हिमाचली परिदृश्य के कसूरवार
हिमाचल में बदलती चुनावी भाषा और राजनीतिक बोलियों के बीच बेअसर अगर कुछ है, तो आवारा पशुओं और वन्य प्राणियों की बढ़ती तादाद का प्रश्न। क्योंकि सियासी भूमि कभी बंजर नहीं होती, लिहाजा किसान-बागबान के उजड़े खेत पर नहीं उगती। हिमाचली प्रगति के हर आयाम के दूसरे छोर पर खड़ा बंदर, आवारा कुत्ता, गाय या कोई वन्य प्राणी सारे परिदृश्य को कसूरवार बनाता है तो दावों के बीच सरकारी नीतियों पर असहनीय टिप्पणी भी करता है। बंदर अगर कृषि-वन और वानिकी का मजमून है तो आवारा पशुओं की चरागाह पर खड़े समाज की संवेदना को भी चित्रित करता है। अब बंदर केवल कृषि-बागबानी के खिलाफ कोई शैतान नहीं, बल्कि घर-आंगन तक पहुंचा फसाद है। हिमाचल में धार्मिक दंगे नहीं होते, लेकिन दंगई वानर पर धार्मिक मान्यताओं का पहरा जारी है। घोषित तौर पर बंदर को मारने की अनुमति में हिमाचल की पृष्ठभूमि सुन्न है और स्थापित निशानेबाज खामोश हैं। दूसरी ओर फैसलों ने जो लबादे ओढ़ रखे हैं, उसकी परिधि में बंदर से गोली के जरिए निजात पाना मुश्किल है। मनरेगा के जरिए कृषि-बागबानी की रक्षा का प्रस्ताव पता नहीं कहां चला गया और वैज्ञानिक बाड़बंदी का शोध भी गुमसुम रहा। आश्चर्य यह कि प्रदेश की कृषि और वानिकी से संबद्ध दो विश्वविद्यालय भी अपने प्रगति पथ पर बंदर के खिलाफ कोई पुख्ता विकल्प तैयार नहीं कर पाए। अगर शैक्षणिक संवेदना धरती से जुड़े तो लक्ष्य आधारित शोध व तकनीक से कुछ तो सामने आता। स्टार्टअप के जरिए अगर उपर्युक्त विश्वविद्यालय वन्य प्राणियों की आवारगी पर चिंतनशील होते, तो किसान-बागबानों का दर्द इन संस्थानों के माथे पर चिन्हित होता। आश्चर्य यह कि वन मंत्री बंदरों और अन्य वन्य प्राणियों पर ताल ठोंकते सुझाव देते रहे, लेकिन इनकी संख्या वृद्धि का विस्फोटक अंदाज खुंखार होता गया। सरकारी नौकरियों से अधिक संख्या में वन्य प्राणियों से निजात दिलाई जाए तो यकीनन जमीन से किसान-बागबान की पगार बढ़ जाएगी। विकास के तमाम मुद्दों और दावों के बीच रेखांकित होते हिमाचली जीवन का सबसे अधिक भयावह मुकाबला अपने इर्द-गिर्द एकत्रित होते बंदर, आवारा कुत्तों या पशुओं से होता जा रहा है। एक साल में आवारा कुत्तों द्वारा काटे गए लोगों की संख्या अगर पचास हजार के करीब है, तो इस दहशत को समझना होगा। आश्चर्य यह कि शिमला के रिज पर सैलानी मस्ती के आलम में आवारा कुत्तों और बंदरों के आक्रमण पर अंकुश नहीं लग पाया, तो कमोबेश यही आफत हर बस्ती के करीब पहुंच चुकी है। सरकार अगर एक अदद टास्क फोर्स गठित करके बंदरों और लावारिस पशुओं से हिमाचल को मुक्त करने का मार्ग चुने, तो राजनीतिक बढ़त के हिसाब से यह सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन होगा। बंदर के खिलाफ एक अंदरूनी आक्रोश हर सामान्य चर्चा का विषय बन चुका है, लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमजोरी इस दौरान परिलक्षित होती है। इसी से जुड़े विषयों की अपनी विचारक्षमता में कृषि एवं बागबानी विश्वविद्यालयों की प्रासंगिकता की अब नए सिरे से पड़ताल करनी होगी, क्योंकि अगर खेत बंजर और बागीचे सूख रहे हैं, तो ऐसे संस्थानों की आर्थिक पैरवी कतई नहीं हो सकती। अंततः बंदर या अन्य वन्य प्राणियों को रोकने के लिए एक साथ कई उपायों की आवश्यकता है। ऐसे में वन विभाग की जिम्मेदारी से बाहर भी ऐसी समस्याओं के समाधान खोजने की पद्धति में एक समन्वित प्रयास चाहिए। आवारा पशुओं से किसान को निजात दिलाने के लिए ग्रामीण तथा शहरी विकास विभागों के साथ-साथ मंदिर ट्रस्ट, शैक्षणिक व सामाजिक संस्थानों के अलावा स्थानीय निकायों के दायित्व सुनिश्चित करने होंगे। प्रदेश की प्रगति रिपोर्ट और तमाम पुरस्कारों की चमक के बावजूद, तरक्की की टहनियों पर बैठा बंदर, सड़कों पर भटक रही गाय और गली में आवारा कुत्तों की फौज से यह प्रदेश अभिशप्त है।
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