गणेश पुराण

By: Jan 7th, 2017 12:15 am

रथ के विविध भागों में बैठे देव, ग्रह, ऋषि और गंधर्व आदि रथ की रक्षा में प्रवृत्त हो गए। शिवजी के रथारूढ़ होने पर नंदीश्वर अपना त्रिशूल लेकर तथा अन्य योद्धा अपने-अपने शस्त्रों से सन्नद्ध होकर साथ ही चल पड़े। इधर शिवजी के आधिपत्य में देवसेना त्रिपुर को रवाना हुई तो उससे पूर्व ही नारद जी उधर आ पहुंचे…

जब शिवजी ने देवों को उनके किसी भी संकट को दूर करने का आश्वासन दिया तो देवता प्रसन्न हो उठे। उन्होंने श्री आशुतोष भूतभव्येश भगवान शंकर से आर्त्तवाणी में कहा, प्रभो! दितिपुत्र मय नामक दानव ने त्रिपुर नामक एक दुर्लव्य दुर्ग का निर्माण किया है, जिसमें एक ओर सभी प्रकार की सुख-सुविधाएं मौजूद हैं तो दूसरी ओर वह दुर्ग कवच के समान पूर्णतः सुरक्षित है।

उस दुर्ग का आश्रय लेकर ही दानव निर्भय और निशंक हो गए हैं। उन्होंने हमारे नंदादि उपवनों को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया है तथा ऐरावत आदि गजों का भी बलपूर्वक हरण कर लिया है। यहां तक कि उन दुर्दांत दैत्यों ने स्वर्ण के वैभव के साथ-साथ अप्सराओं को भी अपने अधीन कर लिया है। शिवजी के ऐसे वचन सुनकर सभी देवों, ग्रहों, नक्षत्रों, भूतों, नदियों, सर्पों तथा समुद्रों ने अपना-अपना सर्वश्रेष्ठ अंश देकर उससे एक उत्तम रथ का निर्माण किया। चारों वेदों, यज्ञों, ऋतुओं और संवत्सरों आदि द्वारा प्रदत्त उनके श्रेष्ठ अंशों से धनुष-बाण का निर्माण हुआ। तब उत्तम रथ तथा उत्तम धनुष बाण लेकर देवतागण शिवजी की सेवा में उपस्थित हुए।

शिवजी ने रथ को स्वीकार करते हुए जब देवों से अपने इस रथ के निपुण संचालक सारथि की व्यवस्था करने को कहा तो सभी देवगण चिंताग्रस्त हो उठे। विष्णु और चिंताकुल देवों ने थोड़ी देर में अपने सामने एक समर्थ देव को देखा जिसने सिंहनाद करते हुए कहा, मैं शिवजी का सारथि बनंूगा। इस पर देवों ने प्रसन्न होकर हर्षध्वनि की और उस सूत ने शिवजी को रथ पर बिठाया। वह रथ ज्यों ही चंचल हुआ त्यों ही उसके चलने की ध्वनि से सारी पृथ्वी कांपने लगी। रथ के अश्व वायुवेग से उड़ने लगे। रथ के विविध भागों में बैठे देव, ग्रह, ऋषि और गंधर्व आदि रथ की रक्षा में प्रवृत्त हो गए। शिवजी के रथारूढ़ होने पर नंदीश्वर अपना त्रिशूल लेकर तथा अन्य योद्धा अपने-अपने शस्त्रों से सन्नद्ध होकर साथ ही चल पड़े। इधर शिवजी के आधिपत्य में देवसेना त्रिपुर को रवाना हुई तो उससे पूर्व ही नारद जी उधर आ पहुंचे।

दानवों ने पाद्य, अर्घ्य तथा मधुपर्क आदि से नारद जी का स्वागत-सम्मान किया। नारद जी ने प्रसन्न मन से कनकासन पर विराज हो जाने पर मयदानव ने उनसे पूछा, देवर्षि! आप तो भूत, वर्तमान और भविष्य के जानने वाले हैं। हमारे नगर में आजकल जैसे उत्पात हो रहे हैं और हम लोग जैसे दुस्वप्न देख रहे हैं, बिना वायु के ही यहां के ध्वज गिरते हैं और ‘मारो’ की ध्वनि चारों ओर से सुनाई पड़ती है,यह सब किस भावी आपत्ति के सूचक हैं? आप तो अनागत के ज्ञाता सर्वदर्शी महात्मा हैं।

हमें हमारा भविष्य बताने की कृपा करें। नारद जी बोले, दानव राज! आचार्यों ने धर्म की धर्मसंज्ञा इसलिए दी है कि वह धारण करने वाले को धारण करता है। धर्म ही ईष्ट प्राप्ति का साधन है।


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