ये चुनाव केंद्रीय जनमत नहीं

By: Jan 6th, 2017 12:02 am

लोकतंत्र में त्योहार का मौसम चुनाव होते हैं और चुनाव आयोग ने पांच राज्यों की 690 विधानसभा सीटों पर चुनाव कार्यक्रम की घोषणा भी कर दी है। इन राज्यों में ही 545 में से 102 लोकसभा सीटें आती हैं और करीब 26 करोड़ की आबादी अपने मताधिकार का इस्तेमाल करेगी। बेशक पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर अपेक्षाकृत छोटे राज्य हैं। उनकी राजनीति भी स्पष्ट है, लिहाजा देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में चुनावी जनादेश बेहद नाजुक और महत्त्वपूर्ण माना जा रहा है। उसके कई कारण हैं। लेकिन ये चुनाव राज्य सरकारों के कामकाज की समीक्षा होने चाहिए, न कि केंद्र की मोदी सरकार के अढ़ाई साल के कार्यकाल, उसके वादे-आश्वासन और नोटबंदी पर जनादेश माने जाएं। फिलहाल चुनाव विधानसभा के हैं, लिहाजा प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार पर राष्ट्रीय जनमत न आंके जाएं। बेशक प्रधानमंत्री मोदी रैलियों के जरिए अपनी पार्टी भाजपा के लिए वोट मांग रहे हैं। क्या एक प्रधानमंत्री के लिए ऐसा करना वर्जित है? क्या पूर्व के प्रधानमंत्रियों ने विधानसभा चुनावों में अपने-अपने दल और उम्मीदवारों के लिए वोट नहीं मांगे? बहरहाल इधर चुनाव की तारीखें घोषित हुईं और विपक्षी दलों के अलग-अलग स्वर फूटने लगे कि चुनावों के मद्देनजर संसद में राष्ट्रीय बजट पेश न किया जाए। दरअसल बजट किसी भी पार्टी का घोषणा-पत्र नहीं होता। वह एक राष्ट्रीय दस्तावेज है, जो पूरे देश और उसकी विभिन्न इकाइयों को सुचारू रूप से चलाने की एक संवैधानिक अनिवार्यता है। बजट एक परंपरा है, जो आजादी के बाद से लगातार निभाई जाती रही है। बजट सत्र का कार्यक्रम भी घोषित हो चुका है। उसके मुताबिक, पहली फरवरी को लोकसभा में बजट पेश किया जाना है। चुनाव चार फरवरी से शुरू होकर आठ मार्च तक चलेंगे और 11 मार्च को नतीजों के ऐलान होंगे। लिहाजा सवाल हो सकता है कि क्या संसद में राष्ट्रीय बजट 15 मार्च या उसके बाद ही पेश किया जाए? बजट देर से पेश होगा, तो उतनी ही देर से पारित किया जा सकेगा। सत्र के बीच में ही अवकाश का प्रावधान भी है। यदि 31 मार्च तक बजट पारित नहीं किया जा सका, तो देश में कई स्तरों पर आर्थिक असंतुलन पैदा हो जाएंगे। यदि चुनावों से पहले बजट पेश नहीं करना है, तो लेखानुदान भी पारित नहीं हो सकेगा, क्योंकि संसद सत्र का ही विरोध किया जा रहा है। 2014 में लोकसभा चुनाव से पहले यूपीए सरकार-2 ने लेखानुदान पारित किया था, जिससे सभी खर्च जुलाई तक चल सके और फिर मोदी सरकार ने अपना पहला बजट पारित कराया था। बहरहाल चुनावों को केंद्रीय मुद्दा नहीं बनाया जाना चाहिए। व्याख्या की जा रही है कि यदि उत्तर प्रदेश में 71 सांसदों वाली भाजपा 200 सीटें नहीं जीत पाती है, तो मोदी सरकार ढक्कन हो जाएगी और 2019 में भाजपा की संभावनाएं भी धूमिल हो जाएंगी। यह विश्लेषण कुछ हद तक उचित लगता है, लेकिन राजनीतिक आसार कब बदलने लगें, किस पार्टी और नेता के पक्ष में माहौल बनने लगे, उसे अभी से सौ फीसदी नहीं आंका जा सकता। चुनावों में मोदी सरकार का कामकाज बिलकुल ही गैर हाजिर नहीं रहेगा, लेकिन जनादेश वह तय नहीं करेगा। विडंबना तो यह है कि इन चुनावों को मोदी सरकार के लिए ‘अग्निपरीक्षा’ माना जा रहा है, लेकिन भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, गरीबी, किसानी, शिक्षा, स्वास्थ्य, कुपोषण आदि बुनियादी और मानवीय मुद्दे चुनावी नहीं माने जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश का ही उदाहरण लें, तो सबसे बड़ा मुद्दा मुलायम सिंह के कुनबे का घमासान बना हुआ है। आकलन किए जा रहे हैं कि यदि बाप-बेटे के गुट अलग-अलग चुनाव लड़े, तो किसे फायदा होगा! सर्वेक्षण बता रहे हैं कि बुनियादी मुद्दों के पक्ष में कितने कम फीसदी वोट पड़ रहे हैं। बहरहाल ये चुनाव आम आदमी पार्टी और उसके संयोजक अरविंद केजरीवाल के लिए बेहद अहम हैं। ‘आप’ की साख पंजाब और गोवा राज्यों में दांव पर है, जहां पार्टी ने सरकार तक बनाने के मंसूबे पाल रखे हैं। यदि ‘आप’ इन राज्यों में अच्छा करती है, तो केजरीवाल 2019 के लिए एक मजबूत विकल्प के तौर पर उभर सकते हैं। यदि पार्टी हार गई या चुटकी भर वोट पड़े, तो केजरीवाल इतिहास में दर्ज होकर रह जाएंगे। ये चुनाव कइयों के राजनीतिक प्रयोग पर मुहर लगा सकते हैं या उन्हें खारिज कर सकते हैं।


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