अपने ही बसेरों में बेहाल बाघ

पर्यावरणविदों का मानना है कि जंगल के पर्यावरण की जितनी सुंदर देखरेख स्थानीय ग्रामीण कर सकते हैं, उतनी शहरी या विदेशों में दीक्षित विशेषज्ञ नहीं। जंगल से उनका रिश्ता ऐतिहासिक और सांस्कारिक है, पर यदि आदिवासियों, विपन्न ग्रामीणों को उत्पाती, उजड्ड ही समझा जाता रहा तो यह समाधान अपनाया ही नहीं जा सकता।  ‘वन्य जीव संरक्षित क्षेत्र’ बढ़ाने की बजाय सरकार ने यदि मौजूदा संरक्षित क्षेत्रों के वन्य जीवों की सुरक्षा के उपाय किए होते तो बेहतर होता…

मध्यप्रदेश में गत साढ़े चार महीनों में 22 बाघों की मौत ने राज्य के वन्यप्राणी प्रबंधन को कठघरे में खड़ा कर दिया है। भारतीय लोक संस्कृति में ‘वन देवता’ माने जाने वाले बाघ की जान आज खतरे में है। कोराना काल के दौरान अधिकांश राज्यों में लॉकडाउन के बीच देश के अलग-अलग हिस्सों से बाघों के मरने की खबरें मिल रही हैं। यह स्थिति तब है, जब अगले साल सभी राज्यों में बाघों की गिनती शुरू होनी है। वर्ष 2018 का बाघ आकलन बताता है कि कर्नाटक में 524 बाघ थे, जबकि मध्यप्रदेश में 526 थे। ये बाघ प्रदेश के प्रमुख ‘टाइगर रिजर्वों’ बांधवगढ़ 124, कान्हा 108, पेंच 87, सतपुड़ा 47, पन्ना 36, रातापानी 45, भोपाल 18, संजय डुबरी 06, असंगठित क्षेत्र 55 में रहते हैं। कर्नाटक से महज दो बाघ ज्यादा होने पर मध्यप्रदेश को ‘टाइगर स्टेट’ का तमगा मिला था। हैरानी की बात यह है कि बीते तीन सालों में बाघों की मौतों में इजाफा हुआ है। देश में हर साल मरने वाले बाघों की संख्या में एक बड़ा हिस्सा मध्यप्रदेश का होता है। राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2015 में 69 बाघों की मौत हुई थी। इनमें 11 बाघ मध्यप्रदेश के थे। वहीं वर्ष 2016 में यहां 20 बाघों की मौत हुई। हाल में मध्यप्रदेश के वन मंत्री विजय शाह द्वारा विधानसभा में दी जानकारी के अनुसार 2018 से 2021 के बीच कुल 93 बाघों की मौत हुई है। इन बाघों में 25 की मौत का कारण अवैध शिकार था। यानी तीन साल में करीब 27 फीसदी बाघों का शिकार हुआ।

वहीं दूसरी ओर तेजी से अंधाधुंध कटते जंगलों की वजह से भी इनकी तादाद में कमी आई है, जबकि वन विभाग का कहना है कि बाघों की मौतें आपसी संघर्षों और बढ़ी उम्र के कारण प्राकृतिक हैं। केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की वन्य जीवों की मौत की 2020 की रिपोर्ट के अनुसार बाघों की सर्वाधिक मौतों के मामले में मध्यप्रदेश अव्वल है। यहां 37 बाघों की मौत हुई है, जिनमें से 25 बाघ केवल कान्हा और बांधवगढ़ में वर्चस्व की लड़ाई में मारे गए हैं। इसका एक बड़ा कारण वहां उनके लिए जगहों की कमी पड़ रही है। अचरज है कि 2020 में मरने वाले 26 बाघों में से 21 बाघों की मौत संरक्षित वन क्षेत्र में ही हुई है। कुल मिलाकर देखा जाए तो 2012 से अब तक राज्य में करीब 200 बाघों की मौतें हो चुकी हैं। इसके बरक्स कर्नाटक में यह संख्या करीब 132 है।  वैसे तो पर्यावरण विभाग का एक लुभावना पोस्टर जाने कब से यह घोषणा कर रहा है ः ‘बाघ और पेड़ साथ-साथ पनपते हैं।’ प्रदेश में अब बाघ बचाने के साथ-साथ जंगल बचाने की बात भी जुड़ गई है, परंतु ‘विकास’ की आपाधापी में चढ़ रही जंगलों की बलि से बाघों के अस्तित्व को खतरा हो गया है। बुंदेलखंड की केन-बेतवा लिंक परियोजना में पन्ना टाइगर रिजर्व का बड़ा भू-भाग डूबने वाला है। मध्यप्रदेश के छतरपुर के दौधन गांव में केन नदी पर 77 मीटर ऊंचा और 2031 मीटर लंबा बांध बनाया जाना है। इससे बुंदेलखंड को सिंचाई के लिए पानी तो मिलने का दावा है, लेकिन परियोजना में 6017 हेक्टेयर वन्य क्षेत्र पानी में डूब जाएगा, जिसमें 4206 हेक्टेयर इलाका पन्ना टाइगर रिजर्व के कोर क्षेत्र का है।

