र में वे करीब दो दशकों से सक्रिय हैं। प्राक्कथन में साहित्य के पुरोधा हस्ताक्षर डा. चंद्रत्रिखा, निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी ने हरियाणा की साहित्यिक परंपराओं को प्रारंभ से वर्तमान तक याद करते हुए लेखक के प्रयास को सराहा है। आशीर्वचन में श्रीमती उर्मि कृष्ण, निदेशक, कहानी लेखन महाविद्यालय, अंबाला ने लेखक की लघुकथाओं को सहज, सरलता पूरिपूर्ण होने के साथ-साथ साहित्यिक गढ़-खेमेवाद से मुक्त बताया है।

मन की बात में डा. महाराज कृष्ण जैन दंपति व अभिभावकों को समर्पित इस पुस्तक की दो लघुकथाओं की पश्चिम बंगाल में तीसरी कक्षा के पाठ्यक्रम में शामिल किए जाने पर लेखक ने प्रसन्नता व्यक्त की है। 160 पृष्ठों में समाहित इस पुस्तक में 74 लघुकथाएं हैं जिनमें कर्त्तव्यबोध, रिश्तों की तारतम्यता, आंतरिक तार्किक सोच, खीझ, संवादहीनता, हताशा, कुंठा, नैतिक मूल्यों के अवमूल्यन, वक्त की सीख, विरोधाभास, अबोध बालमन आदि विषयों पर समुचित लेखनी चलाते हुए सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक, राजनीतिक बिंदुओं को स्पर्श करते हुए पाठक के मन-मस्तिष्क के काफी अंदर तक झांकने का प्रयास किया है। सभी लघुकथाओं में संप्रेषणीयता, वैचारिक परिपक्वता, रोचकता देखते ही बनती है। अमीर, दिमाग का कचरा, फोन कॉल, दान व विज्ञापन जैसी लघुकथाएं रोचक हैं। इसके अलावा सही मूल्यांकन, सरकार, कारण, अफसोस, सोच का फर्क आदि लघुकथाएं भी पठनीय हैं। लेखक की मेहनत, पुस्तक की रूपसज्जा, अशुद्धि-विहीन प्रूफ को देखते हुए मूल्य दो सौ रुपए उचित ही प्रतीत होता है।

-रवि सांख्यान, बिलासपुर


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