शिक्षा के ढर्रे को बदलने का वक्त

By: Jan 10th, 2017 12:02 am

( सुदर्शन कुमार पठानिया लेखक, कुमारहट्टी, सोलन से हैं )

अगर चपरासी ही बनना था, तो उसके लिए पीएचडी करने की क्या जरूरत थी। चपरासी तो दसवीं के बाद या पहले भी बना जा सकता है। यानी हम यह समझें कि आजकल जो शिक्षा व्यवस्था चली है, वह अंग्रेजों की भारतीयों को क्लर्क बनाने की व्यवस्था से भी बदतर है…

अपने विचारों को प्रकट करना हमारा अधिकार है, परंतु इस दौरान विचारों की तर्कसंगत और विश्वसनीय अभिव्यक्ति हो, इसका ख्याल रखना हमारा दायित्व बनता है। रोजगार एक ऐसा विषय है, जिसका हम विभिन्न कोणों से विश्लेषण करने की कोशिश करेंगे।  विचार करने योग्य बात है कि सफाई कर्मचारी की भर्ती के लिए झाड़ू लगाना और नालियों की सफाई करना तर्कसंगत नहीं, परंतु बेरोजगार शिक्षक का मात्र 3000 से 4000 मासिक वेतन के लिए भरी कक्षा के सामने शिक्षण कार्य का परीक्षण लेना कहां तक तर्कसंगत है? पढ़े-लिखे बेरोजगार को नजरअंदाज करके दसवीं या बारहवीं पास अप्रशिक्षित व्यक्ति को सरकारी नौकरी पर लगाना और फिर सरकारी खर्चे पर प्रशिक्षण करवाना कितना तर्कसंगत है? एक व्यक्ति जिसने अपना सारा जीवन शिक्षा प्राप्त करने में लगा दिया, उसका फिर से प्रवेश परीक्षा द्वारा या फिर साक्षात्कार के नाम पर शोषण करना कितना तर्कसंगत है? आज हम ऐसी शिक्षण नीतियां बना रहे हैं, जिनसे हर बच्चे का स्कूल में जाना अनिवार्य हो जाए और वह फेल भी न हो, परंतु क्या हमारे पास कोई ऐसी नीति भी है कि प्रत्येक व्यक्ति को रोजगार भी मिल सके? शिक्षा का मकसद आज सिर्फ डिग्री लेना ही रह गया है। डिग्री लेने के बाद मकसद होता है कोई छोटी-मोटी नौकरी करना यानी जीवन के लक्ष्य को हमने कितना समेट दिया है। बेरोजगारी का आलम देश में यह है कि अगर कहीं चपरासी की एक पोस्ट निकलती है, तो उसके लिए लाखों आवेदन आ जाते हैं। और जानकर हैरानी होती है कि चपरासी के पद के लिए बीए, एमए या पीएचडी उम्मीदवार आवेदन करते हैं। इसका मतलब तो यही हुआ कि हम किसी भी तरह पेट भरने का जुगाड़ करने तक ही सीमित होना चाहते हैं। अगर चपरासी ही बनना था, तो उसके लिए पीएचडी करने की क्या जरूरत थी।

