स्मृतियों में बसे सोलन के साहित्यकार

By: Sep 11th, 2022 12:08 am

साहित्य की निगाह और पनाह में परिवेश की व्याख्या सदा हुई, फिर भी लेखन की उर्वरता को किसी भूखंड तक सीमित नहीं किया जा सकता। पर्वतीय राज्य हिमाचल की लेखन परंपराओं ने ऐसे संदर्भ पुष्ट किए हैं, जहां चंद्रधर शर्मा गुलेरी, यशपाल, निर्मल वर्मा या रस्किन बांड सरीखे साहित्यकारों ने साहित्य के कैनवास को बड़ा किया है, तो राहुल सांकृत्यायन ने सांस्कृतिक लेखन की पगडंडियों पर चलते हुए प्रदेश को राष्ट्र की विशालता से जोड़ दिया। हिमाचल में रचित या हिमाचल के लिए रचित साहित्य की खुशबू, तड़प और ऊर्जा को छूने की एक कोशिश वर्तमान शृंाखला में कर रहे हैं। उम्मीद है पूर्व की तरह यह सीरीज भी छात्रों-शोधार्थियों के लिए लाभकारी होगी…

अतिथि संपादक, डा. सुशील कुमार फुल्ल, मो.-9418080088

हिमाचल रचित साहित्य -30

विमर्श के बिंदु
1. साहित्य सृजन की पृष्ठभूमि में हिमाचल
2. ब्रिटिश काल में शिमला ने पैदा किया साहित्य
3. रस्किन बांड के संदर्भों में कसौली ने लिखा
4. लेखक गृहों में रचा गया साहित्य
5. हिमाचल की यादों में रचे-बसे लेखक-साहित्यकार
6. हिमाचल पहुंचे लेखक यात्री
7. हिमाचल में रचित अंग्रेजी साहित्य
8. हिमाचल से जुड़े नामी साहित्यकार
9. यशपाल के साहित्य में हिमाचल के रिश्ते
10. हिमाचल में रचित पंजाबी साहित्य
11. चंद्रधर शर्मा गुलेरी की विरासत में

अमरदेव आंगिरस, मो.-9418165573

लोकसाहित्य की परिणति शिष्ट साहित्य के रूप में हुई है। शिष्ट का अभिप्राय: कुछ निर्दिष्ट नियमों में बंधे साहित्य से है। लोकसाहित्य प्राकृतिक परिवेश में ग्रामीण जनमानस की स्वतंत्र अभिव्यक्ति है। ये लोक भावनाएं लोक गीतों, गाथाओं, लोक कथाओं और लोकोक्तियों में सरस और स्वाभाविक रूप से व्यक्त होती हैं। इसलिए विद्वानों ने साहित्य का मूल लोकसाहित्य को ही माना है। सबसे प्राचीन साहित्य वैदिक साहित्य को माना गया है जो किसी ग्रंथ के रूप में उपलब्ध नहीं था, बल्कि ऋषियों और वेद व्यास ने समय-समय पर ऋचाओं को संकलित कर ‘संहिता’ का रूप प्रदान किया था। प्रकाशन की सुविधा न होने के कारण यह ‘श्रुति’ के रूप में सामने आया। यूं कहा जाए कि ईस्वी सन् ई. दूसरी शती पूर्व तक साहित्य जनश्रुतियों, कथाओं के रूप में सुरक्षित रह सका। उत्तर वैदिक काल के पश्चात भोजपत्रों, बांस, पेड़ों की छालों आदि में लिखा जाने लगा, जो बुद्ध के पश्चात लिखकर संरक्षित हो सका।

