पंजाब से कांग्रेस की वापसी !

By: Feb 6th, 2017 12:05 am

पंजाब और गोवा में मतदान भी हो चुका है। पंजाब में 78 फीसदी से ज्यादा मतदान और गोवा में 83 फीसदी से ज्यादा मतदान किया गया है। पंजाब में 2012 की तुलना में मतदान कुछ अधिक है, जबकि गोवा ने पुड्डुचेरी का रिकार्ड तोड़ कर नया कीर्तिमान स्थापित किया है। इसकी यह व्याख्या नहीं की जा सकती कि जनता सत्तारूढ़ पक्ष के खिलाफ रही है या उसी के विकास-कार्यों पर बटन दबाया है। लेकिन मताधिकार के प्रति लोगों में जागरूकता दिखना अच्छा संकेत है। दरअसल अब पांच राज्यों का चुनाव एक निष्कर्ष की ओर बढ़ने लगा है। वोटिंग मशीनों में दर्ज होकर जनादेश का एक हिस्सा भी तय हो चुका है। लिहाजा एक सवाल, एक जिज्ञासा मन में उठती रही है कि क्या इन चुनावों के जरिए कांग्रेस का पुनरोत्थान होगा? क्या देश की राजनीति में कांग्रेस की वापसी की शुरुआत हो सकेगी? इस संदर्भ में पंजाब के चुनाव गौरतलब हैं, जहां कांग्रेस को सत्ता में लौटने की उम्मीद है। यह कांग्रेस के किसी एजेंडे या घोषणा-पत्र की उपलब्धि नहीं होगी, बल्कि अकालियों की गलतियों, आर्थिक नाकामियां, नशा, बेरोजगारी, बदनामियों के खिलाफ एक जन-आक्रोश की अभिव्यक्ति होगी। वैसे भी बीते 10 साल से पंजाब में अकाली-भाजपा की सरकार है, लिहाजा सत्ता-विरोधी लहर तो स्वाभाविक है, लेकिन कुछ परिस्थितियों का आकलन करें, तो अकालियों को ही पंजाब की बर्बादी के लिए कसूरवार माना जा सकता है। दरअसल भाजपा इस ‘कालिख’ से कुछ बचती रही है, क्योंकि उसका वोट औसत ही आठ-नौ फीसदी रहा है। शेष 32-34 फीसदी वोट अकाली दल के पक्ष में जाते रहे हैं, लिहाजा सरकार में भी दादागिरी अकालियों की ही रही है। बहरहाल पंजाब आज 1.30 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा का घाटा झेल रहा है। हरित क्रांति की दृष्टि से जो राज्य देश भर में एक उदाहरण होता था, आज सर्वश्रेष्ठ पायदान से खिसक कर 14वें स्थान पर आ गया है। पंजाब की जीडीपी करीब 20 फीसदी होती थी, जो आज तीन फीसदी के करीब है। कृषि दर मात्र एक फीसदी से भी कम हो गई है। सरकार डाक्टरों को 15,000 रुपए माह के वेतन पर रखने को बाध्य है। लुधियाना सरीखे औद्योगिक शहर में कई कारखाने या तो बंद हो चुके हैं अथवा पलायन कर गए हैं। करीब 53 लाख लोग गरीबी की रेखा के नीचे हैं, लेकिन 50 से ज्यादा ऐसे उम्मीदवार चुनाव मैदान में हैं, जिन पर हत्या, बलात्कार और अपहरण के केस हैं। सरकारी विज्ञापनों में एक खास शहर या कुछ दिहाड़ीदार चेहरों को दिखाकर पंजाब की समृद्ध और संपन्न तस्वीर पेश नहीं की जा सकती। ऐसा नहीं है कि ‘अन्नदाता’ पंजाब की बदहाली के लिए सिर्फ अकाली ही एकमात्र दोषी हैं। कांग्रेस की विरासत में भी ऐसा ही मिलता रहा है, जहां से पंजाब कंगाल होता रहा है। फिर भी बुनियादी जिम्मेदारी अकाली-भाजपा की है, क्योंकि वे सत्तारूढ़ रहे हैं। मौजूदा चुनावों में पंजाब में कांग्रेस सरकार बनने