पहाड़ी संस्कृति व कला को संजोए बजट

By: Feb 27th, 2017 12:02 am

( कर्म सिंह ठाकुर लेखक, सुंदरनगर, मंडी से हैं )

पहाड़ी टोपी, शॉल, मफलर, रूमाल के लिए नई मार्केट को खोजना होगा। इससे जहां स्वरोजगार बढ़ेगा, वहीं युवाओं की प्राचीनतम परंपराओं के संरक्षण में अग्रणी भूमिका सुनिश्चित होगी। इसके साथ-साथ युवाओं को ब्रांडेड प्रोडक्टों का विकल्प सुनिश्चित करवाने के लिए आगामी बजट में प्रदेश सरकार को नई शुरुआत करनी चाहिए…

हिमाचल प्रदेश भारत के मानचित्र पर आर्थिक समृद्धता और शांत वातावरण के लिए प्रसिद्ध है। पहाड़ी कला व संस्कृति प्रदेश को राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गौरवान्वित करती है। पहाड़ी नृत्य, कला, संस्कृति, खान-पान, दैवीय परंपराएं, प्राचीन रीति-रिवाज हिमाचल के कण-कण में विद्यमान हैं। हाल ही में 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस पर चंबा रूमाल की झांकी ने इस छोटे से पहाड़ी राज्य की हाजिरी सुनिश्चित करके कलाओं पर सबका ध्यान पुनः आकर्षित किया। वर्तमान में आधुनिकता की अंधी दौड़ व पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव परंपरागत रीति-रिवाजों पर भारी पड़ रहा है। प्रदेश का युवा नकली व चमचमाती वस्तुओं का मोहताज बनता जा रहा है। पहाड़ी भाषा, वेशभूषा, देशी खाना अब पहाड़ी लोगों को भा नहीं रहा है। प्रदेश के लोग अपनी गौरवान्वित परंपरा को छोड़कर नवीन पाश्चात्य दिनचर्या, भोजन व पहनावे को अपना रहे हैं। संस्कारहीनता, अव्यावहारिकता, धोखाधड़ी व पथभ्रष्ट होना इसी नवीन पाश्चात्य प्रभाव की देन है। आज हमें पहाड़ी भाषा में बात करने में भी शर्म आती है। सुबह का अभिवादन हो या बड़े बुजुर्गों का आशीर्वाद व चरण स्पर्श की परंपराएं, अब हैलो, हाय इत्यादि शब्दों की मोहताज हो गई हैं। दिखावा व आडंबर इस कद्र हावी हो गए हैं कि हम अपने नैतिक मूल्यों, सभ्यता, संस्कृति से कोसों दूर चले गए हैं। पहाड़ी भाषा लेखन की दुनिया से तो गायब हो ही गई है, अब जुबानों से भी लगभग गायब होने के कगार पर है। इस दिशा में प्रदेश भाषा, संस्कृति व कला संवर्द्धन विभाग को नई इबारत लिखनी होगी। पहाड़ी टोपी, शॉल, मफलर, रूमाल के लिए नई मार्केट को खोजना होगा। इससे जहां स्वरोजगार बढ़ेगा, वहीं दूसरी तरफ युवाओं की प्राचीनतम परंपराओं के संरक्षण में अग्रणी भूमिका सुनिश्चित होगी। इसके साथ-साथ युवाओं को ब्रांडेड प्रोडक्टों का विकल्प सुनिश्चित करवाने के लिए आगामी बजट में प्रदेश सरकार को नई शुरुआत करनी चाहिए। इस दिशा में एक नई पहल करते हुए सरकार को भाषा एवं संस्कृति के संवर्द्धन के लिए स्वरोजगार उद्योगों की स्थापना करनी होगी।

