राजनीतिक आचरण के खोट

By: Jan 21st, 2017 12:05 am

( ललित गर्ग लेखक, स्वतंत्र पत्रकार हैं )

गांधी जी ने एक मुट्टी नमक उठाया था, तब उसका वजन कुछ तोले ही नहीं था। उसने राष्ट्र के नमक को जगा दिया था।  पटेल ने जब रियासतों के एकीकरण के दृढ़ संकल्प की हुंकार भरी, तो राजाओं के वे हाथ जो तलवार पकड़े रहते थे, हस्ताक्षरों के लिए कलम पर आ गए। आज वह तेज व आचरण नेतृत्व में लुप्त हो गया। आचरणहीनता कांच की तरह टूटती नहीं, उसे लोहे की तरह गलाना पड़ता है। विकास की उपलब्धियों से हम ताकतवर बन सकते हैं, महान नहीं। महान उस दिन बनेंगे, जिस दिन हमारी नैतिकता एवं चरित्र की शिलाएं गलना बंद हो जाएंगी…

आजादी के सत्तर वर्षों बाद भी हम अपने आचरण, चरित्र, नैतिकता और काबिलीयत को एक स्तर तक भी नहीं उठा सके। हमारी आबादी सत्तर वर्षों में करीब चार गुना हो गई, पर हम देश में 500 सुयोग्य और साफ छवि के राजनेता आगे नहीं ला सके। यह देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण होने के साथ-साथ विडंबनापूर्ण भी है। आज भी हमारे अनुभव बचकाने हैं। जमीन आजाद हुई है, जमीर तो आज भी कहीं, किसी के पास गिरवी रखा हुआ है। लोकतंत्र की कुर्सी का सम्मान करना हर नागरिक का धर्म है, क्योंकि इस कुर्सी पर व्यक्ति नहीं, चरित्र बैठता है। लेकिन हमारे लोकतंत्र की त्रासदी ही कही जाएगी कि इस पर स्वार्थ, महत्त्वाकांक्षा, बेईमानी आकर बैठती रही है। लोकतंत्र की टूटती सांसों को जीत की उम्मीदें देना जरूरी है और इसके लिए साफ-सुथरी छवि के राजनेताओं को आगे लाना समय की सबसे बड़ी जरूरत है। यह सत्य है कि नेता और नायक किसी कारखाने में पैदा करने की चीज नहीं हैं, इन्हें समाज में ही खोजना होता है। काबिलीयत और चरित्र वाले लोग बहुत हैं, पर परिवारवाद, जातिवाद, भ्रष्टाचार व कालाधन उन्हें आगे नहीं आने देता। सात दशकों में राजनीति के शुद्धिकरण को लेकर देश के भीतर बहस हो रही है, परंतु कभी राजनीतिक दलों ने इस दिशा में गंभीर पहल नहीं की। पहल की होती, तो संसद और विभिन्न विधानसभाओं में दागी, अपराधी सांसदों और विधायकों की तादाद बढ़ती नहीं। यह अच्छी बात है कि देश में चुनाव सुधार की दिशा में सोचने का रुझान बढ़ रहा है। चुनाव एवं राजनीतिक शुद्धिकरण की यह स्वागतयोग्य पहल उस समय हो रही है, जब चुनाव आयोग द्वारा पांच राज्यों-उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, मणिपुर व गोवा का चुनावी कार्यक्रम घोषित हो गया है।

यही नहीं, देश की दो अहम संवैधानिक संस्थाओं ने एक ही दिन दो अलग-अलग सार्थक पहलें कीं, जो स्वागतयोग्य हैं। हाल ही में एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव सुधार के एक बेहद अहम मसले पर विचार करने के लिए अपनी सहमति दे दी। गंभीर आपराधिक मुकदमों का सामना कर रहे लोगों को चुनाव लड़ने की अनुमति दी जाए या नहीं और चुने गए प्रतिनिधि को कब यानी किस सूरत में अयोग्य घोषित किया जा सकता है आदि सवालों पर विचार करने के लिए न्यायालय पांच जजों की संविधान पीठ का गठन करेगा। दूसरी ओर निर्वाचन आयोग ने सर्वोच्च अदालत से कहा है कि प्रत्याशियों के लिए अपने आय के स्रोतों का खुलासा करना भी अनिवार्य बनाया जाना चाहिए। यह पहल भी काफी महत्त्वपूर्ण है। लोकतंत्र की मजबूती एवं राजनीतिक शुद्धिकरण की दिशा में जब-जब प्रयास हुए हैं, जनता ने अपना पूरा समर्थन दिया। पूरा देश इसका गवाह है कि दो-अढ़ाई साल पहले इस देश में प्रभावी लोकपाल बिल की मांग को लेकर राष्ट्रव्यापी आंदोलन चलाए, जिसमें अन्ना हजारे, स्वामी रामदेव, संतोष हेगड़े से लेकर किरण बेदी जैसे चेहरे शामिल हुए। इस कानून की मांग ने इसलिए जोर पकड़ा, ताकि जनसेवकों के भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया जा सके। देश-विदेश की अनेक संस्थाएं यह कह चुकी हैं कि भारत दुनिया के ऐसे देशों में शुमार है, जहां बिना लिए-दिए कुछ नहीं होता। जनप्रतिनिधियों की संपत्ति कई सौ गुना बढ़ रही है। भले ही एक सार्थक शुरुआत का परिणाम सिफर रहा है, वातावरण में भ्रष्टाचार एवं राजनीतिक अपराधीकरण के विरुद्ध नारे उछालने वाले ही धीरे-धीरे उनमें लिप्त पाए गए हों। समय की दीर्घा जुल्मों को नए पंख देती है। यही कारण है कि राजनीति का अपराधीकरण और इसमें व्याप्त भ्रष्टाचार लोकतंत्र को भीतर ही भीतर खोखला करता जा रहा है। एक आम आदमी यदि चाहे कि वह चुनाव लड़कर संसद अथवा विधानसभा में पहुंचकर देश की ईमानदारी से सेवा करे, तो यह आज की तारीख में संभव ही नहीं है।

