हिमाचल में रचित पंजाबी कविता

By: Jul 24th, 2022 12:10 am

साहित्य की निगाह और पनाह में परिवेश की व्याख्या सदा हुई, फिर भी लेखन की उर्वरता को किसी भूखंड तक सीमित नहीं किया जा सकता। पर्वतीय राज्य हिमाचल की लेखन परंपराओं ने ऐसे संदर्भ पुष्ट किए हैं, जहां चंद्रधर शर्मा गुलेरी, यशपाल, निर्मल वर्मा या रस्किन बांड सरीखे साहित्यकारों ने साहित्य के कैनवास को बड़ा किया है, तो राहुल सांकृत्यायन ने सांस्कृतिक लेखन की पगडंडियों पर चलते हुए प्रदेश को राष्ट्र की विशालता से जोड़ दिया। हिमाचल में रचित या हिमाचल के लिए रचित साहित्य की खुशबू, तड़प और ऊर्जा को छूने की एक कोशिश वर्तमान शृंाखला में कर रहे हैं। उम्मीद है पूर्व की तरह यह सीरीज भी छात्रों-शोधार्थियों के लिए लाभकारी होगी…

अतिथि संपादक, डा. सुशील कुमार फुल्ल

मो.-9418080088, हिमाचल रचित साहित्य -24

विमर्श के बिंदु
1. साहित्य सृजन की पृष्ठभूमि में हिमाचल
2. ब्रिटिश काल में शिमला ने पैदा किया साहित्य
3. रस्किन बांड के संदर्भों में कसौली ने लिखा
4. लेखक गृहों में रचा गया साहित्य
5. हिमाचल की यादों में रचे-बसे लेखक-साहित्यकार
6. हिमाचल पहुंचे लेखक यात्री
7. हिमाचल में रचित अंग्रेजी साहित्य
8. हिमाचल से जुड़े नामी साहित्यकार
9. यशपाल के साहित्य में हिमाचल के रिश्ते
10. हिमाचल में रचित पंजाबी साहित्य
11. चंद्रधर शर्मा गुलेरी की विरासत में

हंसराज भारती, मो.-9816317554

सर्वप्रथम ‘दिव्य हिमाचल’ इस बात के लिए पूर्णत: बधाई का पात्र है कि एक ऐसे विषय को जो समसामयिक तो है, परंतु इस या उस कारण से आंख ओझल ही रहा, को दृश्यपटल पर उभारने की एक सार्थक पहल की है। मुझे नहीं लगता कि इस मुद्दे को लेकर हिमाचल के साहित्यिक दायरों में इससे पहले कभी कोई चिंतन-मनन तो दूर, गाहे-बगाहे कभी चर्चा भी हुई हो। हिमाचल में हिंदी के अतिरिक्त उर्दू, अंगे्रजी, संस्कृत और पहाड़ी में लेखन हुआ है और आज भी हो रहा है। जबकि पंजाबी में किसी भी प्रकार का लेखन सिरे से ही गायब रहा है। खोजबीन करने पर यह तथ्य सामने आया कि हिमाचल में पंजाबी लेखन की कोई ऐसी परंपरा नहीं है, जबकि पंजाबी हिमाचल की निकटतम पड़ोसी भाषा है। हिमाचल का एक भूभाग कभी पंजाब का हिस्सा था।