पहली शती के पश्चात साहित्य का लेखन स्वरूप निरंतर विकसित होता रहा। ईसा पूर्व दूसरी शती में चीन में कागज का आविष्कार हो गया था जिसका प्रभाव भारतीय साहित्य पर भी पड़ा। वैसे सिंधु घाटी सभ्यता में भी मूर्तियों पर कुछ लिपि मिली है जो पढ़ी नहीं जा सकी है। आजादी से पहले छापाखाने के आविष्कार तक साहित्य हिमाचल ही नहीं, भारतवर्ष का साहित्य भी, लोकसाहित्य के रूप में श्रुतियों, अनुश्रुतियों, दंतकथाओं, मिथकों एवं स्वांगों के रूप में संरक्षित रहा। आजादी के पश्चात रेडियो, समाचार पत्रों के श्रीगणेश से पर्याप्त लिखित साहित्य सामने आने लगा। रेडियो और समाचार पत्रों की इसमें विशेष भूमिका रही। एक सितंबर, 1972 को जिलों के पुनर्गठन से सोलन अस्तित्व में आया। स्वाभाविक था कि शिमला से निचली 12 रियासतों के लोकसाहित्य और पूर्व रचित रचनाओं पर विशेष ध्यान केंद्रित हुआ होता। प्रारंभ में सोलन के नाम पर बघाट के राजा दुर्गा सिंह, शूलिनी देवी और इसके आसपास के मेलों-त्योहारों पर अधिकांश लेखन हुआ। आकाशवाणी के माध्यम से सोलन क्षेत्र के एसएसएस ठाकुर, भीमदत्त काले, एस. शशि आदि ने विभिन्न विधाओं से जनसाधारण को परिचित करवाया। प्राचीन साहित्य गीतियों के रूप में अपनी बोली में गुमनाम कवियों ने अवश्य जनसाधारण को प्रस्तुत किया। ऐसे नाम भोलू मांगता, श्याम कवि, वेणी माधव आदि नाम सुने जाते हैं।

आजादी के पश्चात स्मृतियों में रचे-बसे कुछ साहित्यकार अविस्मरणीय कहे जा सकते हैं। आकाशवाणी शिमला के माध्यम से स्वर्गीय डा. भीमदत्त काले का नाम प्रमुख है। यह मूलत: संगीतकार थे। पहाड़ी संस्कृति को आगे लाने में इनका बड़ा योगदान रहा। यह संस्कृत, हिंदी व पहाड़ी के श्रेष्ठ लेखक थे। प्राय: सभी तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में इनके लेख, कविताएं प्रकाशित होती रहती थी। आकाशवाणी शिमला से निरंतर इनकी सांस्कृतिक वार्ताएं प्रसारित होती रहती थी। भाषा-संस्कृति विभाग की पत्रिकाओं में बाघली, बघाटी, क्योंथली आदि पर इनके शोध लेख छपे थे। एसएसएस ठाकुर के साथ लोक नाट्यों के प्रसारण में इनका सहयोग रहता था। एसएसएस ठाकुर तथा एस. शशि (वर्तमान) के साथ आकाशवाणी में पारंपरिक लोकगीतों का सुंदर प्रसारण होता रहा। महासुवी कार्यक्रम में कला ठाकुर और अमर सिंह ठाकुर का योगदान भी अविस्मरणीय है। डा. ईश्वरी दत्त शर्मा, जो सोलन ब्रुरी के निवासी थे, इन्होंने बघाटी बोली पर पीएचडी की थी। किंतु इस शोध पर कोई चर्चा न हो सकी है। यद्यपि इन्होंने अनेक सांस्कृतिक तथा भाषा पर आलेख प्रकाशित किए थे। स्व. राम कुमार काले सोलन के निवासी थे, जो ‘संन्यासी’ के नाम पर पत्रों में लिखते थे। यह संस्कृत और पहाड़ी के अच्छे लेखक थे। संस्कृत के विद्वानों में आचार्य शालिग्राम का नाम प्रमुख है। इनकी न्यायदर्शन भाष्यम, शिवतत्व विमर्श तथा वैशेषिक भाष्यम संस्कृत रचनाएं हैं। पंडित संतराम शर्मा का पत्रकारिता के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। यह समाचारपत्रों में अंग्रेजी, हिंदी और पहाड़ी में समान रूप से लिखते थे। ‘करेवड़ा कृष्ण पत्रकार’ इनकी व्यंग्य रचना है और ‘उसी छत के नीचे’ इनका शृंगारिक उपन्यास है। यह पुस्तक संग्रह के विशेष शौकीन थे। हिमाचल के सभी लेखकों की खरीदी गई पुस्तकें इनके पुस्तकालय में उपलब्ध हैं। भाषा-संस्कृति विभाग की समस्त पत्र-पत्रिकाओं में इनके आलेख छपते रहे। पत्रकारिता क्षेत्र में इन्हें अनेक सम्मान प्राप्त हुए। उनका अंग्रेजी उपन्यास ‘बुदरिंग मॉस’ इंग्लैंड से छपा।

