और कितनी राजधानियां

By: Jan 23rd, 2017 12:05 am

त्रिदेव सम्मेलन में सांसद शांता कुमार की मजाक में कही बात का एक गंभीर पक्ष धर्मशाला को दूसरी राजधानी बनाने के औचित्य पर प्रश्न पूछ रहा है। सियासी मुहाने पर ऐसे फैसलों की चीर-फाड़ के बावजूद आर्थिक मोर्चे पर सवाल पूछे जाएंगे और यह भी कि प्रदेश में आखिर कितनी राजधानियां हो सकती हैं। भाजपा सरकारों के दौर में राजधानी शिफ्ट करने जैसे मंसूबों की इबारत सुंदरनगर या जाहू जैसे केंद्रीय स्थलों के नाम पर लिखी जाती रही है और पूर्व सांसद स्व. रणजीत सिंह ने शिमला से राजधानी बदलने का सियासी मुद्दा बनाने की कोशिश की, लेकिन हिमाचल के अस्तित्व में ऐसे विकल्प को अनावश्यक माना गया। ऐसे में दूसरी राजधानी की भौगोलिक-राजनीतिक जरूरतों के बीच आर्थिक पहलुओं पर चर्चा आवश्यक हो जाती है। हालांकि यह फैसला अचानक आया नहीं माना जा सकता और इसके पीछे दो दशकों से अधिक का राजनीतिक व प्रशासनिक इतिहास समझना पड़ेगा। जिस केंद्र में सरकारें अपना शीतकालीन प्रवास करती हों या विधानसभाओं के सत्र चलते रहे हों, वहां यह महज दूसरी राजधानी का औपचारिक उपनाम नहीं हो सकता, बल्कि इस क्रम में हुए पालिटिकल इवेलुएशन को मंजिल के रूप में देखना होगा। राजनीतिक तौर पर इस कदम की समीक्षा के लिए भी असहज माथापच्ची का सबब है। बहरहाल हिमाचल जैसे राज्य में दूसरी राजधानी का उपनाम अगर प्रासंगिक है, तो इसी दृष्टि से मंडी को सांस्कृतिक, बीबीएन को आर्थिक, चंबा को धरोहर और सोलन को शिक्षा की राजधानी के रूप में तरजीह क्यों नहीं। हिमाचल को हम सियासी आधार पर समझने की कोशिश करेंगे तो मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के इस कदम से उनके विरोधी आहत होंगे, लेकिन प्रदेश को आगे बढ़ाने के लिए कई और भी अनछुए पहलू रह जाएं तो प्रगति मुकम्मल नहीं होगी। भाषायी सामाजिक व सांस्कृतिक तरक्की के कई अध्याय हिमाचल को एक अलग राज्य की आकृति देते हैं। वे तमाम नागरिक इस तथ्य के गवाह हैं, जिन्होंने छोटी-छोटी रियासतों को जोड़ते हुए स्व. वाईएस परमार को देखा या हिमाचल का अस्तित्व बनाने में पंजाब के पहाड़ी क्षेत्रों के रूप में सम्मिलित कांगड़ा का प्रभाव और आकार देखा। एक अलग संस्कृति, भाषा और समुदाय के रूप में पंजाब के पहाड़ी क्षेत्रों को वर्षों कुंठित रहना पड़ा, लेकिन हिमाचल में समाहित होने के बाद यही कुनबा एक बड़ी सियासी हस्ती हो गया। बावजूद इसके हिमाचल की सियासी छुआछूत का एक दौर कांगड़ा बनाम शेष हिमाचल देखता रहा या बतौर मुख्यमंत्री शांता कुमार के खिलाफ सेब लॉबी का प्रहार आज भी शिमला में याद किया जाता है। इन्हीं पैमानों से छलकती हिमाचली भाषा की प्यास अगर तृप्त न हुई, तो इसके अक्स में छिपे क्षेत्रवाद को समझना होगा। प्रदेश की बोलियों को भाषा का  आकार देने के लिए किस सोच ने रोका, इस पर तमाम साहित्यकार विचार करें। क्या शिमला में खड़े साहित्यिक कोनों में यह पैमाइश नहीं हुई कि अगर हिमाचली भाषा का आकार बना, तो कहीं सारा शरीर कांगड़ी भाषा के वर्चस्व में न चला जाए। ऐसे में दूसरी राजधानी की अवधारणा में उस सामंजस्य को देखना होगा, जो हिमाचली भाषा के संघर्ष की आत्मकथा ही नहीं लिखेगी, बल्कि एक बड़े योगदान का समूह भी पैदा करेगी। क्या हिमाचल में पांच दशक पूर्व शामिल इलाकों की वजह से प्रदेश संपूर्ण हुआ या इन क्षेत्रों की पूर्णता शिमला के कारण संबोधित हुई। क्यों आंदोलन खुंखार हुए-कभी सबसे अधिक शांता के लिए लाल हुए या कर्मचारी आंदोलनों के कारण स्व. वाईएस परमार या भाजपा सरकार के खिलाफ किले आबाद हुए। हिमाचल की हकीकत किसी सामान्य स्थिति के बजाय प्रायः भिन्न रही है और इसलिए यहां का नायक पिंजरों में बंद रहा। कहां तो अंग्रेजों के खिलाफ पहले आंदोलन को कांगड़ा की माटी का तिलक लगा, लेकिन उसी राम सिंह पठानिया को हम पूरी तरह अपना नहीं सके। इसी क्षेत्र से जोरावर सिंह की बहादुरी का परचम अगर अपने आप में एक राष्ट्र को चिन्हित करता रहा, तो आज इस गौरव के पन्ने क्यों बंद दिखाई देते हैं। पहाड़ी गांधी कांशी राम सरीखे स्वतंत्रता सेनानियों के कारण या पौंग जैसे विशाल जलाशय के गर्भ में छिपे इतिहास की वजह से कुछ तो विशालता रही होगी कि एक नया इतिहास लिखते-लिखते वीरभद्र सिंह दूसरी राजधानी का चरित्र लिखने लगे। यह सही है कि राजधानियां किसी विकास दर या सकल घरेलू उत्पाद के मानिंद नहीं हो सकतीं और न ही राजनीतिक फसल पैदा कर पाएंगी, लेकिन जिन प्रतीकों की परिक्रमा में वर्तमान सरकार ने यह फैसला लिया है उससे आगे निकल कर भी सियासत चलेगी और तब मंडी सांस्कृतिक तथा बीबीएन आर्थिक राजधानियां हो सकती हैं या इससे भी दो कदम आगे कुछ नए जिलों का गठन प्रासंगिक हो जाए तो हैरानी नहीं होगी। राजनीति जिस तरह की महत्त्वाकांक्षा में डूबे क्षत्रप पैदा कर रही है, वहां तो उपतहसील, तहसील या उपमंडल का दर्जा भी एक राजधानी बनाता है।


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