भाषात्मक ज्ञान पर अच्छी पकड़ नई पहचान दिलाने में सहायक होती है। आज जहां अंग्रेजी भाषा सर्वश्रेष्ठता धारण किए हुए है, वहीं देश की मातृभाषा अपनी अंतिम सांसें गिन रही है। वर्ष 1950 में हिंदी को राजभाषा स्वीकार किया गया, आशा थी कि आगामी 15 वर्षों में वह अंग्रेजी का स्थान ले लेगी, लेकिन हुआ उसका उल्टा। आज भारत के प्रशासन व अध्यापन की मुख्य भाषा अंग्रेजी ही है। उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड राज्यों की राज्य भाषा हिंदी है, लेकिन प्रतिष्ठित नौकरी व व्यवसाय में हिंदी माध्यम के छात्र पिछड़ रहे हैं। पिछले कुछ समय से इंटरनेट के जरिए ट्विटर, ब्लॉग, फेसबुक, व्हाट्स ऐप, यू-ट्यूब तथा हिंदी न्यूज व मनोरंजन के चैनलों ने हिंदी की लोकप्रियता को बढ़ाया है, लेकिन प्रशासन व न्यायपालिका की भाषा पर आज भी अंग्रेजी का ही बोलबाला है। प्रदेश की शासन की नीति के अनुसार हिंदी, संस्कृत, पहाड़ी और उर्दू भाषाओं के उत्थान और प्रचार-प्रसार के लिए विभिन्न योजनाओं के अधीन कार्य किया जा रहा है, जिसका प्रभाव हिमाचल प्रदेश लोक सेवा आयोग द्वारा संचालित प्रशासनिक सेवाओं की भर्ती में हिंदी का विकल्प देना सराहनीय कार्य है, लेकिन अध्ययन सामग्री में अंग्रेजी का ही वर्चस्व कायम है। ऐसे में साक्षात्कार तक पहुंचना थोड़ा मुश्किल है, लेकिन आयोग इस दिशा में और भी बेहतर कार्य कर सकता है, यदि वह प्रदेश की मातृभाषा हिंदी में अध्ययन सामग्री उपलब्ध करवाए। इसी तर्ज पर अन्य विभागों को भी पहल करनी होगी। प्रशासनिक सेवाओं की तैयारी में लीन अभ्यर्थियों को समाचार पत्रों व समसामयिक घटनाओं पर अच्छी-खासी पकड़ बनानी पड़ती है।

हिमाचल प्रदेश में ‘दिव्य हिमाचल’ समाचार पत्र द्वारा प्रकाशित सामग्री हिंदी भाषी अभ्यर्थियों के लिए संजीवनी से कम नहीं है। इस वर्ष प्रारंभिक परीक्षा में 33 प्रतिशत हिमाचल प्रदेश की पृष्ठभूमि का पेपर रहेगा, जिसमें प्रदेश की समसामयिक घटनाओं पर सटीक जानकारी ‘दिव्य हिमाचल’ हिंदी समाचार पत्र से ही प्राप्त की जा सकती है। प्रदेश की संस्कृति, भाषा, कला को संजोने में समाचार पत्रों का बहुत योगदान होता है। समाचार पत्रों की स्वतंत्रता, कर्त्तव्यनिष्ठा व ईमानदारी प्रदेश की संस्कृति के संवर्द्धन में नए अध्याय जोड़ सकती है। आगामी बजट में प्रदेश सरकार कला-संस्कृति, भाषा के संवर्द्धन के लिए नई इबारत लिखने का प्रयास करे। अंग्रेजी आजादी के 69 वर्षों बाद भी अपनी छाप भारत पर बनाए हुए है और आजाद होने के 69 वर्षों बाद भी हम हिंदी को हिंदोस्तान में उसकी जगह नहीं दिला पाए। अपनी संस्कृति को सहेजने के लिए जरूरी है कि अपनी मातृ भाषा को सम्मान दिया जाए। यदि हम अपनी मातृ भाषा को सम्मान न देकर विदेशी भाषा की पैरवी करेंगे, तो हम अपनी जड़ों से जुड़े नहीं रह सकते। बजट में इस संदर्भ को ध्यान में रखें।

ई-मेलः ksthakur25@gmail.com


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