सोलन के दिवंगत लेखकों को नमन

-(ऊपरी कॉलम का शेष भाग)
स्वर्गीय विजय सहगल पत्रकारिता के क्षेत्र में भारत में जाना-माना नाम है। यह सपाटू के निवासी थे। इनका ‘बादलों के साये’ उपन्यास सुप्रसिद्ध है तथा ‘आधा सुख’ कहानी संग्रह चर्चित रहा। दैनिक ट्रिब्यून के संपादक-पत्रकार रहकर इन्होंने हिमाचली पहाड़ी साहित्य को विशेष प्रोत्साहित किया। हिमाचली लेखकों को नए स्तम्भ देकर लेखन के लिए प्रेरित किया। 1981 में इन्हें ‘मातृ श्री’ सम्मान से सम्मानित किया गया। इनकी कहानियां, लेख, फीचर, यात्रा वृत्त, शोध लेख और साक्षात्कार देश-प्रदेश की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। ये दैनिक वीर प्रताप, भारत टाइम्स तथा दैनिक ट्रिब्यून में कार्यरत रहे। स्वर्गीय जयदेव किरण हिंदी-पहाड़ी के सशक्त कवि रहे। गीतकार थे। ये लुहारघाट, मलौण किला के निवासी थे। इनके पूर्वज 1805 के गोरखा आक्रमण के समय यहां बस गए थे। ये नेपाली भाषा में भी समान अधिकार रखते थे। इनका हिमाचली पहाड़ी में लिखा ‘पात्थरो रे माण्हू’ सुविख्यात काव्य संकलन है जो 4-5 दशकों से पाठकों को लुभा रहा है। इनकी कविताएं काव्य गोष्ठियों, स्कूलों, आकाशवाणी, दूरदर्शन आदि में धूम मचाती रही हैं। इनकी काव्य की विशेषता संगीतमयता एवं भाषा की सरलता है। इनका अन्य सुप्रसिद्ध संकलन ‘पहाड़ा री पीड़’ है।