संपूर्ण तालाब में जहर घुला है। यही कारण है कि कोई भी पार्टी ऐसी नहीं है, जिसके टिकट पर कोई दागी चुनाव नहीं लड़ रहा हो। यह अपने आप में आश्चर्य का विषय है कि किसी भी राजनीतिक दल का कोई नेता अपने भाषणों में इस पर विचार तक जाहिर करना मुनासिब नहीं समझता। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पांच सौ और एक हजार रुपए के बड़े नोट बंद करने का ऐलान किया था, जिसका संबंध देश में फैले भ्रष्टाचार एवं राजनीतिक अपराधीकरण को खत्म या न्यून करने से है। यह फैसला इसी वजह से साहसिक और ऐतिहासिक था, क्योंकि इसके माध्यम से श्री मोदी ने सीधे राजनीति के क्षेत्र में व्याप्त आर्थिक अनियमितताओं पर प्रहार किया और यही प्रभावी कदम राजनीति को पवित्र एवं पारदर्शी बनाने की दिशा में मिल का पत्थर साबित होगा। प्रधानमंत्री ने अपनी पार्टी भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में साफ कह दिया है कि राजनीतिक दलों को अपने चंदे का पूरा हिसाब-किताब आम जनता को देना ही होगा। विपक्षी दलों में काफी सयाने लोग हैं। उन्हें नोटबंदी के फैसले से खुद के झुलसने की आशंका पैदा हो गई थी। इसीलिए तो चिदंबरम से लेकर केजरीवाल और राहुल गांधी से लेकर ममता बनर्जी तक शोर मचा रहे थे कि क्यों अचानक नोटबंदी कर दी गई? बताओ कालाधन कहां है और कितना है? जरा कोई जवाब तो दे कि चुनावों में जो बेहिसाब धन बहाया जाता है, उसमें कितना सफेद होता है? जब कालेधन के बूते जीतकर लोग संसद और विधानसभा में पहुंचेंगे, तो क्या वे इसे रोकने के लिए कारगर कदम उठाएंगे? जाहिर है कि मोदी का लक्ष्य राजनीतिक दलों के ‘शुद्धिकरण’ का भी है और इसमें उनकी अपनी पार्टी भी शामिल है। ऐसा फैसला तो निस्वार्थी और साहसी राजनीतिज्ञ ही कर सकता है। चुनाव आयोग ने आय के स्रोत को जानना जरूरी माना है और इसे कानूनी बनाने का सुझाव दिया है। अगर आय का स्रोत पता न हो, तो जुटाई गई संपत्ति की पारदर्शिता के बारे में अनुमान लगाना कठिन होता है। फिर कई राजनीतिक अपने कारोबार परिवार के अन्य सदस्यों के नाम से चलाते हैं।

इसलिए आयोग ने अगर यह सुझाव मान लिया जाए तो पार्टियों पर उम्मीदवार चुनते समय ईमानदारी को प्रमुखता देने का दबाव बढ़ेगा। हर बार सभी राजनीति दल अपराधी तत्त्वों को टिकट न देने पर सैद्धांतिक रूप से सहमति जताते हैं, पर टिकट देने के समय उनकी सारी दलीलें एवं आदर्श काफूर हो जाते हैं। एक-दूसरे के पैरों के नीचे से फट्टा खींचने का अभिनय तो सब करते हैं, पर खींचता कोई भी नहीं। कोई भी जन अदालत में जाने एवं जीत को सुनिश्चित करने के लिए जायज-नाजायज प्रयोग में लेने से नहीं हिचकता। रणनीति में सभी अपने को चाणक्य बताने का प्रयास करते हैं, पर चंद्रगुप्त किसी के पास नहीं है। घोटालों और भ्रष्टाचार के लिए हल्ला उनके लिए राजनीतिक मुद्दा होता है, कोई नैतिक आग्रह नहीं। गांधी जी ने एक मुट्टी नमक उठाया था, तब उसका वजन कुछ तोले ही नहीं था। उसने राष्ट्र के नमक को जगा दिया था। सुभाष ने जब दिल्ली चलो का घोष किया, तो लाखों-करोड़ों पांवों में शक्ति का संचालन हो गया। नेहरू ने जब सतलुज के किनारे संपूर्ण आजादी की मांग की, तो सारी नदियों के किनारों पर इस घोष की प्रतिध्वनि सुनाई दी थी। पटेल ने जब रियासतों के एकीकरण के दृढ़ संकल्प की हुंकार भरी, तो राजाओं के वे हाथ जो तलवार पकड़े रहते थे, हस्ताक्षरों के लिए कलम पर आ गए। आज वह तेज व आचरण नेतृत्व में लुप्त हो गया। आचरणहीनता कांच की तरह टूटती नहीं, उसे लोहे की तरह गलाना पड़ता है। विकास की उपलब्धियों से हम ताकतवर बन सकते हैं, महान नहीं। महान उस दिन बनेंगे, जिस दिन हमारी नैतिकता एवं चरित्र की शिलाएं गलना बंद हो जाएंगी।


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