कांग्रेस क्षेत्रीय पार्टी बनते हुए !

By: Jan 24th, 2017 12:02 am

1967 से भारतीय राजनीति में गठबंधन का दौर चलता रहा है। जनता पार्टी का प्रयोग ऐसा था, जिसमें मुलायम सिंह और भाजपा (तब जनसंघ) साथ-साथ थे। समकालीन दौर में यूपीए का प्रयोग सामने आया, तो उसे सपा और बसपा सरीखे धुर विरोधियों ने एक साथ कांग्रेस को समर्थन दिया। दरअसल कांग्रेस के इर्द-गिर्द ही गठबंधन बुने जाते थे। चौधरी चरण सिंह, चंद्रशेखर, देवगौड़ा और इंद्रकुमार गुजराल-ये चारों देश के ऐसे प्रधानमंत्री हुए हैं, जो कांग्रेसी समर्थन की बैसाखियों पर टिके थे। समर्थन वापस, तो सरकारें भी धड़ाम…! अब राजनीतिक स्थितियां पूरी तरह बदल रही हैं। आज कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव को फोन पर गठबंधन की गुहार करनी पड़ रही है। राहुल गांधी और प्रियंका गांधी बढेरा को भी गठबंधन के लिए मनुहार करनी पड़ी है और दलीलें देनी पड़ रही हैं। ऐसा लग रहा है मानो सपा एक राष्ट्रीय पार्टी है और कांग्रेस एक छोटी-सी क्षेत्रीय पार्टी। बिहार में भी ऐसा ही आभास दिया गया और अब एक हकीकत है। बुनियादी गठबंधन राजद और जद-यू के बीच में है। दोनों ही क्षेत्रीय दल हैं। उत्तर प्रदेश में सपा-कांग्रेस के गठबंधन का ऐलान कर दिया गया है, जिसके मुताबिक, सपा 298 और कांग्रेस 105 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेंगी। नौबत यहां तक आ पहुंची थी कि सपा उपाध्यक्ष किरनमय नंदा ने कांग्रेस की औकात 54 सीटों की आंकी थी। बेशक कांग्रेस के मौजूदा विधानसभा में 28 विधायक थे, लेकिन जब बीते दिनों राहुल गांधी के नेतृत्व में ‘27 साल यूपी बेहाल’ रणनीति के तहत अभियान छेड़ा गया था, हजारों किलोमीटर की यात्रा की गई थी, किसानों-ग्रामीणों के साथ खाट बैठकों का प्रयोग किया गया था, तब कांग्रेस की दृष्टि कुल 403 सीटों पर ही थी। ‘यूपी बेहाल’ के दायरे में मुलायम सिंह और अखिलेश यादव की सपा सरकारें भी आती हैं। कांग्रेस ने चुनाव की खातिर वह अभियान छोड़ दिया। दरअसल राहुल गांधी राजनीति को समझ नहीं पा रहे हैं और कांग्रेस को एक क्षेत्रीय पार्टी बनाने पर आमादा हैं। इस तरह वह देश के प्रधानमंत्री कैसे बन सकते हैं? राहुल गांधी जब तक सभी सीटों पर चुनाव लड़ने की कवायद नहीं करेंगे, तब तक वह राष्ट्रीय नेता नहीं बन सकते। 2014 के लोकसभा चुनाव में भी भाजपा गठबंधन यही था, कांग्रेस-रालोद ने गठजोड़ किया था, सपा और बसपा भी चुनाव मैदान में अलग-अलग थीं, लेकिन अधिकतर की झोली खाली ही रही। कांग्रेस में सोनिया और राहुल गांधी ही जीत पाए। सपा की ओर से मुलायम की पारिवारिक पांच सीटें ही जीती जा सकीं। बसपा के पक्ष में करीब 20 फीसदी वोट पड़े, लेकिन एक भी सांसद नहीं जीत पाया। एक भी मुस्लिम प्रत्याशी लोकसभा तक का सफर तय नहीं कर पाया। यह स्थिति तब थी, जब 2012 में विधानसभा में सर्वाधिक 63 मुस्लिम विधायक पहुंचे थे। अब क्या गारंटी है कि सपा-कांग्रेस का गठबंधन 2017 के विधानसभा चुनाव में, बिहार कर तर्ज पर, जीत हासिल कर सकता है? क्या गारंटी है कि मुसलमान वोट बसपा को भी न मिलें? दरअसल मुद्दा हार-जीत का नहीं है। कांग्रेस को थूक कर चाटने वाली जो राजनीति करनी पड़ रही है, उससे उसके राजनीतिक अस्तित्व पर सवाल उठने लगे हैं। कांग्रेस फिलहाल कर्नाटक को छोड़ कर किसी अन्य बड़े राज्य में, अकेले अपने बूते ही, सत्तारूढ़ नहीं है। क्या अब कांग्रेस ने गठबंधन की राजनीति की परिभाषा ही बदल दी है कि मुख्य दल कोई और होगा और कांग्रेस एक सहयोगी घटक के तौर पर मौजूद रहेगी। फर्क इतना हो सकता है कि आज उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के विधायक 28 थे। चुनावों के बाद वे 35-40 हो सकते हैं। उसकी भी कोई गारंटी नहीं है। 2012 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के 240 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई थी। कुल 350 सीटों के करीब कांग्रेस लड़ी थी। कांग्रेस को 7.53 फीसदी वोट मिले थे। तब से लेकर आज तक की स्थितियों में कोई खास अंतर नहीं आया है, बल्कि कांग्रेस का देश भर में पतन जारी है। दरअसल कांग्रेस के लिए 2017 तो एक बहाना है, 2019 में प्रधानमंत्री मोदी को रोकना है। ऐसे मोदी और भाजपा को शिकस्त कैसे दी जा सकती है? बेशक उत्तर प्रदेश में अखिलेश की छवि बहुत अच्छी है। नौजवानों और महिलाओं में खासकर उनके प्रति क्रेज महसूस किया जा सकता है। क्या कांग्रेस उसी पर सवार होकर चुनाव की वैतरणी पार करना चाहती है?


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App