कुछ हिस्सों की मां बोली पंजाबी है, जबकि यहां की कुछ बोलियां पंजाबी की उपबोलियां मानी जाती हैं। हिमाचल में पंजाबी लेखन विषय बहस का मुद्दा हो सकता है, होना भी चाहिए। अब अपने मूल विषय की ओर आते हैं- हिमाचल में रचित पंजाबी कविता। हिमाचल में पंजाबी कविता की बात करें तो ऐसा लगता है कि इस विषय में तस्वीर का पक्ष अधिक उजला नहीं है। बहुत प्रयास करने पर बहुत कम रचनाकार सामने आए जिन्होंने निरंतर लेखन किया हो। पुस्तक प्रकाशन का कोई नाम/संग्रह सामने नहीं आया है। हां, छिटपुट लेखन अवश्य हुआ है। जिसके अंतर्गत कुछ नाम सामने आए हैं जिन्होंने पंजाबी कविता लेखन में हाथ आजमाए हैं। इनमें सर्वाधिक नाम ऊना से ही आए हंै, जो कि स्वाभाविक ही हैं। इन लोगों ने भले ठेठ पंजाबी में न लिखा हो, परंतु पंजाबी भाषा से प्रभावित होकर पंजाबी में साहित्य सृजन किया है। इनकी कविताएं कवि सम्मेलनों और स्थानीय लघु पत्रिकाओं में छपती रही हैं। ऊना से पंजाबी में कविता लेखन में चंद नाम सामने आए हैं। इन नामों को उजागर करने में ऊना से ताल्लुक रखने वाले प्रदेश के वरिष्ठ और सुपरिचित कवि कुलदीप शर्मा ने सहयोग प्रदान किया है। प्रमुख नाम हैं : प्रकाश चंद महरम उनवी : ये वयोवृद्ध साहित्यकार हैं। हिंदी, उर्दू के अलावा पंजाबी में कविता लिखते हैं।

पंजाबी में अधिकतर हास्य कविताएं लिखी है। कवि सम्मेलनों में भी पंजाबी में कविताएं सुनाते हैं। स्वर्गीय मदन जेजवीं : ये जेजों के रहने वाले थे। जेजों एक सीमांत कस्बा है। इनकी पंजाबी रचनाएं हिंदी के बराबर स्तरीय मानी जाती थी। दोनों भाषाओं में रचनाएं लिखते थे। रोशन लाल सूर्या : ये पूर्णत: एक लोक कवि के रूप में जाने जाते हैं। आकाशवाणी जालंधर से इनकी पंजाबी कविताओं का प्रसारण होता रहा है। राणा शमशेर सिंह : राणा शमशेर सिंह एक परिचित हस्ताक्षर थे जिनका नाम सामाजिक संस्थाओं में बड़े सम्मान के साथ लिया जाता था। वह हिंदी के साथ-साथ पंजाबी में भी कविता लिखते थे। वह हिमाचल भाषा, कला एवं साहित्य अकादमी के सदस्य भी रहे। गुरकीरत सिंह : गुरकीरत सिंह एक व्यवसायी थे। पंजाबी में लिखते थे और स्थानीय स्तर पर अपनी एक पहचान बनाई थी। वह कवि सम्मेलनों में बढ़-चढ़ कर पंजाबी कविताएं सुनाते थे।

ईश्वर दुखिया : एक शिक्षक, सामाजिक कार्यकर्ता और साहित्यकार थे। पंजाबी में कविता कहने-लिखने में हाथ आजमाते थे। कंवर ध्यानपुरी : क्रांतिकारी विचारों से ओत-प्रोत कविताएं पंजाबी में लिखते थे। उस समय के कवि सम्मेलनों का अनिवार्य हिस्सा थे। बीते समय के हिमाचल के प्रमुख पंजाबी कवि माने जाते थे। जाहिद अबरोल : जाहिद अबरोल प्रदेश के जाने-माने गज़़लगो हैं। वह उम्दा किस्म की लें लिखत हैं। जानकारी के अनुसार अबरोल पंजाबी में भी कविता कर्म करते हैं। इनकी कुछ कविताएं पंजाबी की पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुई हैं। क्योंकि बहुत प्रयास करने पर भी मात्र कुछ नाम ही सामने आए हैं, कोई प्रकाशित रचना उपलब्ध नहीं हो सकी।

