अष्टावक्र महागीता

By: Feb 4th, 2017 12:05 am

एको द्रष्टाऽसि सर्वस्य मुक्तप्रायोऽसि सर्वदा।

अयमेव हि ते बन्धो दृष्टारं पश्यसीतरम्।

यहां पर अष्टावक्र साक्षीभाव की महिमा की तरफ संकेत करते हैं। यह साक्षीभाव ही सृष्टि का परम रहस्य है। एक तू ही सबका द्रष्टा और सदा-सर्वदा सत्य व मुक्त है या सत्यशः ही मुक्त है, लेकिन तू स्वयं को द्रष्टा के रूप में न जानकर किसी अन्य को ही द्रष्टा मानता है। यह तेरा बंधन है। अष्टावक्र गीता के इस सूत्र में अद्वैतवाद की छाप स्पष्ट परिलक्षित है। वेदों के अंतिम भाग उपनिषदों में भी अद्वैतवाद है। वहां भी अयमात्मा, ब्रह्म, तत्त्व, अहं ब्रह्मास्मि आदि की उद्घोषणाएं की गई हैं। द्वैत में जहां दो होने का भाव होता है, वहीं अद्वैत में एक होने का भाव होता है। ब्रह्म एक है। उसी एक ब्रह्म से चराचर जगत की व्याप्ति है। इसी अद्वैतवाद को बढ़ावा देते हुए अष्टावक्र कहते हैं कि आत्मारूप होने से ब्रह्म, परमात्मा, ईश्वर भी तू ही है। आत्मा और परमात्मा भिन्न नहीं हैं। दोनों एक ही हैं। यह परमात्मा या आत्मा सदैव मुक्त है और बंधनरहित है। आत्मा सबका द्रष्टा है, परमात्मा भी सबका द्रष्टा है। लेकिन परमात्मा ही चराचर जगत के जीवों के हृदय में आत्मारूप से वास करता  हुआ सबका एकमात्र द्रष्टा है। यह सृष्टि भी उसी की है। वह स्वयं भी सृष्टि में है। लेकिन  सृष्टि में रहता हुआ भी वह सृष्टि से निर्लिप्त है और एक अकेला द्रष्टा है। इसलिए दो तो कुछ है ही नहीं। दो का तो भाव बनाया हुआ है।


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