इन्हें भाषा संस्कृति अकादमी ने शिखर सम्मान से सम्मानित किया। बद्री सिंह भाटिया पत्रकारिता के क्षेत्र में जाना-पहचाना नाम रहा है। कोरोना काल में ये स्वर्गवासी हुए। जीवन पर्यंत प्रदेश के लोकप्रिय समाचार पत्र गिरिराज साप्ताहिक एवं हिमप्रस्थ से जुड़े रहे। ये अर्की के ग्याणा गांव के निवासी थे। इनका कहानी के क्षेत्र में उल्लेखनीय नाम है। इनका पड़ाव, आवाज, कंटीली तारों का घेरा उपन्यास एवं कहानी संग्रह चर्चित रहे हैं। इन्हें उपन्यास के क्षेत्र में हिमाचल कला, संस्कृति एवं भाषा अकादमी से राज्य स्तरीय पुरस्कार प्रदान किया गया। नए लेखकों को मंच प्रदान करने में इनका विशेष योगदान रहा। ये प्राय: सभी साहित्य गोष्ठियों की शोभा बढ़ाते रहे। ‘डेंजर जोन’ इनका पुरस्कृत उपन्यास था। स्वर्गीय डा. सोहन लाल गौतम भ्याणा धुंदन के निवासी थे, जो श्रेष्ठ उभरते हुए साहित्यकार थे। इनके अनेक लेख, शोध पत्र, हास्य व्यंग्य, कविताएं देश-प्रदेश की पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहे। इनका एक काव्य संग्रह निकला है- ‘जब मां नहीं होती’। ये उच्च कोटि के शिक्षाविद भी थे। सोलन क्षेत्र में अन्य कई दिवंगत साहित्यकार हैं जिनकी छिटपुट रचनाएं प्रकाशित होती रही हैं। इन विद्वानों ने साहित्य की भूमि उर्वरा बनाई है जिससे नए लेखक प्रोत्साहित हो रहे हैं। वर्तमान सोलन प्रारंभिक महासू जिले का भाग रहा है। आज इसमें बघाट, बाघल, महलोग, कुठार, बेजा, कुनिहार, मांगल, क्योंथल का कुछ भाग तथा नालागढ़ (हंडूर) रियासतों को मिलाकर ‘सोलन’ जिले का नाम दिया गया है। इसका कारण शिमला से ऊपर की 18 ठकुराइयों की भाषा अथवा तनिक सांस्कृतिक भिन्नता से इन्हें अलग दो जिलों शिमला एवं सोलन में विभाजित किया गया। 1971 के पुनर्गठन तक दोनों क्षेत्रों के साहित्यकार, नेता आदि सांझे रूप से साहित्यिक गतिविधियों में भाग लेते रहे। अनेक सोलन क्षेत्र के कवि व साहित्यकार शिमला क्षेत्र में बस गए। साहित्यिक दृष्टि से अंग्रेजों के समय से सोलन (बघाट) उनकी छावनी अथवा एक छोटी राजधानी होने के कारण यहां क्षेत्र के महत्त्वपूर्ण राजनीतिक व्यक्तियों, कलाकारों एवं संस्कृत विद्वानों को आदर एवं प्रश्रय मिलता रहा है। सोलन के अंतिम राजा दुर्गा सिंह प्रभावशाली व्यक्तित्व के स्वामी ही नहीं, एक उच्च कोटि के संस्कृत के विद्वान भी थे। अनेक संस्कृत के विद्वान कवियों को इनके दरबार में सम्मान प्राप्त था। इन्होंने रियासतों में सर्वप्रथम सोलन नगर में एक संस्कृत विद्वान ताराचंद के नाम पर आजादी के समय वारिणी संस्कृत कालेज की स्थापना की, जिससे अनेक विद्वान कवि अस्तित्व में आए। इनके महाविद्यालय के प्रधानाचार्य महामहोपाध्याय मथुरा प्रसाद दीक्षित ने संस्कृत में 33 ग्रंथ रचे। इनके अतिरिक्त दर्जनों संस्कृत के विद्वानों ने ग्रंथ रचना की। बघाट के अतिरिक्त बाघल रियासत (136 वर्ग मील) जो बघाट से भी चार गुना बड़ी थी, इस रियासत के राजा ध्यान सिंह (1877) और किशन सिंह (1857) के दरबारों में कवि सभाएं एवं संगीत के कार्यक्रम होते रहते थे। प्रकाशन की सुविधा न होने से पुस्तक रूप में रचनाएं उपलब्ध नहीं होती, किंतु हस्तलिखित धार्मिक पोथियों में किन्हीं के नाम मिल जाते हैं। बातल गांव के प्रसिद्ध संगीतकार और गायक पं. परमानंद जी ने स्वरचित भजनों एवं लोकगीतों का संग्रह किया था जो प्रकाशित न हो सका। इसी गांव के अनेक पहाड़ी गीत स्वर्गीय वर्णदत्त जी के भी सुनने को मिलते हैं। अन्य रियासतों महलोग, कुठार, नालागढ़, कुनिहार, मांगल, बेजा में भी आशुकवियों के बारे में सुनने को मिलता है, लेकिन संग्रह नहीं मिलते। इस विषय में शोध की आवश्यकता है।                                                                                -अमरदेव आंगिरस

चिंतन : पोरी मेला : संस्कृति का परिचायक

शेर सिंह, मो.-8447037777

पोरी शीषर्क देखकर ही आपके मन में जिज्ञासा और उत्सुकता जाग रही होगी। है ही यह कुछ अलग प्रकार की संस्कृति-संस्कारों, रीति-रिवाजों, क्षेत्र-परिवेश विशेष से संबंधित एक निराला उत्सव। लेकिन निराला होने के बावजूद आज भी यहां के क्षेत्रवासी अपनी इस प्राचीन परंतु विशिष्ट संस्कृति को मूल रूप में बचाए हुए हैं। और वैसी ही श्रद्धा भाव से उसका पुरातन पद्धति के अनुसार ही बड़ी संजीदगी और गंभीरता के साथ व्यावहारिक रूप में निर्वहन कर रहे हैं। यह सर्वविदित है कि उत्सव-त्यौहार-मेले इत्यादि किसी भी समाज, क्षेत्र की संस्कृति और संस्कारों को जिंदा रखने के लिए प्राण वायु की तरह होते हैं। किसी भी क्षेत्र के लोकजीवन की पहचान के परिचायक होते हैं।

