अधोसंरचना की कब्र में

By: Feb 7th, 2017 12:05 am

बेशक अधोसंरचना विकास के राष्ट्रीय पैमानों में हिमाचल की कई छलांगें बाकी हैं, लेकिन इस दौरान ढांचागत उपलब्धियों को हम कमतर नहीं आंक सकते। एक पर्वतीय राज्य के रूप में हिमाचल से बेहतर अधोसंरचना का विकास किसी अन्य ऐसे राज्य में नहीं हुआ, फिर भी अब प्रश्न इसके सदुपयोग व मानकीकरण के बरकरार हैं। यहां पर्वतीय शैली के भवनों का आधुनिक निर्माण से मुकाबला है, तो यह लाजिमी हो जाता है कि इस क्षेत्र में आर एंड डी पर जोर दें। प्रदेश में हालांकि इंजीनियरिंग की पढ़ाई का विस्तार हुआ है और तकनीकी विश्वविद्यालय इस दिशा में पाठ्यक्रमों की रूपरेखा निर्धारित कर रहा है, लेकिन वास्तुकला व डिजाइन पर काफी शोध की जरूरत है। इसी तरह शहरी तथा यातायात व्यवस्था के प्रश्नों का उत्तर ढूंढने के लिए अधोसंरचना का स्वरूप बदलना होगा और यह दक्षता इंजीनियरिंग के बदलते सरोकार, अध्ययन व नवाचार से आएगी। हिमाचल को अपनी भौगोलिक परिस्थिति और विकास के सही अर्थों में जो आधुनिक अधोसंरचना चाहिए, उसके मानदंड निर्धारित नहीं हैं। नतीजतन निजी क्षेत्र कहीं आगे और साहसिक होकर जोखिम उठा रहा है। बेशक हिमाचल के गांव तक में ‘बड़ा सोचने’ की प्रतिस्पर्धा जारी है, लेकिन इसका असर अधोसंरचना पर पड़ रहा है। गांव का बदलता जीवन भी अपनी पारंपरिक पद्धतियों और अधोसंरचना से बाहर निकल चुका है और सही ढांचे की बुनियाद हर स्तर पर सही होनी चाहिए। इतना ही नहीं, अगर पारंपरिक अधोसंरचना से रिश्ता पूरी तरह कटा तो जीवन अस्त-व्यस्त ही होगा। उदाहरण के लिए ग्रामीण स्तर पर वर्षों से चल रहे पारंपरिक सिंचाई साधनों को जिस तरह हमने खुर्द-बुर्द किया, उससे खेत को सूखा रहना पड़ रहा है। सिंचाई की जितनी भी नई परियोजनाएं अमल में लाई गईं, वे व्यावहारिक रूप से नाकाम साबित हो रही हैं, तो इस विषय पर कब गौर करेंगे। बेशक हिमाचल ने विकास आंकड़ों के साथ अधोसंरचना निर्माण का रिकार्ड दर्ज किया है, लेकिन कितनी सड़कें, जल या विद्युत आपूर्ति परियोजनाएं अप्रासंगिक भी हो गईं। उदाहरण के लिए पालमपुर बाइपास थ्रू ब्रिज के निर्माण के वक्त और कुछ जिंदगियां तबाह हो गईं, लेकिन चंद मीटर का पुल हमारी अधोसंरचना को लगातार कमजोर साबित कर रहा है। इसी तरह चुवाड़ी से लाहड़ू तक की मात्र सात किलोमीटर सड़क को अगर पीडब्ल्यूडी की क्षमता सुधार नहीं सकती, तो हम विकास की किस कब्र में बैठे हैं। यह विडंबना उस लाचारी में भी दर्ज होती है, जो परियोजनाओं की डीपीआर बनाते समय दिखाई देती है-पर्वतीय विकास के आड़े आते वन अधिनियम की शर्तें। ऐसे में राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल अगर पर्वतीय शहरों के दबाव और उनकी क्षमता का अवलोकन करती है, तो उसे विकल्पों की परिपाटी तैयार करने के निर्देश केंद्र सरकार को देने होंगे। ये चाहे पर्वतीय विकास के वित्तीय मानदंड हों या अनुकूल राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय तकनीक की उपलब्धता। अगर शिमला या धर्मशाला जैसे शहरों में स्काई बस या एरियल ट्रांसपोर्ट का विकल्प अपरिहार्य है, तो एनजीटी को इसके वित्त पोषण के लिए केंद्र की प्राथमिकता तय करनी होगी। अगर लेह रेल परियोजना की राष्ट्रीय आवश्यकता समझी जाए तो ऐसी अधोसंरचना का विकास ही राष्ट्रीय निर्माण है। पर्यावरण संरक्षण अगर राष्ट्रीय धरोहर है, तो पर्वतीय विकास की शर्तों पर अधोसंरचना का नया अस्तित्व खोजना होगा और इसका राष्ट्रीय प्राथमिकता के आधार पर निर्माण भी करना होगा। केंद्र ने जिस तरह राष्ट्रीय उच्च मार्गों व फोरलेन सड़कों के निर्माण की हामी भरी है, उसे देखते हुए अधोसंरचना की तरह राज्य व केंद्र के भीतर वित्तीय दूरियां भी कम होंगी। विकास की नई अधोसंरचना के साथ-साथ पुराने ढांचे की हिफाजत व पुनर्निर्माण में जनता की भूमिका भी तय होगी। कई तंग बाजार, तंग सड़कों और धरोहर इमारतों की रखवाली में वांछित अधोसंरचना का दायरा व स्वरूप फिर से लिखा जाएगा। अतः इस हक की अदायगी में निजी हित को आंच आती है, तो योगदान की माटी पर भविष्य के हस्ताक्षर पहचानने होंगे। आज भले ही नेशनल हाई-वे पर राजनीति अपने-अपने छोर का श्रेय ढूंढे, लेकिन डीपीआर के तथ्य और तर्क पर नागरिक समाज की अनुमति व सहयेग अभिलषित हैं। सरकारी तौर पर अगर पुनर्वास व मुआवजे की दरों में संवेदना और सामर्थ्य प्रकट होगा, तो सहयोग के रिश्ते हिमाचल का नित नया मुकाम लिखेंगे, वरना गांव की कूहल, गली या श्मशानघाट तक पसर गया स्वार्थ का अतिक्रमण प्रदेश के डाक बंगलों के सही इस्तेमाल, पारंपरिक ढांचे के रखरखाव तथा सार्वजनिक भूमि के उचित बंदोबस्त की दिशा में हमें भविष्य के कई भूमि बैंक स्थापित करने होंगे।


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