धर्मिक संघर्ष स्वामी विवेकानंद

By: Jan 14th, 2017 12:15 am

गतांक से आगे… 

धर्म-प्रेरणा से मनुष्यों ने संसार में जो खून की नदियां बहाई हैं, मनुष्य के हृदय की और किसी प्रेरणा ने वैसा ही किया और धर्म-प्रेरणा से मनुष्यों ने जितने चिकित्सालय , धर्मशाला, अन्न-क्षेत्र आदि बनाए, उतने  और किसी प्रेरणा से नहीं। मनुष्य हृदय की और कोई वृत्ति उसे सारी मानव जाति की ही नहीं, निकृष्टतम प्राणियों तक की सेवा करने को प्रवृत्त नहीं करती। धर्म-प्रेरणा से मनुष्य जितना निष्ठुर हो जाता है, उतना  और किसी प्रेरणा से नहीं, उसी प्रकार धर्म-प्रेरणा से मनुष्य जितना कोमल हो जाता है,  उतना और किसी प्रवृत्ति से नहीं। अतीत में ऐसा ही हुआ है और संभवतः भविष्य में भी ऐसा ही होगा। फिर भी विविध धर्मों और संप्रदायों के कलह और कोलाहल, द्वंद्व और संघर्ष, अविश्वास और ईर्ष्या-द्वेष से समय-समय पर इस प्रकार की गंभीर वाणियां निकली हैं, जिन्होंने इस सारे कोलाहल को दबाकर संसार में शांति और मेल की तीव्र घोषणा कर दी थी। एक ध्रुव से दूसरे ध्रुव तक अपने वज्रगंभीर आह्वान को सुनने के लिए मानव जाति को विवश किया है। क्या संसार में किसी समय इस शांति समन्वय का राज्य स्थापित होगा? प्रबल धार्मिक संघर्ष की इस भूमिका में क्या कभी सामंजस्य का अविच्छिन्न राज्य होना संभव है। वर्तमान शताब्दी के अंत में इस समन्वय को लेकर संसार में एक विवाद चल पड़ा है। इस समस्या का समाधान करने के लिए समाज में विविध योजनाएं प्रस्तावित की जा रही हैं और उन्हें कार्य रूप से परिणत करने के लिए अनेक चेष्टाएं हो रही हैं। हम सभी लोग जानते हैं कि यह कितना कठिन है। सभी लोग जानते हैं कि जीवन संग्राम की भीषणता को, मनुष्य के मन की प्रबल स्नायविक उत्तेजनाओं को कम करना लगभग एक प्रकार से असंभव है। जीवन का जो स्थूल एवं ब्राह्यांश मात्र है, उस बाह्य जगत में साम्य और शांति स्थापित करना यदि इतना कठिन है, तो मनुष्य के अंतर्जगत में शांति और साम्य स्थापित करना उससे हजार गुना कठिन है। तुम लोगों को थोड़ी देर के लिए शब्द जाल से बाहर आना होगा। हम सभी लोग बाल्य काल से ही प्रेम, शांति, मैत्री, साम्य, सार्वजनीन भ्रातृभाव प्रभृति अनेक बातें सुनते आ रहे हैं, परंतु इन सभी बातों में से हमारे निकट कितनी ही निरर्थक हो जाती हैं। हम लोग उन्हें तोते की तरह रट लेते हैं और वे मानो हम लोगों के स्वभाव हो गए हैं। हम ऐसा किए बिना रह नहीं सकते। जिन महापुरुषों ने पहले अपने हृदय में इस महान तत्त्व की उपलब्धि की थी, उन्होंने इस वाक्यों की रचना की है। उस समय बहुत से लोग इसका अर्थ समझते थे। आगे चलकर मूर्ख लोगों ने इन बातों को लेकर उनसे खिलवाड़ आरंभ कर दिया और धर्म को केवल शब्दों का खेल बना दिया, उसे जीवन में परिणत करने की वस्तु ही नहीं रखा। धर्म अब ‘पैतृक धर्म’, ‘राष्ट्रीय धर्म’, ‘देशी धर्म’ इत्यादि के रूप में परिणत हो गया है। अंत में किसी धर्म में विश्वास करना देशभक्ति का एक अंग हो जाता है और देशभक्ति सदा पक्षपाती होती है। विभिन्न धर्मों में सामंजस्य करना बहुत ही कठिन काम है। फिर भी हम इस धर्म समन्वय समस्या पर विचार करेंगे। हम देखते हैं कि प्रत्येक धर्म में तीन भाग हैं, मैं अवश्य ही प्रसिद्ध और प्रचलित धर्मों की बात कहता हूं। पहला है दार्शनिक भाग। इसमें उस धर्म का सारा विषय अर्थात मूल तत्त्व, उद्देश्य और उसकी प्राप्ति के साधन निहित होते हैं। दूसरा है पौराणिक भाग। यह स्थल उदाहरणों के द्वारा दार्शनिक भाग को स्पष्ट करता है।

 


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