ये मेले-उत्सव ही हैं, जो किसी भी समृद्ध और विशिष्ट संस्कृति-संस्कारों और परंपराओं-प्रथाओं को अक्ष्क्षुण बनाए रखने के साथ-साथ उनकी जीवंतता के साधन और सारथी होते हैं। किसी भी समुदाय, क्षेत्र, देश अथवा विदेश की संस्कृति-संस्कारों, रहन-सहन को जानने-समझने के लिए वहां के मेले-उत्सवों को देखने अथवा उनमें शामिल होकर बहुत कुछ समझ आ जाती है। किसी भी क्षेत्र की अपनी विशेषताएं और परंपराएं होती हैं। ऐसे ही कुछ विशेष मेलों-उत्सवों, प्रथाओं-परंपराओं, लोक जीवन-लोक संस्कृति को जानने-समझने के लिए हम हिमाचल प्रदेश के सीमावर्ती जिलों लाहुल एवं चंबा की ओर चलते हैं। पोरी दरअसल ‘पुर’ शब्द है। और पुर का अर्थ धाम होता है। धाम यानी देव स्थान जैसे बैकुंठ धाम। त्रिलोकनाथ को भगवान शंकर का पुर अर्थात धाम माना जाता है। कालांतर में पुर बिगड़ते-बिगड़ते पोरी हो गया। इस प्रकार पोरी मेले का वास्तविक आशय या प्रयोजन, देव धाम में उत्सव से है। भारतीय संस्कृति और लोक जीवन में वर्षा ऋतु जिसे आम बोल-चाल में श्रावण मास या सावन का महीना भी कहा जाता है, जन सामान्य में विशेष स्थान रखता है। वर्षा ऋतु अथवा सावन का महीना विभिन्न प्रकार के प्राणियों, जीव-जंतुओं के प्रजनन से संबंधित होने के साथ-साथ पेड़-पौधों के फलने-फूलने का बेहतरीन समय माना जाता है। लेकिन हिंदू मान्यताओं एवं विश्वास के अनुसार सावन का महीना देवों के देव महादेव. यानी भगवान शंकर का विशेष प्रिय समय माना जाता है।

इस दौरान पूरे भारतवर्ष में विविध विधियों द्वारा भगवान शंकर की विशेष पूजा-अर्चना, उपासना-स्तुति की जाती है। तीर्थ स्थानों, धामों की यात्रा कर गंगा जल अथवा पवित्र नदियों के जल लाकर उससे शंकर भगवान का अभिषेक करते हैं। कहीं मेले-उत्सवों का आयोजन कर उनको प्रसन्न करने का प्रयास करते हुए सुख-समृद्धि की कामनाएं की जाती हैं। हम उल्लेख कर रहे थे लाहुल और चंबा क्षेत्रों में आयोजित किए जाने वाले मेले-उत्सवों का। जैसा कि विदित है और मान्यता है, देवों के देव महादेव भगवान शिव शंकर कैलाश पर्वत पर वास करते हैं। हिमालय ही उनका घर है। मिथकों, पुराणों, लोक मान्यताओं के अनुसार वहीं से संपूर्ण जगत यानी तीनों लोकों का ध्यान रखते हैं। लाहुल के त्रिलोकनाथ में भगवान शिव शंकर का बहुत ही अद्भुत तथा शताब्दियों पुराना प्राचीन मंदिर है। माता पार्वती हिमालय की बेटी हैं। लाहुल को माता पार्वती का मायका माना जाता है। कहा जाता है कि देवी पार्वती द्वारा भगवान शंकर को पति रूप में पाने के लिए कठोर तप के फलस्वरूप भगवान शिव प्रकट हुए। उन्हें पत्नी रूप में स्वीकार किया और दोनों का विवाह हुआ। तब से लेकर पूरा श्रावण मास शिव और पार्वती दोनों का प्रिय माह बन गया। चूंकि मां गौरा का मायका लाहुल को माना जाता है, इसलिए इनका शुभ विवाह त्रिलोकनाथ में संपन्न होना माना जाता है। शिव-पार्वती के इस पवित्र विवाह के उपलक्ष्य में प्रति वर्ष त्रिलोकनाथ में सावन का मेला लगता है। लाहुल की स्थानीय बोली में सावन के मेले को ‘पोरी जातर’ कहा जाता है। इस मेले को अब राज्य स्तर पर मनाया जाने लगा है। पोरी का मेला प्रति वर्ष अगस्त माह के दूसरे सप्ताह तक, परंतु श्रावण मास (स्थानीय बोली में जातर का महीना) की 15 तारीख के बाद पडऩे वाले पहले मंगलवार को ही लगता है। पोरी मेले का प्रमुख उद्देश्य शिव-पार्वती के शुभ विवाह की वर्षगांठ को मनाना है। शिव-पार्वती के शुभ विवाह को पावन पर्व के रूप में मनाए जाने की यह परंपरा इस क्षेत्र में सदियों से प्रचलित है। मेला तीन दिनों तक चलता है। मेले में त्रिलोकनाथ का ठाकुर यानी ठाकुर वंश का मौजूदा उत्तराधिकारी घोड़े पर बैठ कर, आम लोगों के साथ गाजे-बाजे सहित सप्त धाराओं की ओर प्रस्थान करता है। त्रिलोकनाथ मंदिर से सप्त धाराओं की दूरी लगभग 2 किलोमीटर है। सप्त धारा में शिव की स्तुति तथा पारंपरिक रूप से धार्मिक अनुष्ठान करते हुए ठाकुर सहित सभी उपस्थित जन समूह सप्त धारा की परिक्रमा करते हैं।

