विश्व धर्म का आदर्श

By: Jan 7th, 2017 12:15 am

स्वामी विवेकानंद

गतांक से आगे…

केवल इतना ही नहीं, जो पीछे आएंगे, उनके लिए भी मैं अपना हृदय उन्मुक्त रखूंगा। क्या ईश्वर की पुस्तक समाप्त हो गई? अथवा अभी भी वह क्रमशः प्रकाशित हो रही है? संसार की यह आध्यात्मिक अनुभूति एक अद्भुत पुस्तक है। बाइबल, वेद, कुरान तथा अन्य धर्म ग्रंथ समूह मानो उसी पुस्तक के एक-एक पृष्ठ हैं और उसके असंख्य पृष्ठ अभी भी अप्रकाशित हैं। मेरा हृदय उन सबके लिए उन्मुक्त रहेगा। हम वर्तमान में तो हैं ही, किंतु अनंत भविष्य की भाव राशि ग्रहण करने के लिए भी हमको प्रस्तुत रहना पड़ेगा। अतीत में जो कुछ भी हुआ है, वह सब हम ग्रहण करेंगे, वर्तमान ज्ञान ज्योति का उपभोग करेंगे और भविष्य में जो उपस्थित होंगे, उन्हें ग्रहण करने के लिए, हृदय के सब दरवाजों को उन्मुक्त रखेंगे। अतीत के ऋषिकुल को प्रणाम, वर्तमान के महापुरुषों को प्रमाण और जो-जो भविष्य में आएंगे, उन सबको प्रणाम।

विश्व धर्म का आदर्श

(उसमें विभिन्न प्रकार की प्रवृत्तियों और पद्धतियों का समावेश किस प्रकार होना चाहिए)

हमारी इंद्रियां चाहे किसी वस्तु को क्यों न ग्रहण करें, हमारा मन चाहे किसी विषय की कल्पना क्यों न करें, सभी जगह हम दो शक्तियों की क्रिया, प्रतिक्रिया देखते हैं। ये एक-दूसरे के विरुद्ध काम करती हैं और हमारे चारों ओर बाह्य जगत में होने वाली तथा जिनका अनुभव हम अपने मन में करते हैं, उन जटिल घटनाओं की निरंतर क्रीड़ा का कारण हैं। ये ही दो विपरीत शक्तियां बाह्य जगत में आकर्षण, विकर्षण अथवा केंद्रगामी, केंद्रापसारी शक्तियों के रूप से और अंतर्जगत में राग-द्वेष या शुभाशुभ के रूप से प्रकाशित होती हैं। हम कितनी ही चीजों को अपने सामने से हटा देते हैं और कितनी ही को अपने सामने खींच लाते हैं, किसी की ओर आकृष्ट होते हैं और किसी से दूर रहना चाहते हैं। हमारे जीवन में ऐसा अनेक बार होता है कि हमारा मन किसी की ओर हमें आकृष्ट करता है, पर इस आकर्षण के कारण हमें ज्ञान नहीं होता और किसी समय किसी आदमी को देखते ही बिना किसी कारण मन भागने की इच्छा करता है। इस बात का अनुभव सभी को है और इस शक्ति का कार्य क्षेत्र जितना ऊंचा होगा, इन दो विपरीत शक्तियों का प्रभाव उतना ही तीव्र और परिस्फुट होगा। धर्म मनुष्य के चिंतन और जीवन का सबसे उच्च स्तर है और हम देखते हैं कि धर्म जगत में ही इन दो शक्तियों की क्रिया सबसे अधिक परिस्फुट हुई है। मानवता को जिस तीव्रतम पे्रम का ज्ञान है, वह धर्म से ही प्राप्त हुआ है और वह घोरतम पैशाचिक घृणा भी, जिसे मानवता ने कभी अनुभव किया, वह भी धर्म से ही प्राप्त हुई है। संसार ने कभी भी महत्तम शांति की जो वाणी सुनी है, वह धर्म राज्य के लोगों के मुख से ही निकली हुई है और जगत ने कभी भी जो तीव्रतम भर्त्सना सुनी है, वह भी धर्म राज्य के मनुष्यों के मुख से उच्चारित हुई है। किसी धर्म का उद्देश्य जितना ही उच्च होता है, उसका संगठन जितना ही सूक्ष्म होता है, उसकी क्रियाशीलता भी उतनी ही अद्भुत होती है।

– क्रमशः


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