शिक्षा से बेहूदा मजाक है ‘सब पास’ की नीति

By: Jan 11th, 2017 12:05 am

( जगदीश चंद बाली लेखक, कुमारसैन, शिमला से हैं )

जगदीश चंद बाली विभिन्न स्कूलों के  निराशाजनक परिणाम उस भयानक भविष्य की ओर इशारा कर रहे हैं, जिस ओर ग्रेडिंग व ‘सब पास’ की नीति पर आधारित हमारी शिक्षा बढ़ रही है। यह मेरी मनगढ़ंत राय नहीं है, बल्कि विभिन्न सर्वेक्षणों में यह बात कई बार जाहिर हो चुकी है कि ‘सब पास’ वाली नीति के चलते छात्र आठवीं तो पास कर रहे हैं, परंतु उन्हें आधारभूत ज्ञान ही नहीं…

हाल ही में राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक पाठशाला गागला में नवीं कक्षा में सभी छात्रों के फेल होने की खबर को पढ़कर खेद तो जरूर हुआ, पर बात हैरान कर देने वाली नहीं लगी। खेद इसलिए क्योंकि ऐसा परिणाम अभिभावकों, छात्रों व अध्यापकों के लिए दुखदायी व चिंताजनक है। हैरानी इसलिए नहीं हुई, क्योंकि मौजूदा प्रणाली व व्यवस्था के चलते ऐसे परिणाम की संभावना बनी रह सकती है। मैं यह तो नहीं कह रहा हूं कि अध्यापक इस परिणाम के लिए जवाबदेह नहीं हैं, पर यह भी नहीं स्वीकार सकता कि सीधे उन पर ही पूरा दोष मढ़ दिया जाए। वे केवल तभी दोषी हैं, यदि उन्होंने वर्ष भर अपने अध्यापन में कोई कोताही बरती हो। उस शिक्षा प्रणाली व व्यवस्था की नाकामी के लिए किसकी जवाबदेही तय की जाए, जिसके तहत बच्चा आठवीं पास करने के बावजूद विभिन्न विषयों का आधारभूत ज्ञान नहीं रखता?

पूरा सत्य तो जांच के बाद ही सामने आ सकेगा, परंतु कहा जा सकता है कि इस तरह के अवांछित परिणाम के लिए अभिभावकों का भड़क जाना स्वाभाविक तो जरूर है, परंतु जरूरी नहीं कि जायज भी हो। यह भी देख लेना लाजिमी है कि क्या पूरे वर्ष इन अभिभावकों ने स्कूल का रुख करके अपने लाड़लों की पढ़ाई-लिखाई की सुध लेने की कोशिश की या नहीं। अगर उन्हें अध्यापकों की कोताही कहीं नजर आई थी तो स्कूल की एसएमसी ने क्या कदम उठाया? यदि एसएमसी या अभिभावकों ने पूरे सत्र भर अपनी इस जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं किया, तो परिणाम आने पर इतनी हाय तौबा व शोर क्यों? वर्ष भर खामोशी व चैन की बांसुरी बजाने के बाद खराब परिणाम आने पर दोष अध्यापकों के माथे मढ़ देना न तार्किक है और न ही न्यायसंगत। ऐसी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती कि अध्यापकों ने बिना पेपर देखे ही इन्हें फेल कर दिया होगा। क्या यह मान लिया जाए कि अभिभावक यह चाहते हैं कि अध्यापक केवल परीक्षा लेने की औपचारिकता मात्र करें और बिना पर्चा जांचे ही उन्हें पास कर दें? ऐसे आदेश फिलहाल शिक्षा विभाग ने जारी नहीं किए हैं, जो ऐसा करने के लिए अध्यापकों को निर्देशित या बाध्य करते हों। बहुत सारे जानकारों का मानना है कि माता-पिता अपने बच्चों के पहले शिक्षक होते हैं और घर पहला स्कूल। अपने बच्चों की पीठ पर महज बस्ता लाद कर स्कूल भेज देने से ही मां-बाप का फर्ज पूरा नहीं हो जाता। यह भी उनका ही दायित्व बनता है कि जब बच्चा स्कूल से घर लौटे, तो उससे पूछा जाए कि आज उसने स्कूल में क्या-क्या किया और घर में क्या क्या करना है। अध्यापक का अध्यापन तभी कारगर साबित हो सकता है, जब शिष्य ज्ञान को अर्जित करने के योग्य हो या अर्जन करने की चाहत में प्रयत्न करता हो। अध्यापक ज्ञान का भंडार जरूर हो सकता है, परंतु यह मान लेना कि उसके पास कोई निंजा तकनीक या अलादीन का चिराग है, उसके साथ नाइनसाफी होगा। कहावत है कि आप गधे को कुएं तक ले जा सकते हैं, पर उसे लौटे से पानी नहीं पिला सकते।

