गिरिपार में आज भी ‘वही’ माघी त्योहार

By: Jan 13th, 2017 12:15 am

नाहन —news   मकर संक्रांति का त्योहार जहां पूरे देश में सूर्यदेव की अराधना तथा लोहड़ी का पर्व अग्निदेव की तिल एवं गुड़ से पूजा के साथ मनाया जाता है, वहीं सिरमौर के गिरिपार क्षेत्र में बूढ़ी दिवाली के बाद यह पर्व माघी त्योहार के नाम से बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। बदलते परिवेश के बावजूद सिरमौर के गिरिपार क्षेत्र में प्राचीन परंपराएं एवं समृद्ध संस्कृति अभी भी प्रचलित है, जिसे लोग बड़ी व उल्लास से मनाते हैं। कालांतर से माघी त्योहार पर बलि प्रथा का विधान था, परंतु लोगों में जागरूकता आने व माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा बलि प्रथा को बंद किए जाने के बाद अब लोग माघी त्योहार पर लोग विशेषकर मीट तथा पारंपरिक व्यंजनों का भरपूर आनंद लेते हैं। इस दिन लोग अपने आराध्य पीठासीन देवता की पारंपरिक ढंग से पूजा-अर्चना भी करते हैं। विशेषकर जिला सिरमौर में चार बड़ी साजी अर्थात संक्रांति पर देव पूजा की परंपरा प्रचलित है, जिसमें बिशु अर्थात वैशाख संक्रांति, हरियाली, दिवाली और माघी अर्थात मकर संक्रांति शामिल हैं। लोगों की आस्था है कि इन चार बड़ी साजी पर पीठासीन देवता की पूजा से देवी-देवता प्रसन्न होते हैं और क्षेत्र में समृद्धि एवं खुशहाली का सूत्रपात होता है। माघी त्योहार का जश्न गिरिपार क्षेत्र में लगभग एक सप्ताह तक मनाया जाता है। इस वर्ष भी यह त्योहार 11 जनवरी से आरंभ हो गया है, जिसमें विभिन्न गांव में अलग-अलग तिथियों में यह त्योहार मनाया जा रहा है। विशेषकर सर्दियों के मद्देनजर रखते हुए लोग पारंपरिक व्यंजन भी बनाते हैं और जबकि सिरमौर के अन्य क्षेत्रों में मकर संक्रांति का त्योहार खिचड़ी बनाने एवं दान करने के साथ मनाया जाता है। जिला के कई क्षेत्रों में लोहड़ी की रात को अलाव जलाकर तिल एवं रेवडि़यों के साथ अग्नि पूजा करने का विधान है। लोग अग्निदेव की पूजा के साथ-साथ रात्रि को नाच-गाकर लोहड़ी मनाते हैं। गिरिपार क्षेत्र की 127 पंचायतों में लगभग 12500 परिवार रहते हैं और इस क्षेत्र के साथ लगते उत्तराखंड के जौंसार बाबर क्षेत्र में भी माघी त्योहार को पारंपरिक तरह के साथ मनाने की प्रथा प्रचलित है। इस दिन विशेषकर मीट बनाने की परंपरा है, परंतु जो व्यक्ति मीट इत्यादि नहीं खाते उनके लिए मीठी रोटियां, खुबले व खीर इत्यादि व्यंजन बनाते हैं।

दुल्ला भट्टी से जुड़ी लोहड़ी कथा

शास्त्रों के अनुसार मकर संक्रांति के दिन सूर्य भगवान की गति उतरायण की तरफ हो जाती है और दिन बढ़ने लगते हैं और रातें छोटी होने लग जाती हैं। लोहड़ी की कथा दुल्ला भट्टी के साथ भी जुड़ी है, जो कि एक वीर योद्धा थे, जिसने मुगलों के जुल्मों के खिलाफ कदम बढ़ाया था और एक गरीब ब्राह्मण की दो बेटियों की शादी दुल्ला भट्टी द्वारा जंगल में अलाव जलाकर करवाई गई थी और इसी परंपरा के अनुसार बच्चे सुंदरिए-मुदरिए हो, तेरा कौन विचारा हो, दुल्ला भट्टी वाला हो, दुल्ले धी ब्याही हो, सेर शक्कर पाई होय नामक लोहड़ी गीत गाकर पैसे मांगते हैं। पारंपरिक त्योहार जहां लोगों में आपसी प्यार एवं सद्भावना का संदेश देते हैं, वहीं पर इनके आयोजन से लोगों में पारस्परिक मेल-जोल के साथ-साथ राष्ट्र की एकता और अखंडता को भी बल मिलता है।


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