गालियां दो, चुनाव लड़ो

By: Feb 7th, 2017 12:05 am

घोषणा-पत्र छापना बंद कर देने चाहिए। ये किसी पार्टी के वैचारिक तथा कार्यक्रम संबंधी दस्तावेज नहीं, बल्कि कागजों के छपे, मृत पुलिंदे हैं। क्यों इनकी छपाई और बंटाई पर लाखों रुपए खर्च किए जाएं? विकास की बातें भी क्यों की जाएं? उनमें न लच्छेबाजी है, न कोई गाली और बदजुबानी है। विकास तो एक निरंतर प्रक्रिया है। सरकार कुछ न कुछ तो काम करती ही है। आखिर उनकी जेबें भी तो भारी होती हैं। यदि विकास नहीं भी होगा, तो भारत के लोग नरक में जीने को आदी हैं। चुनावों का आकर्षण तो गालियों से बनता है। उसमें कोई मर्यादा, संयम, शालीनता नहीं। देश के चुने प्रधानमंत्री को भी बख्शा नहीं जाता। सपा के बड़बोले, बदजुबान नेता आजम खान ने कहा-सबसे बड़ा रावण लखनऊ में नहीं, दिल्ली में रहता है। उसे जलाने की जरूरत है। संकेत साफ हैं कि ये शब्द किसके लिए इस्तेमाल किए गए हैं, लेकिन विडंबना है कि सपा के नेता और प्रवक्ता सरेआम, टीवी चैनलों पर झूठ बोल रहे हैं कि ‘रावण’ प्रधानमंत्री मोदी को नहीं कहा गया। बहरहाल बात यहीं खत्म नहीं होती। बसपा के मुस्लिम नेता याकूब कुरैशी की आशंका है कि यदि उत्तर प्रदेश में भाजपा जीती, तो नमाज बंद हो जाएगी। हो सकता है, यह हिंदोस्तान का आखिरी चुनाव साबित हो! इस संदर्भ में भाजपा नेता सुरेश राणा भी कम नहीं हैं, जिन्होंने दावा किया है कि यदि वह जीते, तो कैराना, मुरादाबाद और देवबंद में कर्फ्यू लगा देंगे। फेहरिस्त काफी लंबी है और बयानों का कोई अंत नहीं है। सभी प्रमुख राजनीतिक दलों के नेता बदजुबान और गालीबाज हैं। यदि यही गालियां देनी हैं, विस्फोटक और विभाजक माहौल बनाना है, तो किसी चुनावी एजेंडे की जरूरत ही क्या है? यदि जरूरत नहीं है, तो फिर घोषणा-पत्र या संकल्प पत्र क्यों छापे जाएं? बड़े-बड़े बैनर और विज्ञापन क्यों जारी किए जाएं? बदजुबानी के संदर्भ में ‘स्कैम’ शब्द की परिभाषाएं ही बदल दी गईं। अशोभनीय लगा, जब प्रधानमंत्री मोदी ने मेरठ रैली में भाजपा की लड़ाई ‘स्कैम’ के खिलाफ बताई। उसमें  एस से सपा, सी से कांग्रेस, ए से अखिलेश और एम से मायावती कहा गया। पलटवार में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव कुछ हदें ही लांघ गए और बोले-देश को ए-अमित शाह और एम-मोदी जी से बचाना है। बेशक राहुल गांधी ने ‘स्कैम’ शब्द की व्याख्या कुछ संयत तरीके से की। यह कैसा चुनाव प्रचार है कि मुद्दों की बात कम और नाम लेकर कीचड़ ज्यादा उछाला जा रहा है। विकास के नाम पर प्रधानमंत्री गिनाते हैं कि उन्होंने दिल्ली से यूपी की सरकार को कितना पैसा भेजा। और मुख्यमंत्री अपने किए कामों की गिनती कराते हैं। क्या यही विकासवाद का विजन है? प्रधानमंत्री को उत्तर प्रदेश में रोजाना वारदातों, दुष्कर्म, बलात्कार, दुष्कर्म की कोशिश, हत्याओं, अपहरण, दंगे और चोरी के आंकड़े देने पड़ रहे हैं मानो किसी स्थानीय निकाय के चुनाव हो रहे हों! विकास सिर्फ सड़कों, पुलों, बिजली, लैपटॉप, पेंशन, साइकिल आदि तक सीमित होकर रह गया है। कोई नेता बात नहीं करता कि लाखों बेरोजगारों को काम कैसे मिलेगा? राज्य से सामाजिक कुरीतियां कैसे दूर होंगी? पर्यावरण कैसे स्वच्छ होगा? गंदगी कैसे दूर होगी? विकास की दूरगामी योजनाएं कैसे तैयार की जाएंगी? और चुनाव जाति, धर्म, नस्ल, संप्रदाय से मुक्त कैसे होंगे? ये मुद्दे नहीं हैं, क्योंकि इन पर वोट नहीं मिलते। प्रधानमंत्री के चेहरे पर घबराहट के निशान हैं, क्योंकि सपा-कांग्रेस गठबंधन उत्तर प्रदेश का आईना है। इन शब्दों पर भीड़ तालियां बजाती है। आजम खान ने तो यहां तक बयान दे दिया था कि राजीव गांधी ने बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाया था, लिहाजा गांधी वंश का ही सफाया हो गया। खुद राजीव गांधी की हत्या कर दी गई। क्या चुनाव ऐसी ही बदजुबानी के लिए कराए जाते हैं? क्या बिन हड्डी की जुबान पर लगाम लगाने का कोई कानून चुनाव आयोग के पास नहीं है? वह बेचारा तो वैसे ही ‘दंतहीन’ है। बेशक हमने पूंजीवादी विकास तो किया है। वह भी जरूरी है, लेकिन समाजवादी विकास का क्या होगा? समाजवादी सोच कैसे विकसित होगी? समाजवादी के मायने मुलायम-अखिलेश की सपा से नहीं हैं। वह नाम की समाजवादी है, कर्म तो एकाधिकारवादी हैं। लगता है कि हमारा लोकतंत्र आज भी मध्यकाल में जी रहा है! सचमुच विकास के एजेंडे को भी भरपूर जनादेश मिलता है, यह 2014 में लोकसभा चुनाव के दौरान मोदी के प्रचार ने साबित किया था। फिर आजकल वह खुद जुमले, लच्छेदार लेबल गढ़ने में क्यों लगे हैं?


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