बाप को साथ पसंद नहीं !

By: Feb 1st, 2017 12:01 am

बंटा घर, बंटे रिश्ते, बंटी पार्टी और बंटे नेतृत्व के बावजूद कोई गठबंधन स्थिर और सार्थक हो सकता है? सपा-कांग्रेस के गठबंधन पर ‘नेताजी’ मुलायम सिंह यादव ने जिस तरह करवट बदली है, उसके मद्देनजर सवाल स्वाभाविक है कि क्या सपा के पुराने नेता, कार्यकर्ता कांग्रेस कोटे की 105 सीटों पर चुनाव में उतरेंगे? क्या बाप को वाकई बेटे और कांग्रेस का साथ पसंद नहीं है? क्या ‘नेताजी’ अपने बयान पर अडिग रहेंगे कि वह सपा-कांग्रेस गठबंधन के तहत चुनाव प्रचार नहीं करेंगे? क्या यह गठबंधन सपा के अस्तित्व को कोई नुकसान पहुंचा सकता है? सबसे अहम सवाल यह हो सकता है कि क्या केंद्र की मोदी सरकार के किसी परोक्ष दबाव में मुलायम ने बेटे अखिलेश का परोक्ष विरोध करना तय किया है? क्या मुसलमान वोट बैंक को एकजुट करने के मद्देनजर यह गठबंधन जरूरी नहीं था? बहरहाल मुलायम सिंह ने एक बार फिर बवाल खड़ा कर दिया है। अभी तो विश्लेषक अखिलेश-राहुल के साथ पर टिप्पणियां कर रहे थे कि ‘नेताजी’ ने साफ कर दिया कि उन्हें यह साथ पसंद नहीं है। वह जीवन भर कांग्रेस के खिलाफ लड़ाई लड़ते रहे हैं। बेशक मुलायम का यह कहना एक अर्द्धसत्य-सा है। ‘नेताजी’ ने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की ही सियासी जमीन कब्जाई और उसे हमेशा के लिए ‘कंगाल’ कर दिया। मुलायम का यह कथन अर्द्धसत्य यूं है, क्योंकि कांग्रेस के समर्थन पर ही संयुक्त मोर्चा की जो सरकार केंद्र में बनी थी, मुलायम उसमें रक्षा मंत्री के पद पर रहे। ‘नेताजी’ की सियासत में वह पद अभी तक का सर्वोच्च है। उसके बाद केंद्र की राजनीति में वह कांग्रेस से ही चिपके रहे। यूपीए की 10 साला सरकार में भी उन्होंने कांग्रेस के लिए समर्थन जारी रखा। लिहाजा कांग्रेस-विरोध का मुलायम का जुमला बेतुका है। यह संभव है कि अखिलेश ने उनके मांगे 38 टिकट नहीं दिए और ‘नेताजी’ को गठबंधन की 105 सीटें कांग्रेस को देने के बाद एहसास हुआ कि सालों से उनके साथ संघर्ष करने वाले नेताओं और कार्यकर्ताओं का आखिर क्या राजनीतिक भविष्य होगा? सपा के गठन, सियासी यात्रा से सत्ता तक असंख्य अनाम कार्यकर्ताओं ने भी मेहनत की थी और मौजूदा परिदृश्य में वे पांच और सालों के लिए बेकाम हो जाएंगे। नतीजतन ‘नेताजी’ ने आह्वान किया है कि वे कांग्रेसी सीटों पर चुनाव लड़ें। वे लोकदल के चुनाव चिह्न पर चुनाव लड़ते हैं या फिर निर्दलीय तौर पर…! बेशक वे जीतें या हारें, लेकिन गठबंधन की संभावनाओं को तारपीडो कर सकते हैं। मुलायम सिंह के कुछ करीबी नेता तो बसपा में चले गए हैं और उसी के चुनाव चिह्न पर मैदान में हैं। यदि 105 सीटों पर ‘नेताजी’ के चहेते नेता और कार्यकर्ता चुनाव लड़ते हैं, तो फायदा भाजपा को ही हो सकता है। मुलायम सिंह एक कद्दावर नेता हैं। यादव-मुस्लिम वोट बैंक उन्हीं के जरिए अखिलेश तक पहुंचा है। आज लोकप्रियता और प्रासंगिकता किसकी है, इस सवाल को छोड़ दीजिए। मुलायम सिंह आज भी ‘जीरो’ नहीं हैं, लिहाजा वोटर भ्रम की स्थिति में होंगे। यदि हरेक सीट पर औसतन पांच-सात हजार वोट सपा गठबंधन के खिलाफ जाते हैं, तो भाजपा उस विभाजन के बीच में से निकल सकती है। नतीजतन गठबंधन का लक्ष्य धरा-धराया रह सकता है। इस स्थिति में यादव-मुस्लिम वोट बंट सकते हैं और वही सपा की बुनियादी ताकत रहे हैं। कांग्रेस के पास बहुत कम परंपरागत वोट बैंक बचा है। सवर्ण भाजपा की ओर हैं, तो दलित और पिछड़े कई हिस्सों में बंट चुके हैं। इस गठबंधन की राष्ट्रीय महत्ता है, क्योंकि यह मोदी-विरोध का सबसे बड़ा मंच है। हालांकि सर्वे अलग-अलग निष्कर्ष दिखा रहे हैं। किसी में सपा-कांग्रेस गठबंधन जीत के बहुत करीब है, तो किसी में भाजपा गठबंधन जीत रहा है। असमंजस के इस दौर में, यदि, मुसलमानों का ध्रुवीकरण बसपा की ओर हो गया, तो नतीजे चौंकाने वाले भी हो सकते हैं। बहरहाल सपा की कुनबाई जंग अभी पूरी तरह शांत नहीं हुई है। बाप-बेटे के बीच का द्वंद्व अब भी जारी है। यदि अपनी आदत से मजबूर मुलायम सिंह ने इस बार पलटी नहीं मारी तो उत्तर प्रदेश के चुनाव किसी भी दिशा में जा सकते हैं। उससे राष्ट्रीय राजनीति प्रभावित होगी।


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