के आसार बताए जा रहे हैं, तो उसका श्रेय कांग्रेस को नहीं दिया जा सकता। दरअसल आम आदमी पार्टी (आप) ने पंजाब का चुनाव पहली बार तिकोना बना दिया है। पंजाब के सबसे बड़े मालवा क्षेत्र में ‘आप’ का नशे के खिलाफ प्रचार ने दलितों का एक खास जनमत तैयार किया है। पंजाब में करीब 31 फीसदी दलित हैं। कुछ सरहदी इलाकों में भी ‘आप’ को समर्थन मिल रहा है। यदि निष्कर्ष के तौर पर पंजाब में कांग्रेस की वापसी होती है, तो उसी आधार पर पार्टी का पुनरोत्थान नहीं माना जा सकता। स्थानीय आकलन ऐसे भी हैं कि यदि ‘आप’ ने 15-20 सीटों पर कांग्रेस के वोट काट डाले, जैसा कि बीते चुनाव में पीपीपी ने किया था, तो कोई हैरत नहीं कि अकाली-भाजपा को लगातार तीसरी बार भी सत्ता नसीब हो जाए! बहरहाल पंजाब के बाद उत्तराखंड में तो कांग्रेस सरकार की विदाई के आसार हैं। गोवा में भाजपा गठबंधन के टूटने के बावजूद कांग्रेस अपनी वापसी की हवा तैयार नहीं कर पाई है। संघ के बागी सुभाष जी के गोवा सुरक्षा मंच, एमजीपी और शिवसेना के नए गठबंधन की तुलना में भाजपा को ही एक और मौका देने के आकलन सामने आए हैं। अलबत्ता मुकाबला कड़ा है। मणिपुर में कांग्रेस आज भी सत्तारूढ़ है और लंबे अंतराल से सरकारें कांग्रेस के इर्द-गिर्द ही बनती रही हैं। वहां भाजपा का कोई जनाधार नहीं था, लेकिन असम, अरुणाचल प्रदेश में भाजपा सरकारें बनने के बाद मणिपुर के लोगों का ध्यान भी भाजपा की ओर गया। मणिपुर उग्रवादग्रस्त राज्य रहा है। उस पर वहां कांग्रेस की इबोबी सरकार ने जो नए जिले बनाए हैं, उनकी प्रतिक्रिया में राज्य के लोगों को 95 दिन तक आर्थिक नाकेबंदी झेलनी पड़ी है। अंततः केंद्र की मोदी सरकार के दखल के बाद नाकेबंदी खत्म होने के आसार पुख्ता हुए हैं। सवाल है कि यदि मणिपुर भी कांग्रेस से छिन जाता है, तो पूर्वोत्तर में उसकी ताकत आधी रह जाएगी। नतीजतन वर्चस्व का अंत भी होगा। दरअसल इन चुनावों में सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष है-उत्तर प्रदेश का चुनाव। वहां भी कांग्रेस सपा के कंधे पर इस तरह सवार है मानो विक्रमादित्य के कंधों पर बेताल…! सपा और अखिलेश यादव की लोकप्रिय छवि के कारण कांग्रेस भी चुनावी मुकाबले में मानी जा रही है, क्योंकि दोनों में गठबंधन है। बेशक सपा दोबारा सत्ता में लौट आए, लेकिन कांग्रेस की स्थिति ‘बिहारवाली’ ही रहेगी। देश के सबसे बड़े राज्य में 35-40 विधायकों की उपस्थिति कांग्रेस का पुनरोत्थान तय नहीं कर सकती। अलबत्ता चुनावी रेस में भाजपा गठबंधन भी पूरी ताकत के साथ दौड़ रहा है। कुछ सर्वे ने सबसे बड़े पक्ष के तौर पर उसे ही आंका है। बहरहाल चुनावी जीत-हार का इंतजार 11 मार्च तक जरूर किया जाए, लेकिन जिस चुनावी माहौल में हम कांग्रेस की पराश्रित, हांफती स्थिति को देख रहे हैं, उसके मद्देनजर फिलहाल कांग्रेस की वापसी या पुनरोद्धार के कोई आसार नहीं हैं।


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