एक नाम जिस पर लगभग सभी साथियों ने सहमति जताई, वह है शिमला निवासी अवतार एनगिल। सूचना है कि एनगिल साहब हिंदी के साथ पंजाबी के भी अच्छे कवि हैं। यह अलग बात है कि अपने स्रोतों के द्वारा भी इनकी प्रकाशित रचनाओ का प्रिंट उपलब्ध नहीं हो पाया। नेरचौर निवासी, जो एक व्यवसायी हैं, नाम है अवतार सिंह बाजवा। वह भी पंजाबी में लिखते हैं शायद। मंडी से प्रकाशित पत्रिका ‘युग मर्यादा’ (अब प्रकाशन बंद है) के संपादक स्व. नरेंद्र सिंह भी पंजाबी में कविताएं लिखते थे। पालमपुर से गुरमुख सिंह बेदी और सुजानपुर (हमीरपुर) से राजेश चौधरी भी पंजाबी में शायरी का शौक रखते हैं। हो सकता है कुछ और भी कवि बंधु काव्य लेखन में प्रवृत्त हों जिनके बारे में जानकारी प्राप्त करने का प्रयास होना चाहिए।
-(शेष भाग निचले कॉलम में)

हिमाचल में पंजाबी साहित्य लेखन

हंसराज भारती : हंसराज भारती ने अपनी कलम की आजमाईश अमृतसर से आरंभ की थी। शुरुआती दौर में हिंदी के साथ पंजाबी में भी कविताएं लिखते रहे जो पंजाबी अखबारों और कुछ लघु पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। पंजाब से पलायन के बाद हिमाचल में आने पर पंजाबी में लिखने का क्रम बाधित तो हुआ, लेकिन बंद नहीं हुआ। छुटपुट कविताएं लिखते रहे। जनवरी 2019 में चंडीगढ़ और अप्रैल में पटियाला में व्यक्तिगत सम्मेलनों में काव्य पाठ किया। एक बानगी :
ओह कवि है ते आस करदा है कि
ओसदीयां कवतावां धरती हेठले बलद नूं
इक दिन धरती हलाऊण ते जरूर
मजबूर कर देणगी ते
इक नवीं उथल-पुथल होवेगी।
ऐसा भी नहीं कि हिमाचल प्रदेश में पंजाबी को पूरी तरह से देश निकाला हो। यहां का लोक जीवन और लोक संस्कृति पंजाबी से गहरे प्रभावित हैं। भले ही यहां पंजाबी में विधिवत लेखन या पठन-पाठन न हो, परंतु यहां के कई साहित्यकार पंजाबी जानते और पढ़ते हैं। पंजाबी के नामवर शायरों, कथाकारों से परिचित हैं। उनकी रचनाओं के मुरीद हैं। कई लेखकों-कवियों की पुस्तकों, कहानियों का अनुवाद प्रकाशित हुआ है। हिमाचल के रचनाकारों की रचनाओं का भी पंजाबी अनुवाद प्रकाशित हुआ है। जरूरत है इस सिलसिले को और आगे बढ़ाने की। आशा है कि निकट भविष्य में इस ठहराव में परिवर्तन होगा और एक नई बयार बहेगी।

-हंसराज भारती

अतिथि संपादक की टिप्पणी
ऐसा हरगिज नहीं कहा जा सकता कि हिमाचल में पंजाबी भाषा में साहित्य नहीं रचा गया। हां, इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि पंजाबी में रचित साहित्य का विधिवत नोटिस नहीं लिया गया। एक अनुमान के अनुसार हिमाचल में बीस प्रतिशत लोग पंजाबी बोलते हैं। और वर्षों तक पंजाबी यहां दूसरी भाषा रही है। पंजाबी की भांति उर्दू भाषा का स्टेटस भी हिमाचल में उपेक्षापूर्ण रहा है। फिर भी पांवटा साहिब में गुरु गोबिंद सिंह जी के बावन कवियों ने ब्रज भाषा में तथा मिलीजुली पंजाबी में साहित्य सृजन किया, जो भक्ति काव्य का महत्त्वपूर्ण अंश है। कांगड़ा के कमिश्नर रहे डा. महेंद्र सिंह रंधावा ने जहां पहाड़ी प्रदेश के कला, साहित्य एवं चित्रों का संग्रहण करवाया, वहीं पंजाबी भाषा में ‘कांगड़ा’ शीर्षक से वृहद ग्रंथ का प्रकाशन करवाया। इस गं्रथ में कांगड़ा के सभी पक्षों पर विस्तृत जानकारी है। यह ग्रंथ चौधरी सरवण कुमार हिमाचल प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में उपलब्ध है।