चपरासी तो दसवीं के बाद या पहले भी बना जा सकता है। यानी हम यह समझें कि आजकल जो शिक्षा व्यवस्था चली है, वह अंग्रेजों की भारतीयों को क्लर्क बनाने की व्यवस्था से भी बदतर है। सरकार हर बजट में शिक्षा के लिए करोड़ों रुपए का बजट शिक्षा के नाम पर रखती है और व्यवस्थाएं हमारे स्कूलों में देखो, तो कहीं पीने का पानी नहीं है, कहीं शौचालय नहीं है, तो कहीं खेल का मैदान नहीं है। न प्रशासन को चिंता और न अभिभावकों ने जहमत उठाई कि पता तो करें कि जिस स्कूल में हमारे बच्चे पढ़ रहे हैं, वहां पढ़ाने वाला स्टाफ काबिल है, वहां पर वे सब सुविधाएं हैं जिनसे बच्चे का विकास होता है। अध्यापक सिर्फ सिलेबस कवर करने को ही अपनी जिम्मेदारी समझता है। जब शिक्षा का ढर्रा ही ऐसा बन गया है, तो राजेगार नीति भी ढुलमुल ही होगी। सरकार अपने बजट को बचाने के लिए अनुबंध पर अप्रशिक्षित लोगों को रख लेती है, पर सरकार को क्या पता कि अपने थोड़े से लाभ के लिए वह छात्रों के भविष्य से कितना बड़ा खिलवाड़ करती है। जब अध्यापक ही काबिल नहीं होगा, तो वह छात्रों को क्या शिक्षित करेगा। अध्यापक जिसे हर वक्त अपनी नियुक्ति से हटने का डर लगा रहेगा कि कब रेगुलर अध्यापक आ जाने से उसे हटा दिया जाएगा, तो वह भला पढ़ाने में कहां ध्यान लगा पाएगा। कुछ दिन पूर्व लेखक रणजीत सिंह ने अपने लेख सेवानिवृत्ति की उम्र सीमा घटाकर 56 वर्ष निर्धारित करने का सुझाव दिया था। उनका यह सुझाव ठीक है और संभवतया इस फार्मूले को अपनाकर हम एक सेवारत कर्मचारी का सेवानिवृत्ति के बाद की पेंशन देकर दो अतिरिक्त नियुक्त किए जाने वाले युवाओं को वेतन का भी भुगतान कर सकते हैं। लेकिन हमारी रोजगार नीति का दूसरा अहम पहलू यह है कि नौकरी प्रवेश में उम्र सीमा 45 वर्ष तक तय करके हम अपने बेरोजगार युवाआें को कौन सी दिशा दिखा रहे हैं?

क्या अब इस नीति में बदलाव की जरूरत महसूस नहीं हो रही है? समस्याओं को समस्याओं की तरह देखना और फिर बस देखते ही रहना उसका कोई समाधान तो नहीं माना जा सकता। आज आवश्यकता इस बात की है कि समस्याओं को भलीभांति समझकर उसके समाधान के लिए एक समग्र नीति बनाकर क्रियान्वित की जाए। 45 वर्ष की आयु तक रोजगार के झुनझुने या बेरोजगारी भत्ते में वह कुव्वत नहीं, जिससे युवा संतुष्ट हो जाएं। भत्तों से आगे बढ़ते हुए अब शासन व्यवस्था को व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाना होगा। इस दिशा में हमें इस हकीकत को भी समझना होगा कि हर युवा को सरकारी नौकरी नहीं दी जा सकती, तो कम से कम प्रदेश भर में स्वरोजगार की कुछ ऐसे संभावनाएं तो ढूंढी ही जा सकती हैं, जहां से युवाओं में एक न्यूनतम व सम्मानजनक आर्थिकी सुनिश्चित की जा सके। पहल सरकार की तरफ से होना जरूरी है कि वह युवाओं को सपने या सब्जबाग न दिखाकर उन्हें सही मार्गदर्शन करे। बेरोजगारी भत्ता या कौशल विकास भत्ता तो युवाओं को लॉलीपाप दिखाना है और असली मकसद सरकार को अपना वोट बैंक बनाना होता है। 45 वर्ष की उम्र में अनुबंध आधार पर नौकरी में युवाओं में नौकरी के प्रति भला क्या उत्साह होगा। सरकार को अपना ढर्रा बदलना होगा। पुरानी लकीर पीटने से सरकार का अपना स्वार्थ तो सिद्ध हो जाएगा, पर युवा अपने भविष्य को लेकर असुरक्षित महसूस करेगा। अब युवा को भी अपनी सोच को बदलना होगा। सोच बदलेगी, तभी देश की दशा और दिशा बदलेगी।


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