आरक्षण कब तक रहेगा जारी ?

By: Jan 23rd, 2017 12:05 am

आखिर चुनावों से पहले आरएसएस के शीर्ष नेताओं को आरक्षण की ही याद क्यों आती है? वे या तो किसी रणनीति के तहत बयान देते हैं अथवा प्रधानमंत्री मोदी की ताकत को कुंद करने के लिए कोशिशें करते हैं? क्या आरक्षण समाप्ति की बात के पीछे ध्रुवीकरण का विचार भी होता है, जो अकसर चुनावों के लिए निर्णायक साबित होता रहा है? बेशक संघ मानसिक-वैचारिक सोच के मद्देनजर न तो दलित-पिछड़ा विरोधी है और न ही आरक्षण विरोधी। आरएसएस देश का एकमात्र सामाजिक संगठन है, जिसके सौजन्य से आदिवासियों और दलितों के लिए एक लाख से अधिक कार्यक्रम जारी हैं। आरएसएस ने ही 1980-81 और 1985 में प्रस्ताव पारित किए थे कि जब तक सामाजिक-आर्थिक-शैक्षिक असमानता रहेगी, तब तक आरक्षण की जरूरत बनी रहेगी, लेकिन विरोधी राजनीतिक दल, संगठन और देश का दबा-कुचला, वंचित, अछूत आदमी संघ की सोच से वाकिफ नहीं है। नतीजतन चुनावों के दौरान एक दुष्प्रचार चलाया जाता है और भाजपा को पराजय स्वीकार करनी पड़ती है। हम बिहार में देख चुके हैं, जहां सरसंघचालक मोहन भागवत ने आरक्षण की समीक्षा की बात कही थी और अब जयपुर के साहित्योत्सव में संघ के प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य ने आरक्षण को समाप्त करने का बयान दिया है। आरक्षण को अलगाववाद से भी जोड़ा है। यह दीगर है कि हल्ला मचने पर उन्होंने और संघ के अन्य नेताओं, प्रवक्ताओं ने स्पष्टीकरण दिए हैं, लेकिन अब तो  तीर कमान से छूट निकला है। उत्तर प्रदेश में 60 फीसदी से ज्यादा आबादी और पंजाब में करीब 54 फीसदी आबादी आरक्षण के भरोसे ही है। चुनाव सिर्फ इन दोनों राज्यों में ही नहीं, कुल पांच राज्यों में हैं। बेशक भाजपा को इस बार भी दुष्प्रचार का शिकार होना पड़ सकता है। हालांकि प्रधानमंत्री मोदी को यहां तक बयान देना पड़ा था- ‘मेरी जान भी चली जाए, लेकिन आरक्षण की व्यवस्था खत्म नहीं होगी। सरकार की ऐसी कोई योजना या नीति नहीं है।’ लेकिन विडंबना है कि दुष्प्रचार की तुलना में लोग देश के प्रधानमंत्री के बयान  पर भी भरोसा नहीं करते। संभव है कि इन चुनावों के दौरान भी न करे, लेकिन बुनियादी सवाल तो यह है कि आखिर आरक्षण कब तक जारी रखना पड़ेगा? कब तक बाबा अंबेडकर की आड़ में छिपते रहेंगे? कांग्रेस, मुलायम सिंह, मायावती, लालू यादव, नीतीश सरीखे दलों और नेताओं के सामाजिक न्याय की पैरोकारी और असलियत का विश्लेषण क्यों नहीं किया जाता? आरक्षण की व्यवस्था को संविधान के निर्माताओं ने सिर्फ दस साल के लिए तय किया था। आजादी के 70 साल बाद भी आरक्षण की क्या जरूरत है? जाहिर है कि सामाजिक-आर्थिक-शैक्षिक असमानताएं आज भी मौजूद हैं। खुद बाबा अंबेडकर का मानना था कि लंबे वक्त तक आरक्षण नहीं होना चाहिए। संघ के सामाजिक न्याय को तो खुद गांधी जी ने सलाम किया था। वह खुद आरएसएस कैंप में यह देखने गए थे कि आखिर हेडगेवार ने क्या करिश्मा कर रखा है। बहरहाल, संविधान के अनुच्छेद 334 में अनुसूचित जाति, जनजाति के लिए दस सालों तक आरक्षण का प्रावधान किया गया था। वर्ष 2012 में सरकारी नौकरियों में दलितों के प्रोमोशन का आरक्षण भी किया गया था। सवाल संघ के बजाय मायावती, मुलायम सिंह, लालू यादव सरीखे नेताओं से पूछे जाने चाहिए कि वे कई बार मुख्यमंत्री रहे, आरक्षण के तहत दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों के हालात सुधार क्यों नहीं सके, ताकि आरक्षण का फीसदी कम किया जा सकता? जवाब बिलकुल सीधा है कि उन्हें इस मुद्दे पर वोट मिलते हैं, तो क्यों कम या खत्म करने की कोशिश करेंगे? वैसे 2014 के चुनाव सभी ने देखे हैं। मायावती की पार्टी बसपा को औसतन 20 फीसदी के करीब वोट मिले, लेकिन एक भी सांसद चुनकर लोकसभा में नहीं पहुंच पाया। इसे दलितों, वंचितों, पिछड़ों की राजनीतिक प्रतिक्रिया के तौर पर ग्रहण करना चाहिए। संघ संविधान के किसी प्रावधान में संशोधन या समाप्ति नहीं कर सकता। राजनीतिक दल और नेतागण आरक्षण में समीक्षा से घबराते क्यों हैं? संसद में इस मुद्दे पर बहस क्यों नहीं हो सकती? आरक्षण की आड़ में जो जमात अब समृद्ध हो गई है, उसके परिजनों को अब आरक्षण की जरूरत क्यों है? यदि इसी आधार पर आरक्षण दिया जाता रहा कि कोई जन्मजात दलित, पिछड़ा, आदिवासी है, तो यह जमात कभी भी यूपीएससी तक नहीं पहुंच पाएगी और आरक्षण हजारों साल तक जारी रखना पड़ेगा।

 


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