ऐसा निराशाजनक परिणाम उस भयानक भविष्य की ओर इशारा कर रहा है, जिस ओर ग्रेडिंग व ‘सब पास’ वाली नीति पर आधारित हमारी शिक्षा बढ़ रही है। यह मेरी निजी व मनगढ़ंत राय नहीं है, बल्कि विभिन्न सर्वेक्षणों में यह बात कई बार जाहिर हो चुकी है कि ‘सब पास’ वाली नीति के चलते छात्र आठवीं तो पास कर रहे हैं, परंतु बहुत सारे विषयों का उन्हें आधारभूत ज्ञान ही नहीं। ऐसा कई राज्यों के मुख्यमंत्री, नेता व शिक्षाविद भी विभिन्न मंचों से कह चुके हैं। एक राज्य के मुख्यमंत्री ने तो आज की शिक्षा प्रणाली पर तंज कसते हुए कहा था-आठवीं तक कोई फेल नहीं, उसके बाद कोई पास नहीं। जो ज्ञान छात्र ने आठ वर्षों तक हासिल नहीं किया, वह एकाएक नवीं कक्षा में कैसे आ सकता है? निचले स्तर पर रही कमियों के लिए आखिर नवीं, दसवीं, ग्यारहवीं व बारहवीं के अध्यापकों को ही कैसे दोषी माना जा सकता है? प्राथमिक स्तर की नाकामियों की जांच क्यों नहीं की जाती? प्राथमिक स्तर पर ये क्यों नहीं जांचा जाता कि छात्र का वास्तव में क्या ग्रेड चल रहा है? बात एक विद्यालय के परिणाम की नहीं है। यह परिणाम बहुत बड़ी चेतावनी दे रहा है और मौजूदा शिक्षा प्रणाली पर प्रश्न चिन्ह लगाता है। वास्तविकता यह है कि अधिकतर स्कूलों में या तो नवीं व इससे अगली कक्षाओं के परिणाम खराब आ रहे हैं या फिर जैसे-तैसे उन्हें अच्छा दिखाया जा रहा है। आंकड़ों व गुणवत्ता की इस जद्दोजहद में न आंकड़ा सही आ रहा है और न गुणवत्ता दिखाई दे रही। ऐसा लगता है कि शिक्षा प्रयोगों के दलदल में उलझ कर रह गई है।

जब भी ऐसे खराब परिणाम आते हैं, अभिभावक, सियासतदां, नौकरशाह सभी की निगाहें अध्यापकों की तरफ तरेरी हो जाती हैं और फिर शुरू हो जाता है, एक-दूसरे पर गलतियों का ठिकरा फोड़ने का संघर्ष। इस ‘मैं न मानूं’ वाली कशमकश में सबसे ज्यादा नुकसान उठाने वाला मोहरा बच्चा बनता है। इस खेल में अंदाजा लगाना मुश्किल है कि यह खेल कब रुकेगा। इतनी इल्तजा जरूर करूंगा।

सिर्फ अंधेरों की शिकायत से कुछ नहीं होगा जनाब,

यह भी तो देखिए कि रोशनी की मजबूरी क्या है!


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