  केन-बेतवा लिंक परियोजना से लगभग 23 लाख पेड़-पौधों के प्रस्तावित सफाए को लेकर मची हायतौबा के बीच अब हीरा खदान के लिए मध्यप्रदेश के छतरपुर जिले के बकस्वाहा के घने जंगलों को काटे जाने की खबर आ रही है। पहले ही जंगलों की अवैध कटाई से वन क्षेत्र तेजी से कम हो रहे हैं। ऐसे में इस तरह की परियोजनाएं संकट को और बढ़ा रही हैं। कुछ साल पहले तक शून्य बाघों वाले पन्ना टाइगर रिजर्व में हाल के वर्षों में बाघों की संख्या तेजी से बढ़ी है। ऐसे में विकास के नाम पर बनने वाली इस तरह की परियोजनाओं से बाघों पर विपरीत असर पड़ना तय है। पर्यावरणविदों ने नदी-जोड़ की परियोजना का काफी विरोध किया, मगर केंद्र के दबाव में सारे विरोधों को दरकिनार कर दिया गया। गौरतलब है कि बाघों और वन्य जीवन में अधिकांश लोगों की रुचि 1972 के बाद से पैदा हुई, जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इस विषय के प्रति अपना प्रेम स्टॉकहोम में दिए गए भाषण में जाहिर किया था। इन्हीं दिनों विश्व वन्य-जीव कोष (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) ने चेतावनी दी थी कि पिछले 40 वर्षों में भारत से बाघों की संख्या एक लाख से घटकर सिर्फ  5000 रह गई है। शिकार और कृषि तथा आवासीय क्षेत्रों में कमी के चलते बाघों के अस्तित्व पर बढ़ते जा रहे खतरे से निपटने हेतु देश में ‘प्रोजेक्ट टाइगर’ की शुरुआत वर्ष 1972 में ही की गई। इसके बाद से अब तक बाघों की हिफाजत के लिए भारत के 18 राज्यों के कुल 72749.02 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में 50 से ज्यादा अभयारण्य और राष्ट्रीय उद्यान लगे हैं। ये देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 2.21 प्रतिशत है। प्रदेश में पिछले सात सालों में बाघों की सुरक्षा, मैनेजमेंट और टाइगर रिजर्व, अभयारण्यों से गांवों के विस्थापन पर 1050 करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च किए जा चुके हैं, बावजूद इसके यहां बाघों की मौत का ग्राफ  बढ़ता ही जा रहा है।

दुर्भाग्य की बात तो यह है कि बाघ जिंदा रहें या न रहें, बाघों पर जिंदा रहने वालों की तादाद जरूर बढ़ रही है। सिर्फ  बाघ की चिंता करते-करते वे ‘वन्य प्राणीविद’ का दर्जा पा लेते हैं, लेकिन  इस आपाधापी में वन्य जीवों के असली विशेषज्ञ, पर्यावरण को मनुष्य से जोड़कर देखने वाले वास्तविक पर्यावरणविद, वन विभाग के अनुभवी, ईमानदार अधिकारी भुला दिए जाते हैं। प्रदेश के प्रधान-मुख्य वन संरक्षक (वन्यजीव) आलोक कुमार कहते हैं कि सभी टाइगर रिजर्व में बाघों की संख्या तेजी से बढ़ी है, जिससे उनके रहने का स्थान कम पड़ने लगा है। उनके अनुसार एक बाघ के लिए करीब दस वर्ग किलोमीटर क्षेत्र की आवश्यकता होती है जहां उसे आसानी से पानी और खाना मिल जाए। रिजर्व के कोर और बफर दोनों क्षेत्रों में पर्याप्त खाना और पानी की व्यवस्था करनी चाहिए, जो अभी नहीं है। पर्यावरणविदों का मानना है कि जंगल के पर्यावरण की जितनी सुंदर देखरेख स्थानीय ग्रामीण कर सकते हैं, उतनी शहरी या विदेशों में दीक्षित विशेषज्ञ नहीं। जंगल से उनका रिश्ता ऐतिहासिक और सांस्कारिक है, पर यदि आदिवासियों, विपन्न ग्रामीणों को उत्पाती, उजड्ड ही समझा जाता रहा तो यह समाधान अपनाया ही नहीं जा सकता।  ‘वन्य जीव संरक्षित क्षेत्र’ बढ़ाने की बजाय सरकार ने यदि मौजूदा संरक्षित क्षेत्रों के वन्य जीवों की सुरक्षा के पर्याप्त उपाय किए होते तो इसके बेहतर परिणाम निकलते। राष्ट्रीय उद्यानों के कुप्रबंध और उनमें व्याप्त भ्रष्टाचार के चलते वन्य जीवों के अवैध शिकारों की अनेक घटनाएं प्रकाश में आई हैं। वन्य जीवों के अवैध शिकार को रोकने के लिए सरकार को कड़े कदम उठाने चाहिए, तभी वन्य जीवों को सुरक्षा प्रदान करने के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकेगा।

-(सप्रेस)

कुमार सिद्धार्थ

स्वतंत्र लेखक


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