धर्मक्रांति और राष्ट्रक्रांति के प्रेरक स्वामी दयानंद सरस्वती

By: Feb 11th, 2017 12:08 am

स्वामी दयानंद सरस्वती जयंती पर विशेष

महर्षि दयानंद के हृदय में आदर्शवाद की उच्च भावना, यथार्थवादी मार्ग अपनाने की सहज प्रवृत्ति, मातृभूमि को नई दिशा देने का अदम्य उत्साह, व्यवस्थागत दृष्टि से युगानुकूल चिंतन करने की तीव्र इच्छा थी। उन्होंने किसी के विरोध तथा निंदा की परवाह किए बिना हिंदू समाज का कायाकल्प करना अपना ध्येय बना लिया था…

धर्मक्रांति और राष्ट्रक्रांति के प्रेरक स्वामी दयानंद सरस्वतीमहापुरुषों की कीर्ति किसी एक युग तक सीमित नहीं रहती। उनका लोकहितकारी चिंतन सार्वभौमिक एवं सार्वदेशिक होता है। स्वामी दयानंद सरस्वती ऐसे ही एक प्रकाश स्तंभ हैं। जिस युग में उन्होंने जन्म लिया, उस समय देशी-विदेशी प्रभाव से भारतीय संस्कृति संक्रमण के दौर से गुजर रही थी। उन्होंने भयाक्रांत आडंबरों में जकड़ी और धर्म से विमुख जनता को अपनी आध्यात्मिक शक्ति से संबल प्रदान किया। वह उन महान संतों में अग्रणी हैं जिन्होंने देश में प्रचलित अंधविश्वास, रूढि़वादिता, विभिन्न प्रकार के आडंबरों व अमानवीय आचरणों का विरोध किया। हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता देने तथा हिंदू धर्म के उत्थान व इसके स्वाभिमान को जगाने हेतु स्वामीजी के महत्त्वपूर्ण योगदान के लिए भारतीय जनमानस सदैव उनका ऋणी रहेगा। स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फरवरी सन् 1824 में गुजरात के काठियावाड़ क्षेत्र के जिला राजकोट में टंकरा नामक स्थान पर हुआ था। उनके पिता एक अमीर, समृद्ध और प्रभावशाली व्यक्ति थे। दयानंद सरस्वती का असली नाम मूलशंकर था और उनका प्रारंभिक जीवन बहुत आराम से बीता। महर्षि दयानंद के हृदय में आदर्शवाद की उच्च भावना, यथार्थवादी मार्ग अपनाने की सहज प्रवृत्ति, मातृभूमि को नई दिशा देने का अदम्य उत्साह, व्यवस्थागत दृष्टि से युगानुकूल चिंतन करने की तीव्र इच्छा थी। उन्होंने किसी के विरोध तथा निंदा की परवाह किए बिना हिंदू समाज का कायाकल्प करना अपना ध्येय बना लिया था। स्वामी दयानंद सरस्वती ने 1875 में गिरगांव मुंबई में आर्यसमाज की स्थापना की। आर्य समाज के नियम और सिद्धांत प्राणिमात्र के कल्याण के लिए हैं, संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना। उन्होंने वेदों की सत्ता को सदा सर्वोपरि माना। स्वामीजी ने कर्म सिद्धांत, पुनर्जन्म, ब्रह्मचर्य तथा संन्यास को अपने दर्शन का चार स्तंभ बनाया। सत्यार्थ प्रकाश के लेखन में उन्होंने भक्ति-ज्ञान के अतिरिक्त समाज के नैतिक उत्थान एवं समाज-सुधार पर भी जोर दिया। उन्होंने धर्म के क्षेत्र में व्याप्त अंधविश्वास, कुरीतियों एवं ढकोसलों का विरोध किया और धर्म के वास्तविक स्वरूप को स्थापित किया। उनके जीवन में ऐसी बहुत सी घटनाएं हुईं, जिन्होंने उन्हें हिंदू धर्म की पारंपरिक मान्यताओं और ईश्वर से जुड़ी भ्रांत धारणाओं को बदलने के लिए विवश किया। अपनी छोटी बहन और चाचा की हैजे के कारण हुई मृत्यु से वह जीवन-मरण के अर्थ पर गहराई से सोचने लगे और वह 1846 मे सत्य की खोज मे निकल पड़े। इस यात्रा में वह गुरु विरजानंद के पास पहुंचे। गुरुवर ने उन्हें पाणिनी व्याकरण, पातंजल-योगसूत्र तथा वेद-वेदांग का अध्ययन कराया। गुरु दक्षिणा में उन्होंने मांगा विद्या कि विद्या को सफल कर दिखाओ। परोपकार करो, सत्य शास्त्रों का उद्धार करो, मत-मतांतरों की अविद्या को मिटाओ। वेद के प्रकाश से इस अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करो, वैदिक धर्म का आलोक सर्वत्र विकीर्ण करो। महर्षि दयानंद ने अनेक स्थानों की यात्रा की। उन्होंने हरिद्वार में कुंभ के अवसर पर पाखंड खंडिनी पताका फहराई। उन्होंने अनेक शास्त्रार्थ किए। वह कलकत्ता में बाबू केशवचंद्र सेन तथा देवेंद्र नाथ ठाकुर के संपर्क में आए। केशवचंद्र सेन ने स्वामीजी को यह सलाह दी कि यदि आप संस्कृत छोड़ कर हिंदी में बोलना आरंभ करें, तो देश का असीम उपकार हो सकता है। तभी से स्वामीजी ने हिंदी में उपदेश देना प्रारंभ किया। इससे विभिन्न प्रांतों में उन्हें असंख्य अनुयायी मिलने लगे।  उनके धर्म में न स्वर्ग का प्रलोभन था और न नरक का भय। प्रारंभ में अनेक व्यक्तियों ने स्वामीजी के समाज सुधार के कार्याें में विभिन्न प्रकार के विघ्न डाले और उनका विरोध किया। धीरे-धीरे उनके तर्क लोगों की समझ में आने लगे और विरोध कम हुआ। स्वामी दयानंद सरस्वती ने न केवल धर्मक्रांति की बल्कि परतंत्रता में जकड़े देश को आजादी दिलाने के लिए राष्ट्रक्रांति का भी बिगुल  बजाया। उनके विराट व्यक्तित्व को किसी उपमा से उपमित करना उनके व्यक्तित्व को सीमित बनाना होगा।

-ललित गर्ग, पटपड़गंज, दिल्ली-92


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