एशिया के प्रथम कृषि इंजीनियर स्वं. डा. गुरमुख सिंह बेदी की पंजाबी में एक पुस्तक, जिसे पंजाबी साहित्य अकादमी ने प्रकाशित किया था, ‘उग्घ पताल’ शीर्षक से अपने समय में बहुचर्चित रही। हरबीर सिंह भंवर ने पंजाबी में खूब लिखा। मूलत: अंग्रेजी भाषा के पत्रकार थे, परंतु सरदार सोभा सिंह के दामाद थे। उन्होंने पंजाबी मेें अनेक लेख चित्रकला पर भी लिखे। सरदार सोभा सिंह ने भी पंजाबी में कविताएं लिखी। उनकी एक कविता लिखारी कलाकारों की स्थिति पर प्रकाश डालती है। हृदयपाल सिंह ने भी हिंदी के साथ-साथ पंजाबी में भी कविताएं लिखी हैं। डलहौजी के मनमोहन बाबा ने भी पंजाबी में महत्त्वपूर्ण साहित्य की रचना की है। उनका होटल कवियों से सदा गुलजार रहता है। कवि एवं कहानीकार राजेंद्र पालमपुरी ने भी वर्षों पहले पंजाबी में गीत लिखे। फिर उनका रुझान हिंदी की ओर हो गया। हरबीर सिंह भंवर ने ऊधम सिंह के जीवन पर आधारित मेरे उपन्यास ‘ललकार’ का पंजाबी अनुवाद प्रीतलड़ी की बाल पत्रिका ‘बाल संदेश’ में 34 किस्तों में प्रकाशित करवाया। यह सन् 78-80 की बात है। आजकल पालमपुर की डा. अविनाश शर्मा पंजाबी में डायरी लिख रही हैं। मेरा मत है कि पंजाबी में लिखने वाले और लेखक भी विद्यमान होंगे। प्रश्न उनकी खोज खबर लेने वाले उत्साही व्यक्ति का है। कोई न कोई शोधकर्ता इस ओर ध्यान देगा ही। हंसराज भारती ने अपने आलेख से शुरुआत कर दी है।

