बर्फ के पिंजरे में आपदा प्रबंधन

By: Jan 10th, 2017 12:02 am

बर्फ की दौलत से लकदक पहाड़ और सामने आपदा प्रबंधन का गंजापन बरकरार। बर्फ की खुशामदी में व्यवस्था का प्रलाप अगर हिमाचल की छवि की आफत है, तो हमारे प्रबंधन की गरीबी का मलाल स्वाभाविक है। स्वयं राजधानी शिमला बर्फ के पिंजरे में बंद होकर रह गई, तो सर्द हवाओं  में उखड़े बाकी तंबू किसने देखे। आपदा प्रबंधन के नाम पर कसरतों और दावों के बीच हाल यह है कि बर्फ को चाहकर भी हम अपनी कंगाली का सबूत बन गए। अंततः जो हासिल हुआ उससे प्रकृति सुधर गई, वरना हमारी प्रवृत्ति का दस्तूर फिर कटे लिफाफे की तरह अपने मजमून ढांपने के प्रयास में दिखाई दिया। गिड़गिड़ाता विकास शिमला की बाधित विद्युत आपूर्ति में दफन होकर रह गया, तो तमाम सेवाएं अपना आत्मबल खो बैठीं। न कोई टास्क फोर्स जो बर्फबारी के बीच आपदा प्रबंधन की कोई लकीर खींच सके या कोई निर्देश जिसके दायित्व में हिमाचल को बचाया जा सके। सरकारी व्यवस्था के घोड़े दुम दबाकर सो गए और आपदा चौकसी की परिपाटी किसी कंबल से लिपट कर काफूर हो गई। कुछ विभागों ने अपने तौर पर समां जरूर बांधा और कुछ अधिकारी-कर्मचारी मोर्चे पर नजर भी आए, लेकिन ऐसा यकीन नहीं हुआ कि बर्फबारी की आपदा से बचाव और राहत का कोई समन्वित कार्य हम शुरू कर पाए। टुकड़ों में जिंदगी के अफसानों पर कोई यह सुनने को तैयार नहीं कि बर्फबारी की हर सुर्खी के नीचे कितना कोहराम मचा है। यहां केवल रास्तों के बंद होने या परिवहन निगम की बसों के न चलने का जिक्र नहीं, बल्कि एक पूरी कवायद के थमने और आपूर्ति लाइन बंद होने जैसी चुनौतियों का अंबार है। इस एहसास को जानने के लिए खुद एहसास होना पड़ेगा, लेकिन हमें तो लगा कि मनाली की बर्फ केवल पर्यटन की दरकार है या यह होटल व्यवसाय का उपहार है, लेकिन इससे आगे एक और जहां है, जो बर्फबारी के आगोश में तड़प उठा है। हैरानी यह कि बर्फबारी के सामने हमारी शहरी, पर्यटन, परिवहन व कानून जैसी व्यवस्थाएं तो मानो सदमे में चली गईं। इसलिए जो अतिथि  बर्फ के लिए आए, वे हमारे व्यवहार के खिलौने बनकर रह गए। होटल महंगे, लेकिन सुविधाएं चकनाचूर। परिवहन महंगा, लेकिन टैक्सी ड्राइवरों का आचरण क्रूर हो गया। बर्फ की चांदनी में रोशन मनाली अगर बिजली आपूर्ति के अंधेरों का गवाह बने, तो हमें प्रकृति पर इतराने का कोई अधिकार नहीं। विभागीय कुंडलियों से अलग नहीं हो पाया आपदा प्रबंधन, भले ही बैठकों के कई दौर गुजर गए और प्रबंधन के नाम पर शामियाने तन गए। किसी एक निर्देश के इंतजार में शहरी आबादियों की खिल्ली उड़ाता मंजर उन कंदराओं में और भी वीभत्स जहां हिमाचल का कबायली संसार बसता है। शिमला की ढहती व्यवस्था, शहरी व आपदा के लाचार प्रबंधन से मालूम करना होगा कि यह दर्द कबायली इलाकों में किस कद्र कहर से लिपटा होगा। साल की परछाइयों में कबायली जीवन की रूपरेखा में कितना खंडित रहता है आपदा प्रबंधन, इसका एहसास शिमला की नब्ज बता रही है और यह भी कि हमारी जवाबदेही का खोखलापन हमारे अपने ही कदमों की आहट सुनाता रहता है। बर्फ आने का पता तो हमें सदियों से है, इसलिए प्रबंधन की खामियां हमें घोर अपराधी बनाती हैं। ऐसे में प्राकृतिक आपदाओं के कई अनोखे चक्र और मारक हालात के अनिश्चित और अनियमित संकटों का मुकाबला हिमाचल कैसे करेगा। हम केवल इसकी-उसकी टोपी में फंसे हैं या जिम्मेदारी की टोपियां उछाल रहे हैं, वरना हकीकत में हिमाचल अपनी आबरू बचाने में निकम्मा ही साबित हुआ। अगर बर्फबारी के चंद घंटे शिमला की बस्तियां उजाड़ सकते हैं, तो आकस्मिक बादल का फटना या भूकंप की गर्जना हमारे भविष्य को कितना विकराल बना सकती है। बर्फबारी के इतने भी रिकार्ड नहीं टूटे कि व्यवस्था ही टूट-फूट जाए। शायद प्रकृति के साथ जीने का संतुलन हमारी योजनाओं ने भुला दिया या विकास के मॉडल यह तय नहीं कर पाए कि किस तरह भविष्य की चुनौतियों के समक्ष खुद को सलामत और साबुत रखा जाए। स्मार्ट सिटी का खाका बुन रहा शिमला नगर निगम तथा प्रदेश का शहरी विकास विभाग यह  भी सुनिश्चित कर ले कि आपदाओं के वक्त हमारी व्यवस्था की मजबूती का पक्ष कैसे पुष्ट किया जाए। शायद हमारे लिए आपदा प्रबंधन की तैयारी में आधिकारिक तौर पर विदेश भ्रमण का अवसर बड़ा होता है, इसलिए वर्षों से सरकारी टूअर में जो अध्ययन भारत से बाहर हुआ उसकी कलई उतर गई। देखें बर्फबारी की उतरती कलई में हमारे आपदा प्रबंधन का कितना काला पक्ष छिपा है।


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