-(शेष भाग अगले अंक में)

पुस्तक समीक्षा : जीवन के साक्ष्य देती कविताएं

‘‘कविता होते साक्ष्य’’ वरिष्ठ साहित्यकार डा. ओमप्रकाश सारस्वत का छठा काव्य संकलन है। इससे पूर्व डा. सारस्वत के निबंध, व्यंग्य, नाटक और आलोचना पुस्तकों के अलावा कविता और गज़़ल-गीत संग्रह छप चुके हैं। हिमाचल विश्वविद्यालय में पत्राचार पाठ्यक्रम के निदेशक रह चुके डा. सारस्वत ने लंबे समय तक इस विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य कर अपनी सेवाएं दी हैं। इनके निर्देशन में कई शोध छात्रों ने एम. फिल और पीएचडी की उपाधियां प्राप्त की हैं। सूर्यप्रभा प्रकाशन सुलतानपुरी नई दिल्ली से प्रकाशित प्रस्तुत काव्य संकलन की कविताओं को चार भागों में बांटा गया है : सागर के तट, लेह-लद्दाख, बावले हैं फूल और आशीर्वादों की तरह। प्रथम खंड ‘‘सागर के तट’’ में छोटी-छोटी ग्यारह कविताएं हैं जिनमें तट, सागर, लहर और रेत के माध्यम से बिम्ब क्रिएट किए गए हैं। मर्यादित भाषा के प्रयोग से अपनी संवेदनाओं को प्रकट करते हुए सांकेतिक रूप से बात कही गई है।

छोटे वाक्यांशों के माध्यम से कवि ने बड़ी बात कहने की कोशिश की है। ‘‘लेह लद्दाख’’ खंड में लामाओं की बौद्ध भूमि में बुद्ध की थाती, ‘ऊं मणि पद्मू हूम’ मन्त्रजाप, सिन्धु नदी और बादलों के क्षीर सागर का वर्णन कविताओं के माध्यम से किया गया है। ‘‘बावले हैं फूल’’ खंड में दस कविताएं हैं। इन कविताओं में फूल के माध्यम से कवि द्वारा विभिन्न विचार रखे गए हैं जो फूलों की महत्ता को दर्शाते हैं व जीवन का रहस्य भी बताते हैं। अंतिम खंड ‘‘आशीर्वादों की तरह’’ शहर से लेकर किसान, घर, नारी, उत्सव आदि जीवन के अनेक पहलुओं पर केन्द्रित है। इस खंड में मानव मन के अलग-अलग सोच और दृष्टि के भाव कविता के माध्यम से कहे गए हैं। संकलन में जीवन के विविध विषयों पर कविता के माध्यम से अलग-अलग ढंग से बात कही गई है जो आज के समय को किसी न किसी रूप में उद्घाटित करती है। कम से कम शब्दों में, छोटे-छोटे वाक्यांशों के प्रयोग से कवि ने अपनी बात कह कर अपनी शब्द शक्ति का परिचय दिया है। संकलन पठनीय बन पड़ा है, इसमें कोई संशय नहीं। इसका मूल्य 250 रुपए है।

-सुदर्शन वशिष्ठ


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