अपनी सहजता के साथ कहानी सुनाते शेर सिंह

वर्षों की अपनी नौकरी से मिले अनुभवों तथा मानव व्यवहार के सिलसिलों से तपी कलम से एक बार फिर शेर सिंह ‘बावला’ नामक कहानी संग्रह की पेशकश में समाज के भीतर से कुछ कांटे चुन लेते हैं। कुल सत्रह कहानियों में से अधिकांश अपने लघुकथा के खाके से बाहर आकर नए संबोधन पैदा करती हैं। कहीं-कहीं आत्मकथ्य की तरह और कहीं सादगी से जिंदगी के पन्नों पर उकेरे गए घटनाक्रम सरीखी हो जाती हैं। ‘भूख’ कहानी अपने अवलोकन में एक ऐसा कथा संसार चुनती है जो मीलों लंबे अभिप्राय में अंतत: ‘दो जून की रोटी’ ही निकलती। चंद कौर, आटे जैसे गूंथे गए सपने और हर दिन चूल्हे पर चढ़ती जिंदगी। एक मुस्कान के लिए ‘मुस्कान’ के पात्र में नाबालिग लडक़ी का संघर्ष अपने द्वारा पैदा की गई नागफनी में फंस जाता है, सिर्फ एक किस्सा बनकर। ‘असर’ में कोरोना से पैदा हुए द्वंद्व से मुलाकात करती कहानी अपने भीतर की जिज्ञासा उंडेल देती है। इसी तरह ‘संक्रमण काल’ भी लॉकडाउन के दौर में रिश्ते-नातों के बीच समाज का नया शास्त्र खोजने की कोशिश करती है। कमोबेश हर कहानी में लेखक एक घटनाक्रम रचता है और खुद इससे बाहर निकलने का प्रयास करता है, लेकिन परिवेश के मजमून उसके कदम रोक लेते हैं। इसलिए आप अंदाजा लगा सकते हैं कि वह कितना और कहां तक जाना चाहता है। इसी वजह से कुछ कहानियों को आगे बढऩे से रुकना पड़ा या कुछ अन्य रोक दी गईं, फिर भी कहना पड़ेगा कि माटी और माथे के दर्द को समेटती कहानियां पारिवारिक संबंधों, गांव-देहात के मसलों, जिंदगी के उतार-चढ़ाव, यंत्रणाओं, रिश्तों की यातनाओं के साथ-साथ अस्तित्व के प्रश्न खड़े करती हैं। औरत के वजूद को पारंगत करने की कोशिश में ‘नानकी’ अपने तमाम झंझावात को बुनती हुई प्रतीत होती है, लेकिन अकेलेपन के बीहड़ में, मानव जाति पर अफसोस जताने के लिए बिल्लियों की आंखें भी आंसुओं से भर जाती हैं। कई मायनों में ‘बावला कहानी संग्रह’ लेखक के व्यक्तित्व को पढऩे के लिए सुविधा प्रदान करता है, फिर भी ‘ध्यानी का भग्गी’ इसके भीतर अपनी छाप छोड़ता है। इश्क की फसल से संवेदना के रेगिस्तान में जो हलचल हो सकती है या उसकी प्यास में रेत को तृप्त करने की जो अनुभूति हो सकती है, उसे बारीकी से बुना है कहानीकार शेर सिंह ने। प्रेम का मनोविज्ञान जिरह नहीं करता, लेकिन यहां जिंदगी की हकीकत तर्कपूर्ण है, इसलिए कहानी अंतत: तर्कों के हवाले कर दी जाती है। ‘पिता’ की भूमिका का उच्चारण और परवरिश के दौर में उसकी औलाद के कटु अनुभव जैसे समेटे जा रहे हों। जिंदगी के असहाय पक्ष से वार्तालाप करती कहानी कठोर पिता की यादों को जैसे कोई कोमल तितली सुना रही हो।

जमीन की रेखाओं में रिश्तों को ढंूढते और हथेली पर मेहनत की रेखा पर लिखी कहानी, ‘स्वाभिमानी’, पुश्तैनी जमीन के बंटवारे से निकली तंगहाली और बदलते दौर की आर्थिकी में थोथे स्वाभिमान से उपजी निराशा को ढो रही है। घर की शिकायत किस तरह मानवीय तरक्की को गच्चा दे सकती है या मध्यम वर्ग के संघर्ष में आफत मोल लेना क्या होता है, इसे ‘सफाई’ से कहा गया है और इसीलिए अंतिम चरण में कहानी सफाई कर्मियों की बेपरवाह जिंदगी में फंसी गाद को सीने में समेट लेती है। ‘स्वयंभू’ अपने टाइटल को अर्थ पिपासा के मुकाबले में खड़ा कर देती है और जहां धन भी अपनी श्रद्धा का पाखंड पैदा करता है। देवू से देव बनता कौशल आखिर है तो व्यापार ही और मंदिर में व्यापार की अदृश्य परंपरा से निकलती कमाने की शक्ति अगर प्रेरणा बन जाए, तो आरती की थाली में भ्रष्टाचार के दीपक कितनी देर जलेंगे। श्रद्धा की लूट खसोट पर चित्रित ‘स्वयंभू’ कहानी हमारे आसपास को टटोल जाती है। ‘बावला’ कहानी अपने आसपास मनोविज्ञान पैदा करती है और जहां अकल्पनीय शक्ति के तहत पति-पत्नी के संबंधों की खाक छानते सपने भी इतने क्रूर हो जाते हैं कि हर व्यक्ति कभी न कभी और कहीं न कहीं बावला हो सकता है। इस संग्रह में कहानीकार अपनी संवेदना को खुलकर प्रकट कर रहे हैं, ‘भाग्य और समय सदैव एक-सा नहीं रहता। ध्यानी सह रही थी। उसके प्रेम में घुन लग गया था।’

