आत्म पुराण

By: Feb 18th, 2017 12:05 am

यह विचार करके पिता ने बालक से कहा, देखो यह घोड़ा राजा नहीं है, यह हाथी भी राजा नहीं है और यह रथ भी राजा नहीं है। यह पैदल पुरुष भी राजा नहीं है, यह तरह-तरह के हथियारों को लेकर चलने वाला भी राजा नहीं है, यह तुरही बजाने वाला भी राजा नहीं है। यह श्वेत छतर भी राजा नहीं है और यह चामर, तुरही, जिन लोगों के हाथ में है यह भी राजा नहीं है। इसी प्रकार यह नीली, पीली व लाल वर्दी वाले भी राजा नहीं हैं। यह चित्र-विचित्र वस्त्रों को धारण करने वाले भी राजा नहीं हैं। यह स्वर्णमय खड्ग और स्वर्णमय धनुष को धारण करने वाला भी राजा नहीं है। इस प्रकार के वचनों से पिता ने राजा के अतिरिक्त अन्य सभी पदार्थों  का निषेध कर दिया। इसके पश्चात वह बालक इन सबसे पृथक राजा को प्रत्यक्ष देखने लगा कि राजा कैसा है। राजा का वर्ण सोने के समान दमकता है, उसके ऊपर श्वेत छतर है और दासियां चंवर डुला रही हैं।  वह श्वेत धारण किए है और उसकी कांति दिव्य है। पिता के निषेध वाक्यों को सुनकर बालक ने राजा को प्रत्यक्ष जान लिया। इसी प्रकार निषेध शास्त्र भी एक आत्मा को छोड़कर अन्य सभी स्थूल, सूक्ष्म प्रपंच का निषेध करता है। उस निषेधात्मक विवेचन को सुनकर अधिकारी जिज्ञासु समस्त प्रपंच से विलक्ष्ण रूप वाले आत्मा को स्वयं ही जान लेता है। इसलिए हे देवराज इंद्र! यह निषेधमुख उपदेश ही आत्मा को समझने का सबसे श्रेष्ठ उपाय है। अगर इसे स्वीकार न किया जाए तो भाव-अभाव से रहित निर्गुण परमात्मा को कौन समझा सकता है।

 शंका- हे भगवन! श्रुति ने नेति-नेति कह कर जिन मूर्त-अमूर्त पदार्थों का निषेध किया है,उनके अतिरिक्त जो अन्य जड़ पदार्थ हैं, जिनका निषेध नहीं किया गया है, अगर कोई जिज्ञासु उनको आत्मा का स्वरूप मान ले तो वे क्या भ्रांति में नहीं पड़ जाएंगे।

समाधान- कारण , अज्ञान सहित जाक मूर्त-अमूर्त रूप प्रपंच हमने कथन किया है, उतना ही जड़ प्रपंच है। उससे अधिक अन्य कोई जड़ प्रपंच नहीं है। इसलिए नेति-नेति की श्रुति अद्वितीय आत्मा के सिवाय अन्य सब प्रपंचों का निषेध करती है। इसमें  पहले न से वह कार्य कारण रूप तथा स्थूल-सूक्ष्म रूप जितना भी भाव प्रपंच है उसका निषेध करती है और दूसरे न से उस भाव के अभाव का निषेध करती है। जब भाव-अभाव रूप प्रपंच आत्मा से अलग हो गया तब वह आनंद स्वरूप स्वप्रकाश आत्मा ही शेष रह जाती है।

शंका– हे भगवन! ऐसी शुद्ध और असंग आत्मा से जगत की उत्पत्ति कैसे संभव हो सकती है?

समाधान- हे देवराज इंद्र्र! हम भी असंग आत्मा से जगत की उत्पत्ति नहीं मानते। यह जगत तो माया विशिष्ट आत से उत्पन्न हुआ है। हमारे कथन अनुसार यह संपूर्ण स्थल सूक्ष्म प्रपंच परमेश्वर की माया द्वारा रचा है और  इससे यह सब मिथ्या है।

शंका-हे भगवन! संपूर्ण प्रपंच माया द्वारा रचित है, इससे मिथ्या है, इसे हम मान सकते हैं। तो भी माया तो माया द्वारा ही रचित नहीं है, इससे वह तो सत्य है।

समाधान– हे देवराज! जो माया कार्यरूप होती है वह मिथ्या है और यह प्रपंच उसके कार्य का ही रूप है। पर कारण रूप माया मिथ्या नहीं होती अथवा यह भी कहा जाता है कि यह माया और उसके द्वारा रचित प्रपंच सब चैतन्य परमात्मा में समाविष्ट है। फिर जगत में जिस प्रकार इंद्रजाल करने वाले पुरुष द्वारा रचे स्थूल, सूक्ष्म पदार्थ लोगों को दिखाई देते हैं पर वह सब मिथ्या ही होते हैं, उसी प्रकार माया विशिष्ट इंद्र द्वारा रचा यह इंद्रजाल भी लोगों को दिखाई देता है।


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