ऋग्वैदिक स्त्री

By: Feb 4th, 2017 12:05 am

पहले मंडल में पराशर शाक्त्य ऋषि अग्नि को अनेक विशेषणों से विभूषित करते हुए उन्हें पतिव्रता स्त्री की तरह विशुद्ध बताते हैं। द्युतिमान सूर्य की तरह अग्नि समस्त संसार को धारण करती है। अनुकूल मित्र से संपन्न राजा की तरह अग्नि पृथ्वी पर निवास करती है। संसार अग्नि के सामने इस प्रकार बैठता है, जिस प्रकार पिता के घर में पुत्र बैठता है। अग्नि पति से सेवित पतिव्रता स्त्री की तरह विशुद्ध है…

इससे प्रश्न यह उठता है कि क्या उस काल में विधवा स्त्री के संबंध को सामाजिक मान्यता थी। क्या देवर के साथ विधवा भाभी का विवाह हो सकता था। ऐसे संबंध की भावना से इनकार नहीं किया जा सकता। कारण यह है कि इसका अभिशिष्ट रूप अभी भी हरियाणा में करेवा के रूप में दिखाई देता है। अभी भी हरियाणा में विशेष रूप से जाटों में बड़े भाई की मृत्यु के बाद उसकी विधवा पत्नी का विवाह उसके छोटे भाई से होता है, भले ही छोटा भाई पहले से ही विवाहित हो। हरियाणा ऋग्वैदिक भारत का एक मुख्य क्षेत्र रहा है। स्वामी दयानंद ने इस पर लिखा है कि यदि मृत्यु के कारण पति का पत्नी से वियोग हो जाए, तो पत्नी संतान की इच्छा होने पर देवरतुल्य पुरुष से संतान प्राप्त कर सकती है। सांस्कृतिक और सामाजिक रूप से सुगठित समाज में छिटपुट फिसलन की ओर संकेत करने वाली इन कतिपय ऋचाओं से अलग ऋग्वेद में स्त्री को लेकर अनेक तरह के सामान्य कथन भी मिलते हैं। जैसे आठवें मंडल में ऋषि विश्वमना वैयश्व(अंगिरागोत्रीय व्यश्व के पुत्र) अश्विद्वय की स्तुति करते हुए कहते हैं। वस्त्र से ढकी हुई वधू के समान(अधिवस्त्रा वधूः इव) जो मनुष्य यज्ञों से पूर्णतः ढका हो, उसे अभीष्ट पदार्थों को प्रदान करते हुए अश्विदेव उसका मंगल करते हैं। दसवें मंडल में ही त्वष्टा ऋषि ने विष्णु आदि देवताओं की स्तुति करते हुए स्त्री में गर्भधारण और गर्भस्थ शिशु की रक्षा आदि को लेकर तीन ऋचाएं कही हैं। वह कहते हैं विष्णु देव स्त्री को गर्भाधान के उपयुक्त कर दें। त्वष्टादेव उसके विभिन्न अवयवों का निर्माण करें।  हे देवी तुम गर्भ का संरक्षण करो। हे स्त्री कमल माला धारण करने वाले अश्विद्वय तुम्हारे गर्भ को स्थिरता प्रदान करे। स्त्री तुम्हारी गर्भस्थ संतान की रक्षा के लिए अश्विद्वय सुवर्णमय अरणियो का मंथन करते हैं(हिरण्यी अरणी यं अश्विना निर्मंथतः)। दसवें मंडल में विमद ऋषि अपने और इंद्र के सख्यभाव की समानता भ्राता भगिनी के मन की एकता की तरह ही देखते हैं। हे इंद्र तुम्हारे और विमद ऋषि के साथ जो मैत्री का बंधन है,वह कभी नष्ट न  होने पाए। हे देव जैसे भ्राता और भगिनी में जो मन की एकता होती है, वैसे ही तुम्हारे मन का ऐक्य हम  जानते हैं। पहले मंडल में पराशर शाक्त्य ऋषि अग्नि को अनेक विशेषणों से विभूषित करते हुए उन्हें पतिव्रता स्त्री की तरह विशुद्ध बताते हैं। द्युतिमान सूर्य की तरह अग्नि समस्त संसार को धारण करती है। अनुकूल मित्र से संपन्न राजा की तरह अग्नि पृथ्वी पर निवास करती है। संसार अग्नि के सामने इस प्रकार बैठता है, जिस प्रकार पिता के घर में पुत्र बैठता है। अग्नि पति से सेवित पतिव्रता स्त्री की तरह विशुद्ध है।

कृपाशंकर सिंह,  शिमला

लेखक दिल्ली विवि में प्रोफेसर रहे हैं। लगभग 15 किताबें लिख चुके  हैं।  संस्कृति और अध्यात्म में विशेष रुचि  है।


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