-निर्मल असो

कहानी संग्रह : बावला
लेखक : शेर सिंह
प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, जयपुर
कीमत : 175 रुपए

पुस्तक समीक्षा : भारतीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों का सेंसेक्स

विविधता भरे भारत की राजनीति को समझना टेढ़ी खीर है। धर्म, जात, पंथ, क्षेत्र, भाषा और राजनीतिक वरीयताओं में उलझी भारतीय राजनीति की कई परतें हैं। इन परतों को खोलने से पहले क्षेत्रीय दलों के राजनीतिक चरित्र को समझना अत्यंत आवश्यक है। कुछ क्षेत्रीय दल अपने इलाकों में प्रभुत्व जमाने में सफल रहे तो कुछ ने राष्ट्रीय फलक पर अपने निशान उकेर दिए। अपनी पहचान बनाने को उनकी छटपटाहट आज भी उतनी ही गहरी है। क्षेत्रीय दलों के इतिहास, वर्तमान और भविष्य के साथ उनकी राष्ट्रीय महत्त्वाकांक्षाओं को अगर समझना है तो अकु श्रीवास्तव की नई किताब ‘सेंसेक्स क्षेत्रीय दलों का’ आपके लिए है। किताब क्षेत्रीय दलों की पैदाइश को नए नजरिए से देखती है। यह जानना दिलचस्प है कि कुछ क्षेत्रीय दल आजादी से पहले या उसके आसपास जन्म ले चुके थे। दक्षिण में द्रविड़ मुन्नेत्र कडग़म और पंजाब में अकाली दल इसका उदाहरण हैं।

ये दल बेशक कांग्रेस से ज्यादा पुराने न हों, पर समकक्ष जरूर कहे जा सकते हैं। आजादी के बाद और नेहरू युग की समाप्ति के उपरांत कांग्रेस जरूर अमीबा की तरह बंटती चली गई, पर वह अकेली इन क्षेत्रीय दलों को बनाने का सेहरा अपने सिर नहीं बांध सकती। किताब उन कारणों पर भी नजर डालती है जो इन दलों के कोर वोटरों को कहीं अंदर तक छूता है। क्षेत्रीय दलों के वजूद को बनाए रखने में मददगार नेताओं और वंशवाद के साथ कई अन्य महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर भी किताब फोकस करती है। जातीय समीकरणों के जरिए सत्ता का स्वाद चखने जैसे अनेकों फॉर्मूलों और क्षेत्रीय दलों के हर दांव को बारीकी से समझने में यह किताब मदद करती है। यह किताब 375 पन्नों की है और हर पन्ने पर प्रादेशिक पार्टियों का भूत, भविष्य और वर्तमान बिखरा मिलेगा। प्रभात प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित इस किताब की कीमत 400 रुपए है। स्थानीय पार्टियों की राज्य स्तरीय व राष्ट्रीय आकांक्षाएं और उनके केंद्रीय राजनीति पर पडऩे वाले असर को भी समझने की एक कोशिश किताब में दिखाई देती है।                                                                                                                                                      -संजय पांडे


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App