ये है लोहड़ी पर्व की कथा
द्वापर युग में जब भगवान विष्णु ने श्रीकृष्ण के रूप में अवतार लिया, तब कंस सदैव बालकृष्ण को मारने के लिए नित नए प्रयास करता रहता था। एक बार जब सभी लोग मकर संक्रांति का पर्व मनाने में व्यस्त थे। कंस ने बालकृष्ण को मारने के लिए लोहिता नामक राक्षसी को गोकुल में भेजा, जिसे बाल कृष्ण ने खेल-खेल में ही मार डाला था। लोहिता नामक राक्षसी के नाम पर ही लोहड़ी उत्सव का नाम रखा। उसी घटना की स्मृति में लोहड़ी का पावन पर्व मनाया जाता है। सिंधी समाज में भी मकर संक्रांति से एक दिन पूर्व ‘लाल लोही’ के रूप में इस पर्व को मनाया जाता है। होली की तरह ही लोहड़ी की शाम को भी लकडि़यां इकट्ठी कर जलाई जाती हैं और तिल से अग्निपूजा की जाती है। इस त्योहार का रोचक तथ्य यह है कि इस त्योहार के लिए बच्चों की टोलियां घर-घर जाकर लकडि़यां इकट्ठा करती हैं और लोहड़ी के गीत गाती हैं। इनमें से एक गीत खूब पसंद किया जाता है।
सुंदर मुंदरिए, हो तेरा कौन विचारा-हो
दुल्ला भट्टी वाला-हो
दुल्ले ने धी ब्याही-हो
सेर शक्कर पाई-हो
कुड़ी दे बोझे पाई-हो
कुड़ी दा लाल पटाका-हो
कुड़ी दा शालू पाटा-हो
शालू कौन समेटे-हो
चाचा गाली देसे-हो
चाचे चूरी कुट्टी-हो
जिमींदारां लुट्टी हो
जिमींदारा सदाए-हो
गिन-गिन पोले लाए-हो
इक पोला घिस गया
जिमींदार वोट्टी लै के नस्स गया- हो!
किवदंती के अनुसार, एक ब्राह्मण की बहुत छोटी कुंवारी कन्या को जो बहुत सुंदर थी, को गुंडों ने उठा लिया। दुल्ला भट्टी ने जो मुसलमान था, इस कन्या को उन गुंडों से छुड़ाया और उसका विवाह एक ब्राह्मण के लड़के से कर दिया। इस दुल्ला भट्टी की याद आज भी लोगों के दिलों में है और लोहड़ी के अवसर पर गीत गाकर दुल्ला भट्टी को याद करते हैं।
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